राज्यपालों-मुख्यमंत्रियों में सार्वजनिक विवादों पर रोक लगनी चाहिए

Tuesday, May 03, 2022 - 05:09 AM (IST)

गत सप्ताह तमिलनाडु राज्य विधानसभा द्वारा कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपालों की शक्तियों को कम करने संबंधी 2 विधेयक पारित करने के बाद एक बार फिर राज्यपालों की भूमिका महत्वपूर्ण बन गई है। गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा राज्यपालों के बीच कुछ समय से तालमेल गड़बड़ाया हुआ है जिससे राज्यपालों की एक लोकतंत्र में प्रासंगिकता तथा भूमिका को लेकर प्रश्न उठ खड़े हुए। 

यह कड़वाहट आमतौर पर सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने, सदन में बहुमत साबित करने के लिए समय सीमा निर्धारित करने, विधेयकों में देरी करने अथवा उन्हें रोकने और मुख्यमंत्रियों की सार्वजनिक आलोचना आदि को लेकर होती है। तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जे. जयललिता राज्य के तत्कालीन राज्यपाल डा. एम. चेन्ना रैड्डी से नहीं बोलती थीं। 

स्टालिन नीत द्रमुक सरकार पश्चिम बंगाल तथा केरल (जहां एक बार फिर राज्यपालों की भूमिका प्रश्नों के घेरे में आ गई है) के घटनाक्रमों पर करीबी नजर रखे हुए है। यह राज्य की राजनीति में राज्यपाल के कार्यालय की भूमिका तथा प्रासंगिकता पर चर्चा करवाने के लिए राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण के लिए भी प्रयास कर रही है। यह मुम्बई में आयोजित होने वाली गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों की कनक्लेव में इस मुद्दे पर चर्चा करवाना चाहेगी। 

विधानसभा में बोलते हुए मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने याद दिलाया कि केंद्र-राज्य संबंधों पर पंछी आयोग ने कुलपतियों की नियुक्तियों पर भी गौर किया। स्टालिन ने बताया कि कमिशन ने कहा था कि यदि शीर्ष शिक्षाविदों का चयन करने का अधिकार राज्यपाल को दे दिया जाए तो ‘क्रियाकलापों तथा शक्तियों के बीच संघर्ष होना लाजमी है।’ 

स्टालिन तथा राज्यपाल रवि के बीच आपसी मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पहले, सरकार के कदम के लिए सदन के समर्थन हेतु अपील करते हुए स्टालिन ने कहा कि गुजरात ऐसा पहला राज्य था जिसने 2011 के राज्यपाल के पर कतरे। तेलंगाना, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश जैसे अन्य राज्यों ने भी राज्यपालों की शक्तियों में कटौती की है। गत वर्ष दिसम्बर में महाराष्ट्र सरकार ने भी एक ऐसे ही कदम की शुरूआत की थी। राजस्थान ने विशेषज्ञों की एक उच्च स्तरीय समिति का गठन कर ऐसी ही प्रक्रिया शुरू की। 

गत कई दशकों के दौरान राज्यपाल के कार्यालय की ओर से दुव्र्यवहार की कई घटनाएं सामने आई हैं। इससे भी अधिक ऐसे झगड़े उन राज्यों में सामने आ रहे हैं जिनमें केंद्र में सत्तासीन पार्टी से अलग पार्टियों की सरकारें हैं जिसे सत्ता के दुरुपयोग के एक स्पष्ट संकेत के तौर पर देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का राज्यपाल धनखड़ के साथ लगातार विवाद चलता रहता है। इसी तरह तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन का भी मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ झगड़ा चलता रहता है। 

महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को चुभन देते रहते हैं। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान तथा मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के भी सुर नहीं मिलते। दिल्ली में उपराज्यपाल अनिल बैजल का मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ विवाद चलता रहता है तथा पुड्डुचेरी के उपराज्यपाल के नारायण स्वामी सरकार के साथ कई झगड़े हुए हैं। केरल में पिनाराई विजयन सरकार ने मांग की है कि केंद्र राज्य विधानसभाओं को राज्यपालों को उनके पद से हटाने की शक्ति दे यदि वे संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने में असफल रहते हैं तथा आपराधिक मुकद्दमों के आड़े आते हैं। मगर इस तरह के झगड़े नए नहीं हैं। यहां तक कि एक सरकार को गिराने तथा दूसरी को सत्ताच्युत करने में राज्यपालों की भूमिका भी नई नहीं है। 

कुछ ऐसी ही अजीबो-गरीब घटनाएं हुई हैं। पहली 1959 में थी जब केंद्र में नेहरू सरकार ने इंदिरा गांधी के दबाव के चलते नम्बूद्रीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया था। तब से ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें राज्यपालों का इस्तेमाल करके केंद्र ने विभिन्न राज्य सरकारों को बर्खास्त किया है। 1967 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी की सरकार को बर्खास्त कर दिया था तथा कांग्रेस समर्थित पी.सी. घोष की सरकार को सत्तासीन बना दिया। संयुक्त आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार को गिराने में रामलाल की भूमिका एक उत्कृष्ट मामला है कि कैसे राजनीति खेली जाती है। 1989 में पी. वेंकटासुबइया द्वारा एस.आर. बोम्मई सरकार गिराने से एक कानूनी लड़ाई शुरू हो गई तथा सुप्रीमकोर्ट का 1994 का एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

अप्रैल 1994 में राज्यपाल भानु प्रताप सिंह ने केंद्र सरकार से सलाह किए बगैर डिसूजा को तुरंत बर्खास्त कर दिया और विवादास्पद पूर्व मुख्यमंत्री रवि नाइक को उनकी जगह बिठा दिया। जहां तक राज्यपालों की भूमिका की बात है, निर्वाचन सदन में तीव्र मतभेद थे। अम्बेडकर ने एक भूमिका का उल्लेख किया कि उन्हें मंत्रालय को बने रहने देना चाहिए। ‘राज्यपाल का दूसरा कत्र्तव्य मंत्रालय को सलाह देना, मंत्रालय को चेतावनी देना, विकल्प का सुझाव देना तथा पुर्नविचार करने के लिए पूछना होता है।’ राज्य सरकारों के लिए सर्वाधिक परेशान करने वाली बात यह होती है कि राज्यपाल चुना हुआ नहीं होता लेकिन राज्य का एक ‘अभिन्न’ अंग होता है। 

भारत के राष्ट्रपति तथा राज्यपाल दोनों ही अपने आधिकारिक कत्र्तव्यों का निर्वहन करते हुए किसी भी गलती अथवा चूक के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। वे जनता की अदालत के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। मान लें कि वे एक अयोग्य व्यक्ति को विश्वविद्यालय के प्रमुख के तौर पर चुनते हैं तो उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता। चुने हुए मुख्यमंत्रियों की मांग है कि कुलपतियों की नियुक्ति के लिए राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में एक एकीकृत नीति अपनाई जानी चाहिए।

सरकारिया आयोग ने संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ सलाह का सुझाव दिया था। ऐसा कभी नहीं किया गया। जो भी हो राज्यों में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की सार्वजनिक रूप से आलोचना वांछनीय नहीं है। ऐसा ही गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों के मामले में है जो प्रधानमंत्री की आलोचना करते हैं जिन्हें लोकतांत्रिक रूप से चुना गया है। यही वह समय है कि इस तरह के सार्वजनिक विवादों पर रोक लगाई जानी चाहिए।-कल्याणी शंकर
 

Advertising