पंजाब के संकट व राजनीतिक दलों की भूमिका

Wednesday, Sep 11, 2019 - 01:54 AM (IST)

पंजाब के मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद, छोटे-बड़े अन्य नेता और यहां तक कि अफसरशाह भी मानें या नहीं, वास्तविकता यह है कि पंजाब इस समय एक नहीं बल्कि कई संकटों में घिरा हुआ है। सबसे पहला तथा बड़ा वित्तीय संकट है। सरकार पहले दिन से ही और आज अढ़ाई वर्ष बाद भी यही दलील दे रही है कि खजाना खाली है। दूसरा संकट पानी का है। गत कई दशकों से हमने धान बीज-बीजकर भूमिगत पानी को बहुत नीचे पहुंचा दिया है।

परिणामस्वरूप राज्य के 118 ब्लाकों में से कम से कम 70 में पानी जहरीला होने की हद तक जा पहुंचा है। वहीं दिलचस्प बात यह भी है कि चावल हमारी खुराक ही नहीं। हम दूसरों के लिए अपना पानी समाप्त करने पर तुले हुए हैं। तीसरा कृषि संकट है। अधिकतर किसान कर्जे के बोझ तले दबे हैं। थक-हार कर वे आत्महत्याओं की ओर चल पड़े हैं। गत अढ़ाई-तीन वर्षों से आत्महत्याओं की औसत दर रोजाना एक से लेकर तीन तक पहुंच गई है। चौथा नशों का संकट है। कैप्टन सरकार ने एक महीने में नशा समाप्त करने की सौगंध ली थी। आज अढ़ाई वर्षों बाद भी सब कुछ ज्यों का त्यों है। पांचवां बेरोजगारी का आलम है। सरकार ने प्रत्येक घर में एक सदस्य को रोजगार देने का वायदा किया जो पूरा नहीं हो सका। 

कर्मचारियों का संकट है। वे अपनी मांगों के लिए आए दिन धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं, टैंकियों पर चढ़ रहे हैं। नए कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो रही। पुरानों को जरूरत से अधिक काम करना पड़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार आज हर विभाग में भर्ती अढ़ाई दशक पहले वाली संख्या से भी आधी रह गई है। इस तरह सरकारी कार्यालयों में काम करवाने आए लोगों को परेशानी होने लगी। एक अन्य संकट सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार का बोलबाला होने लगा है। कोई काम बिना पैसे के नहीं होता। बेशक सुविधा सैंटर तथा सांझ केन्द्र लोगों के फायदे के लिए बनाए गए हों, एक बार चक्कर लगा लो, सब ज्ञान हो जाएगा। 

कर्मचारी इस बात से भी दुखी हैं कि उनके टी.ए./डी.ए. तो बकाया पड़े हैं, जबकि मंत्रियों, विधायकों तथा अफसरों को तुरंत अदायगी हो जाती है। खजाना खाली होने के बावजूद मंत्रियों का आयकर सरकारी खजाने से भरा जाता है। रेत, केबल तथा ट्रांसपोर्ट जैसे अन्य कई संकट भी हैं। इनके बाद शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे विभागों में निजीकरण का बोलबाला होने लगा है। 

आज पंजाब एक छोटा-सा राज्य है, केवल 22 जिले तथा आबादी लगभग पौने 3 करोड़। क्षेत्रफल इसका इतना बनता है कि इसे आप चार-साढ़े चार घंटों में पार कर सकते हैं। एक छोटे से राज्य को यदि आज एक नहीं, अनेकों समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है तो इसके क्या कारण हैं? क्या राजनीतिक नेतृत्व या प्रशासकीय ढांचा इतना निरुत्साहित हो गया है या उसकी इच्छाशक्ति ही नहीं कि पंजाब, जो कुछ दशक पूर्व तक देश की खड्ग भुजा थी, सारे देश के लिए सबसे अधिक अनाज पैदा करता था, हर मामले में इसकी बड़ी कुर्बानियों की भूमिका रही है, इसने विश्व-युद्धों तथा मुगलों व अंग्रेजों के साथ हुई लड़ाइयों में दुश्मनों के दांत खट्टे किए और घोड़ों की टापों को थामा है, पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में बेमिसाल बहादुरी दिखाई है, आज वही पंजाब खुद गम्भीर संकटों से घिरा हुआ है। देखते हैं इन संकटों से उबरने या उबारने के लिए पंजाब के राजनीतिक दलों की भूमिका क्या है? 

