देश का प्रधानमंत्री इतना झुक सकता है तो सामान्य लोग क्यों नहीं

Tuesday, Feb 26, 2019 - 04:22 AM (IST)

कुम्भ में न केवल प्रधानमंत्री मोदी ने स्नान किया बल्कि वहां 5 स्वच्छता कर्मियों के पांव भी धोए। इनमें से 2 महिलाएं थीं और 3 पुरुष। उनके पांव पोंछे और शाल ओढ़ाकर उनका सम्मान किया। इसे आने वाले चुनावों को देखते हुए मोदी का मास्टर स्ट्रोक कहा गया। 

जिन लोगों के पांव मोदी ने धोए, उन्होंने कहा कि उन्हें तो इस बात का पता ही नहीं था। इतने पास से प्रधानमंत्री को देख सकते हैं, इसकी तो सपने में भी कल्पना नहीं की थी।  इनमें से एक बुजुर्ग ने कहा कि हमने तो प्रधानमंत्री से कहा कि इस बार आप प्रधानमंत्री हैं, अगली बार भी प्रधानमंत्री बनें। बहुत से लोग कह रहे हैं कि चुनाव जीतने के लिए यह एक जुगत भर है। जो भी हो, चाहे बात जितनी प्रतीकात्मक और सांकेतिक हो, तस्वीर में जिस तरह से मोदी झुके हुए हैं, उससे अच्छा संदेश जाता है। जाना भी चाहिए। पांव धोते मोदी को सभी चैनल्स ने दिखाया। अखबारों में भी यह तस्वीर छपी है। अगर हमारे देश का प्रधानमंत्री इतना झुक सकता है तो सामान्य लोग क्यों नहीं? कहा जा रहा है कि देश के किसी प्रधानमंत्री ने पहले कभी ऐसा नहीं किया है। 

भारत की कमजोरियां
हाल ही में एक बहस के दौरान कहा जा रहा था कि पाकिस्तान में एक रिपोर्ट तैयार की गई थी जिसमें कहा गया था कि हमें भारत की कमजोरियों का फायदा उठाना चाहिए। ये कमजोरियां क्या थीं? जातिवाद, इसके अलावा विभिन्न धर्मों का वैमनस्य, कश्मीर। इस तरह की कमजोरियों का फायदा सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं देश में समय-समय पर जो भी आक्रांता आए, उन्होंने उठाया है। हम अपनी इन कमजोरियों से कैसे जीतें, यह सोचने की बात है। जाति का भेद, ऊंच-नीच की वकालत किसे लाभ पहुंचाती है सिवाय इसके कि हम एक-दूसरे के दुश्मन हो जाते हैं। समाज में पहले से ही इतनी दुश्मनियां हों तो हमें पराजित करने के लिए किसी बाहरी शत्रु की भला क्या जरूरत। हम खुद ही अपने बहुत बड़े शत्रु हैं। राजस्थान के बारे में अभी एक अंग्रेजी अखबार में रिपोर्ट छपी थी कि वहां निचली जातियों के बाल सैलून में काटने से मना कर दिया जाता है। एक दलित ने ही इसके खिलाफ अभियान चलाया और अब स्थिति सुधर गई है। हालत तो यह है कि मरने के बाद भी भेदभाव दूर नहीं होता। श्मशान तक में यह भेदभाव मौजूद है। 

ऊंच-नीच की सामंतवादी सोच
देश में चाहे जितनी सूचना क्रांति हो जाए ऊंच-नीच की सामंतवादी सोच ही तो है जो दलितों को मंदिरों में नहीं जाने देती। उन्हें अपने यहां किसी उत्सव  में आमंत्रित नहीं किया जाता। आखिर क्यों? कुछ लोग जो ऐसा करते हैं या करना चाहते हैं, समाज के बाकी लोग उनका भी बहिष्कार कर देते हैं या बहिष्कार करने की धमकी देते हैं। ऐसे लोगों से कानून को सख्ती से निपटना चाहिए। कुछ साल पहले तरुण विजय ने उत्तराखंड में दलितों को मंदिर में प्रवेश  कराया था। इस कारण उन पर पत्थरों से हमला कर दिया गया था। यहां तक कि नास्तिक कही जाने वाली माक्र्सवादी पार्टी भी दलितों के मंदिर में प्रवेश को लेकर अभियान चलाती रही है। राष्ट्रीय जनता दल ने बिहार में हनुमान जी के एक मंदिर में दलितों का प्रवेश कराया था। यदि हम यह कहते नहीं थकते कि भगवान के यहां सब बराबर हैं तो मंदिरों में इस तरह का भेदभाव क्यों? क्या हमें जरा भी शर्म नहीं आती? 

हम बदलना ही नहीं चाहते
भक्ति काल से इस पंक्ति को लगातार दोहराया जा रहा है कि ‘जात-पात पूछे नाहि कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’। लेकिन ये आवाजें हमारे बहरे कानों तक नहीं पहुंचती हैं। भक्ति काल के कवियों से लेकर आजादी के तमाम बड़े नेताओं, महानायकों, समाज सुधारकों ने जात-पात के खिलाफ लगातार आवाज उठाई थी, लेकिन मजाल है कि हम बदलना चाहते हों। इसमें अच्छी बात क्या है कि  हमारा समाज जाति के रूप में न जाने कितने खांचों में बंटा रहे? किस जाति में जन्म हो, यह तो हमारे वश में नहीं मगर जब यह समझ में आए कि ऐसा करना गलत है, तब ही सुधर जाएं। मनुष्य की मनुष्य से दूरी से हमें क्या मिला। कौन-सी श्रेष्ठता साबित हुई?  कहा जाता है कि अगर जाति भेद को तोडऩा हो तो आपस में रोटी-बेटी के संबंध स्थापित होने चाहिएं, लेकिन ये कागजी बातें जीवन में नहीं उतारी जातीं। विश्वास न हो तो अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन उठाकर देख लीजिए। 

एक समय था जब जाति के खिलाफ मुहिम के समर्थन में बहुत से लोग अपनी जाति छिपाते थे। मगर अब स्थिति बहुत जटिल हो गई है। जाति से लडऩा तो दूर, जाति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में लोग अच्छाई समझते हैं। जिस तरह राहुल गांधी ने एक दलित के घर में खाना खाया था और उसे बहुत मीडिया हाइप मिली थी, उम्मीद है कि मोदी का ऐसा करना हमें जातिवाद से लडऩे की प्रेरणा देगा। जल्दी ही अन्य बातों की तरह इसे भी नहीं भुला दिया जाएगा।-क्षमा शर्मा

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