पुलवामा आतंकवादी हमला: समस्या और समाधान

Friday, Feb 15, 2019 - 06:47 PM (IST)

पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने लगभग तीन दशकों से जम्मू-कश्मीर को युद्धक्षेत्र में बदल दिया है। सैन्य बलों ने समस्या पर काफी हद तक काबू पा लिया है और जम्मू और लद्दाख क्षेत्र पूरी तरह से आतंकवाद से मुक्त हो चुके है। कश्मीर में लेकिन समस्या अभी सुलझी नहीं है। दक्षिण कश्मीर के पुलवामा (लाथेपुरा) इलाके में 14 फरवरी को सीआरपीएफ के सैनिक काफिले पर हुआ हमला अब तक की सबसे बड़ी आतंकी घटना है। सुरक्षा बलों के शिविरों और रिहायशी इलाकों पर आत्मघाती हमले, गाडिय़ों और पैदल दस्तों पर घात लगाना और आम नागरिकों को बंधक बना कर अधिक से अधिक समय तक मीडिया में बने रहना इस छद्म युद्ध का हिस्सा बन चुके हैं। 2004 में कश्मीर में असेम्बली पर कार बम से हमला हुआ था और 14 वर्ष बाद पुलवामा में फिर बारूद से लदी कार को जवानों से भरी बस से टकराकर विस्फोट करना इस घटना को विशेष बनाते हैं। ये इस युद्ध में नया अध्याय भी है और चिंता का विषय भी। 



जैश ए मुहम्मद ने ली इस हमल कीे जिम्मेदारी 
44 जवानों की तत्काल मृत्यु और पचास से अधिक का घायल होना किसी भी दृष्टि से कम नहीं आंका जा सकता। पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन जैश ए मुहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। इस हमले से जहां देश और सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ा है, वहीं आतंकियों और उनके समर्थकों के हौसले बढ़े हैं जो कि छद्म युद्ध में हमारी सेनाओं के लिए अच्छा नहीं है। पाकिस्तान के लिए इस से सस्ता और प्रभावी तरीका दूसरा नहीं है जिस से कि लगभग पांच लाख सैनिकों को इतने लम्बे समय तक बांध कर रखा जा सके। आमने सामने के युद्ध में पाकिस्तानी सेनाएं चार बार हार का सामना कर चुकी हैं। वहीं आतंक को जेहाद का नाम दे कर न केवल कश्मीर के युवाओं में बल्कि विश्व भर के मुस्लिम समुदाय में  पाकिस्तान ने अपने आप को इस्लाम का सर्वेसर्वा घोषित किया हुआ है। इसी के चलते आतंकवादी घटनाओं की खुली निंदा करने में धर्म विशेष का नाम आते ही सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे कर अवसरवादी राजनीतिक और धार्मिक नेता अपना अपना हित साधने में जुट जाते हैं। किसी आतंकवाद विरोधी विशेष कानून के अभाव में सुरक्षा बलों का अपने ही नागरिकों के बीच में काम कर पाना मुश्किल हो जाता है। 



पाकिस्तानी आका इस प्रकार के हमलों में अपनी भूमिका कभी नहीं स्वीकारते
वर्ष 2000 तक इस युद्ध में विदेशी आतंकियों की बहुतायत थी पर धीरे धीरे करके अब इस लड़ाई को लड़ाई स्थानीय आतंकी अंजाम दे रहे हैं। कश्मीरी युवाओं का सोशल मीडिया और इन्टरनेट के माध्यम से कट्टरपंथी बनाया जा रहा है। पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस युद्ध को कश्मीरी जनता की आजादी की लड़ाई का नाम दे दिया है और पाकिस्तानी आका इस प्रकार के हमलों में अपनी भूमिका कभी नहीं स्वीकारते। वैसे भी इस प्रकार का हमला बिना स्थानीय समर्थन के नहीं किया जा सकता। सैनिक काफिले की हरकत की पक्की खबर, हमले के लिए उपयुक्त स्थान का चुनाव और हमले से पहले बाकी सूचनाएं आसपास रहने वाले लोगों से ही प्राप्त होती हैं। कश्मीर में राजनीतिक हल के लिए स्थान तभी बनाया जा सकता है जब कि आतंकी हिंसा बंद हो। आतंकियों को पाकिस्तानी सेना और आईएसआई हर प्रकार का समर्थन देते रहे हैं। आतंकवादियों को प्रशिक्षण, धन, हथियार, घुसपैठ में मदद के साथ साथ सूचना और नैतिक समर्थन पाकिस्तान से ही मिलता है। 



पाकिस्तान की ही देन हैं मुम्बई में आतंकी हमला 
यही नहीं, पाकिस्तान ने देश के अन्य भागों में भी स्लीपर सेल तैनात कर के देश को अंदरूनी चोटें पहुंचाई हैं। मुम्बई में आतंकी हमले और उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न प्रान्तों में साम्प्रदायिक दंगे पाकिस्तान की ही देन हैं। चीन के साथ मिलकर देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में भी आईएसआई ने वहां के आतंकी गुटों को आर्थिक और सैनिक समर्थन दिया है। इतना सब होने पर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों और यहां तक कि अमरीका के समक्ष भी अपनी छवि आतंकवाद से  पीड़ित राष्ट्र के रूप में बरकरार रखी है। अफगानिस्तान में तालिबान के विरुद्ध अमरीका के समर्थन कर के पाकिस्तान ने जहां एक तरफ आर्थिक और सैनिक मदद का रास्ता खुला रखा है, वहीं चीन के साथ कई समझौते करते पाकिस्तान ने हथियार और आर्थिक सहायता हासिल की है। चीन के कंधे से बंदूक चला के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हाफिज सईद और मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने से रोका हुआ है। छद्म युद्ध और परमाणु युद्ध का डर दिखा कर पाकिस्तान कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय समस्या का दर्जा दिलाने में काफी हद तक सफल रहा है। 
 

Advertising