प्रगतिशीलता का अर्थ नग्नता नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Sep 21, 2022 - 06:50 AM (IST)

पंजाब के मोहाली स्थित एक निजी विश्वविद्यालय में कई छात्राओं का आपत्तिजनक वीडियो बनाने और उसे अन्य लोगों को भेजने की घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। इस मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस की भूमिका पर ही सवाल उठ रहे हैं। शुरू में विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस मामले में लीपा-पोती करने की कोशिश की। इस प्रगतिशील दौर में भी अगर विश्वविद्यालय परिसर सुरिक्षत नहीं हैं तो इससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। 

आज जरूरत इस बात की है कि हम इस घटना के आलोक में बच्चों और युवाओं के बदलते मनोविज्ञान पर बहुस्तरीय तरीके से व्यापक अर्थों में विचार करें। इस तरह की घटनाएं मात्र कुछ घटनाएं भर नहीं हैं बल्कि ये समाज की बदलती हुई मानसिकता के वे चेहरे हैं जो शर्मनाक होने के बावजूद भी हमें शर्मनाक नहीं लगते हैं। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन इस तरह की घटनाओं में वृद्धि हो रही है और हम कभी तकनीकी विकास को तो कभी लचर नियम-कानूनों को जिम्मेदार बताकर इस तरह के मामलों से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। 

विज्ञान और तकनीक के सकारात्मक उपयोग के साथ-साथ नकारात्मक उपयोग की सम्भावना भी हमेशा ही बनी रहती है। जहां तक कानून की बात है तो हमारे देश में विभिन्न कारणों से उसके शत-प्रतिशत लागू होने में भी अनेक कठिनाइयां सामने आती हैं। 

दरअसल इस तरह की समस्याएं सिर्फ कानून के माध्यम से ही हल होने वाली नहीं हैं ऐसी समस्याओं के समाधान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है बच्चों और युवाओं की मानसिकता में बदलाव। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज मोबाइल के माध्यम से जिस तरह अश्लीलता परोसी जा रही है, उसका सबसे ज्यादा असर किशोर एवं युवा वर्ग पर पड़ रहा है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रगतिशीलता का अर्थ नग्नता नहीं होता है। आर्थिक उदारीकरण एवं व्यावसायिकता के इस दौर में कुछ लोग किशोरों एवं युवाओं की बदली हुई मानसिकता का लाभ उठाकर रुपए बटोर रहे हैं। 

आज मोबाइल और सोशल मीडिया जैसे माध्यमों ने किशोरों के मनोविज्ञान को बिल्कुल बदल दिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में टीवी के विभिन्न चैनल उन्मुक्त यौन सम्बन्धों की वकालत करते हुए दिखाई देते हैं। विभिन्न चैनलों पर प्रसारित होने वाले अधिकांश धारावाहिकों में पति-पत्नी के रिश्ते की मर्यादा का बार-बार मजाक उड़ाया जाता है और यह प्रदर्शित किया जाता है कि गलत सम्बन्ध स्थापित करने के लिए सभी रिश्ते-नाते बौने होते हैं। क्या इन धारावाहिकों और चैनलों के कर्ता-धर्ता यह नहीं जानते हैं कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के साथ किशोर भी बड़ी संख्या में इन पारिवारिक धारावाहिकों को देखते हैं। नि:संदेह इन धारावाहिकों को देखकर किशोरों के मन में रिश्तों की अहमियत खत्म हो जाती है। 

रिश्तों की अहमियत खत्म होते ही कुछ भी नैतिक और अनैतिक नहीं रह जाता। इन धारावाहिकों के माध्यम से युवा व किशोर वर्ग को भटकाने की यह एक ऐसी चाल है जो ऊपर से दिखाई नहीं देती है लेकिन इसके निहितार्थ बहुत स्पष्ट हैं। इसके अतिरिक्त आज टी.वी. के विभिन्न चैनलों पर जिस तरह से नग्नता परोसी जा रही है वह भी किशोर मनोविज्ञान के हिसाब से काफी हानिकारक सिद्ध हो रही है। 

इस दौर की फिल्में किशोरों को जिस तरह का संदेश दे रही हैं वह भी किसी से छिपा नहीं है। जहां एक ओर नग्न और अर्धनग्न नायिकाओं के लटके-झटके किशोर मन पर अपना कुप्रभाव डाल रहे हैं वहीं दूसरी ओर भद्दे संवाद और बलात्कार के दृश्य किशोरों की असली जिंदगी में उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यह जानकर आश्चर्य होता है कि ब्लू फिल्मों का बहुत बड़ा कारोबार तो किशोरों के भरोसे ही चल रहा है। इस तरह की फिल्में किशोरों की कामुकता को बढ़ाकर उनमें कामोन्माद पैदा कर रही हैं। फलस्वरूप छोटी-छोटी बच्चियों को किशोरों की हवस का शिकार होना पड़ रहा है। 

नि:सन्देह बच्चों और किशोरों का मोबाइल से चिपके रहना घातक सिद्ध हो रहा है। पहले मोबाइल जैसे साधन उपलब्ध नहीं थे। साथ-साथ फिल्मों में भी नग्नता नहीं थी। उस समय मनोरंजन के देसी और स्वस्थ साधन उपलब्ध थे। यह दुख का विषय है कि आज बच्चे घर में मोबाइल के माध्यम से देर रात छिप-छिप कर अश्लील फिल्में देखते हैं और माता-पिता को इस बात की जानकारी ही नहीं होती है। 

दरअसल आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के इस दौर में यह समाज नई पीढ़ी के सामने कोई आदर्श ही प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है। माता-पिता बच्चों को संस्कारों का पाठ तो पढ़ाते हैं लेकिन अपनी वास्तविक जिंदगी में उनका व्यवहार ही संस्कारित नहीं होता है। ऐसे में बच्चों या किशोरों से नैतिकता की उम्मीद रखनी बेमानी है। आज जिस समाज में चारों ओर व्यभिचार का बोलबाला हो वहां नई पीढ़ी की इन घृणित क्रियाकलापों में हिस्सेदारी स्वाभाविक है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज नग्नता और सैक्स को खुल्लमखुल्ला प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। आज बाजारवाद के इस दौर में सभी हदें पार हो चुकी हैं इसलिए अब समाज को यहीं रुक कर सोचना होगा।-रोहित कौशिक
 


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