जनता ‘खाप पंचायतों’ की तरह सुनाती है फैसले

punjabkesari.in Wednesday, Sep 16, 2020 - 04:42 AM (IST)

हम भारतीयों को गप्प मारने में बड़ा मजा आता है। गप्प जितनी चटपटी और सनसनीखेज हो उतना अच्छा। हम भूखे गिद्ध की तरह इसका आनंद लेते हैं। चाहे यह सोशल मीडिया और टी.वी. चैनलों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर तथा फर्जी खबरों द्वारा आरोपी को दोषी साबित करने के बारे में ही क्यों न हो जिसके चलते मीडिया द्वारा उकसाई गई जनता खाप पंचायत की तरह कार्य करती है और अपना निर्णय सुनाती है। इस क्रम में लोकतांत्रिक न्याय शास्त्र का बुनियादी सिद्धांत कि कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक वह दोषी सिद्ध न हो, की उपेक्षा होती है। 

इस संबंध में दो मामले महत्वपूर्ण हैं। कंगना रनौत के मामले का राजनीतिक औजार के रूप में उपयोग करना। इसकी शुरूआत फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत अथवा आत्महत्या के बारे में उनके द्वारा प्रश्न उठाने से शुरू हुई जिसमें उन्होंने इस अभिनेता की मौत के बारे में बॉलीवुड की नामचीन हस्तियों के विरुद्ध आरोप लगाए। उसके बाद ठाकरे विरोधी बयानों के कारण कंगना के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई और बृहन्मुंबई नगरपालिका ने उनके मुंबई कार्यालय में अवैध निर्माण को गिराया। 

स्पष्ट है कि भाजपा क्वीन का उपयोग अपनी पूर्व सहयोगी शिवसेना को अपमानित करने और उसे नुक्सान पहुंचाने के लिए एक परोक्षी के रूप में कर रही है। महाराष्ट्र में शिवसेना को बदनाम कर उत्तर भारतीयों की भावनाआें को भड़काकर भाजपा शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस सरकार को गिराने के लिए एक और आप्रेशन लोटस चला रही है। कुछ भाजपा नेताआें ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है क्योंकि राज्यपाल कोश्यारी ने इस मामले से ठीक से न निपटने के लिए मुख्यमंत्री ठाकरे के कार्यकरण पर अप्रसन्नता व्यक्त की है और इस बात की भी संभावना है कि वे इस विवाद के बारे में केन्द्र को अपनी रिपोर्ट सौंपेंगे। 

यह बात समझ से परे है कि कंगना रनौत के जीवन के खतरे के झूठे बहाने के आधार पर केन्द्र सरकार ने जल्दबाजी में उन्हें वाई प्लस सुरक्षा क्यों उपलब्ध कराई। क्या वास्तव में उन्हें खतरा है? क्या वे वी.वी.आई.पी. हैं? और यदि हैं तो इसके लिए मोदी सरकार बॉलीवुड अभिनेता की आत्महत्या में इतनी रुचि क्यों ले रही है और यह क्यों सुनिश्चित कर रही है कि इस अभिनेत्री द्वारा वाक् युद्ध जारी रखा जाए। 

तीन केन्द्रीय एजैंसियों-केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा जस्टिस फॉर सुशांत जांच फिल्म अभिनेता की गर्लफ्रैंड रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार के चरित्र हनन में बदल गई है। नशीली दवाआें के आपूर्तिकत्र्ताआें के साथ व्यक्तिगत बातचीत और फोन कॉल को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत कर ये एजैंसियां उनके विरुद्ध वातावरण बना रही हैं और रिया को अपने ब्वायफ्रैंड को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी बता रहे हैं किंतु इस क्रम में यह बात भी सामने आई है कि बॉलीवुड अभिनेता अवसाद के शिकार थे और वे नशीली दवाआें का नियमित सेवन करते थे। रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी के संबंध में नैतिकता और वैधानिकता को एक तरफ भी रखें और इसे राजनीति के चश्मे से देखा जाए तो भी इस मुद्दे को इतना तूल देना उचित नहीं समझा जा सकता है। सत्तारूढ़ भाजपा ने सुशांत की मौत को एक राजनीतिक मोड़ दिया है ताकि वह आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में लोगों की भावनाआें को भड़का सके। 

प्रश्न यह भी उठता है कि सुशांत की मौत के बारे में षड्यंत्रों की खबरों और मीडिया द्वारा तुरंत न्याय करने की आदत क्या हमारी व्यवस्था की खामियों को उजागर करती है। कीचड़ उछालना आज आम बात हो गई है और घृणा चलन में आ गई है। ये प्रश्न आज देश को परेशान कर रहे हैं। आप किसी भी समाचारपत्र को उठाइए या किसी भी टी.वी. चैनल  को देखिए समाचारों की सुर्खियां में सामाजिक मतभेद की खबरें होती हैं जो यह सिद्ध करती है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। 

कुछ लोग इसे ‘सब चलता है’ और कुछ लोग इसे ‘की फरक पैंदा है’ के दृष्टिकोण से देखते हैं। इन समाचारपत्रों के कोई भी पाठक या इन टी.वी. चैनलों के टी.वी. दर्शक आज यह सोचने के लिए मजबूर हैं कि आज हमारे नीति-निर्माताआें के समक्ष सबसे मुख्य समस्याएं कंगना और रिया के मुद्दे हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि आज देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है। जिसके दैनिक रोगी एक लाख तक पहुंच गए हैं, जी.डी.पी. में माइनस 23.9 प्रतिशत की गिरावट आई है, उत्पादन गिर रहा है, आवश्यक वस्तुआें और सेवाआें के दामों में वृद्धि हो रही है, गरीब और गरीब  बन रहा है और देश की 75 करोड़ से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही है। 

आक्रोश, किसी एक व्यक्ति के पीछे पडऩा, पीड़ित कार्ड खेलना, सैक्सिम और षड्यंत्र ये सब हमारे भावनात्मक स्वास्थ्य को भी दर्शाते हैं। आज हम इतने निर्मम बन गए हैं कि देश में प्रतिदिन हो रही 28 आत्महत्याआें पर हम बिल्कुल भी दुख व्यक्त नहीं करते। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार आज देश में प्रति घंटे एक से अधिक आत्महत्याएं हो रही हैं। आज हमारा समाज एक आक्रामक युद्ध की तरह बन गया है जो भीड़तंत्र में विश्वास करता है जहां पर आदिम भावनाआें को उकसाया जाता है जो हमेशा मारकाट करने और खून-खराबा करने के लिए तत्पर रहता है।-पूनम आई. कोशिश 
 


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