पंजाब में गिनती के पक्ष से राजनीतिक दल बेशुमार हैं। ईंट उठाओ तो राजनीतिक दल। कई राष्ट्रीय, कई क्षेत्रीय तथा कई बस एक-एक, दो-दो चौधरियों वाले। वैसे पिछले 70-72 वर्षों से यहां अधिकतर दारोमदार कांग्रेस, अकाली तथा बीच-बीच में नए बने एक-दो दलों का रहा है। अब इनमें एक अन्य दल आम आदमी पार्टी भी शामिल हो गई है। यानी कुल मिलाकर तीन दल।

प्रश्र यह है कि पंजाब के इन सभी संकटों से निपटने की जिम्मेदारी केवल सत्ताधारी कांग्रेस की है, अन्य किसी की नहीं? लोकतांत्रिक संविधान तो यह कहता है कि किसी भी देश अथवा राज्य में विरोधी दल या अन्य पार्टियां ऐसे मसलों में सत्ताधारी दल को सहयोग दें। क्या पंजाब के ये दोनों दल-शिरोमणि अकाली दल तथा आम आदमी पार्टी सहयोग दे रहे हैं? जवाब सीधा स्पष्ट न है। माना सरकार की कुछ नीतियां गलत हो सकती हैं, मगर सहयोग न देने की इन्होंने सौगंध खाई हुई है। भारत के राजनीतिक ढांचे का आज यही बड़ा दुखांत बन गया है कि विरोधी दल तमाशा देखने वाले बन गए हैं। भगवान ही रक्षा करे। 

पंजाब के जिन तीन राजनीतिक दलों का ऊपर जिक्र किया है तो इनमें से कांग्रेस तथा शिरोमणि अकाली दल अभी तक बारी-बारी से शासन करते रहे हैं। आम आदमी पार्टी केवल 5-6 वर्षों से पंजाब के राजनीतिक नक्शे पर उभरी है। दिल्ली में इसकी अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में दूसरी सरकार चल रही है। भारत में यह अन्य कहीं पकड़ नहीं बना सकी। पंजाब में इसने लोकसभा की अचानक 4 सीटें जीत कर अपनी पैठ बना ली थी। इस बार के चुनावों में एक ही सीट जीत सकी है।

पंजाब में 2017 के चुनावों में इसकी सरकार बनने के आसार दिखाई दिए थे। केजरीवाल की ओहदेदारियों के कारण सारा गुड़- गोबर हो गया। पार्टी पिछले दो-अढ़ाई वर्षों के दौरान कई धड़ों में बांटी जा चुकी है। लगता नहीं कि यह पहले की तरह अपने पांव मजबूत कर सके। वैसे पंजाब को उपरोक्त संकटों से निकालने के लिए न तो इस दल की कोई ठोस नीति है और न ही ऐसा कुछ सामने आया है, सिवाय बयानबाजी के। वरना तकड़ी विरोधी दल सरकार को कई बार दबा सकता है। 

दूसरा विरोधी पक्ष शिरोमणि अकाली दल 2014-15 में राज्य में हुए बेअदबी कांडों के कारण अपने लोगों से इस कदर दूर हो चुका है कि इसका वजूद तो है परंतु जान नहीं है। बाकी कसर इसके अध्यक्ष सुखबीर बादल द्वारा लोकसभा सीट जीत कर दिल्ली जा बैठने से पूरी हो गई है। पंजाब में कोई जानदार अकाली नेता नहीं रहा जो कांग्रेस सरकार को चुनौती दे सके। सबसे अधिक शोर तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह तथा शिरोमणि अकाली दल दोनों द्वारा मिलकर दोस्ताना मैच खेलने का है, जिसका कई विधायक तथा सत्ताधारी पक्ष के मंत्री, विधायक तथा सांसद भी आरोप लगाते हैं।

कैप्टन तथा सुखबीर बादल आपस में घी-खिचड़ी हैं इसलिए शिरोमणि अकाली दल द्वारा कैप्टन सरकार की इस संकट से बाहर निकलने में मदद करने या फिर सीधी लड़ाई लडऩे का प्रश्र ही पैदा नहीं होता। जाहिर है जब मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को न कोई अपना और न ही बेगाना रोकने-टोकने वाला है तो वह क्यों न सिरहाने के नीचे बाजू रख कर सोएं। ये सब संकट तो लोगों के हैं और वही जानें।-शंगारा सिंह भुल्लर
 

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