प्रधानमंत्री की आलोचना हो सकती है तो सेना प्रमुख की क्यों नहीं

Sunday, Jun 18, 2017 - 12:36 AM (IST)

संदीप दीक्षित ने एक भयावह गलती की है। लेकिन सार्वजनिक रूप में फजीहत करवाने वाली क्षमा याचना के रूप में उन्हें इसकी कीमत भी अदा करनी पड़ी। सेना प्रमुख की उन्होंने सड़क के गुंडे से जो तुलना की वह सरासर गलत थी। यह न केवल जनरल रावत का अपमान था बल्कि इससे भी बढ़कर उस पद का अपमान था जिस पर वह आसीन हैं। सेना प्रमुख के पद पर आसीन व्यक्ति को नहीं तो इस संस्थान को तो आलोचना करते हुए भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। संदीप दीक्षित ने इस महत्वपूर्ण नियम का उल्लंघन किया है। इस बात का कोई मोल नहीं कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया था या अनजाने में। 

फिर भी संदीप दीक्षित ने पूरी तरह और बिना शर्त माफी मांगी है। जहां उनका अपराध अत्यंत गम्भीर था वहीं उन्होंने क्षमा याचना भी दो टूक शब्दों में की थी और इस कारण इस मुद्दे को अब समाप्त कर दिया जाना चाहिए। एक सभ्य समाज में क्षमा याचना होने के बाद अपराध की चर्चा हर हालत में थम जानी चाहिए। आखिर शरीफ लोगों के व्यवहार का यही कुंजीवत नियम है। फिर भी संजीव दीक्षित ने अधिक व्यापक तथा कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है, बेशक ऐसा करने का उनका स्पष्ट इरादा न भी रहा हो। इसलिए आज मैं जानबूझ कर इस अधिक महत्वपूर्ण बिंदू पर विस्तार से चर्चा करूंगा। 

सेना (इसमें निश्चय ही सेना प्रमुख का पद भी शामिल है) आलोचना से ऊपर नहीं और इसे वैध एवं नेक नीयत आलोचना के विरुद्ध संरक्षण किसी भी कीमत पर नहीं मिलना चाहिए। लोकतंत्र में सत्ता का प्रत्येक संस्थान अवश्य ही आलोचना का निशाना बनना चाहिए जब ऐसा करना न्यायोचित हो एवं समय की मांग हो। यदि प्रधानमंत्री का पद इस दायरे में आ सकता है (और यह निश्चय से ऐसा ही है) तो सम्भवत: सेना या सेना प्रमुख के पद को इससे बाहर कैसे रखा जा सकता है? यह नुक्ता न केवल स्वत: स्पष्ट है बल्कि मैं तो यह कहना चाहूंगा कि इसको कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। मैं किसी भी ऐसे विश्वसनीय लोकतंत्र के बारे में नहीं जानता जहां ऐसा न होता हो। 

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब ब्रिटिश सेनाएं एक के बाद एक मोर्चे पर पराजित हो रही थीं तो इसकी सेना और जनरलों को बहुत तीखी आलोचना का निशाना बनाया गया जो कि पूरी तरह न्यायोचित था। वास्तव में यही तो लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटेन की प्रतिबद्धता की अग्निपरीक्षा थी और हिटलर के विनाशकारी हमलों के समक्ष भी ब्रिटेन इस परीक्षा में खरा उतरा। लेकिन इतने पुराने जमाने की बात क्यों की जाए? 

1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान हमारी सेना के बुरी तरह मार खाने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग की थी और नेहरू इसके लिए तत्काल सहमत हो गए थे। इस सत्र में भारतीय सेना की कारगुजारी पर तीखी और बेलिहाज आलोचना हुई थी। यह आलोचना केवल पीड़ादायक ही नहीं बल्कि खुद बुलाई हुई आफत थी। फिर भी इस पर जो विवाद हुआ वह न्यायोचित था। बेशक इस आलोचना में कहीं कोई गलती भी हुई होगी लेकिन किसी ने भी आलोचकों के अधिकार को चुनौती नहीं दी थी। दुर्भाग्य की बात है कि अब ऐसा लगता है कि ऐसी बातें किसी अन्य देश में हुई हों। 

आज भारतीय सेना के उत्तरी क्षेत्र के पूर्व कमांडर रह चुके लै. जनरल एच.एस. पनाग लिखते हैं: ‘‘एक संस्थान के रूप में सेना को बहुत ही सम्मानजनक दर्जा हासिल था। लोग ऐसा मानते थे कि सेना कोई गलत काम कर ही नहीं सकती और किसी को इसकी आलोचना भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी आलोचना या आरोपों से किसी अधिक बुरी बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ऐसी बातें सेना के सुधारों की प्रक्रिया में बाधा बन जाती हैं, जबकि किसी भी संगठन के लिए सुधार प्रक्रिया हमेशा जरूरी होती है।’’ 

मैं एक क्षण के लिए भी मानने को तैयार नहीं कि कोई सैन्य अधिकारी (जनरल रावत सहित) अलग तरह से सोचेगा। हमारी सेना के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं और एक-एक बात पर यह गर्व कर सकती है। यही कारण है कि मैं इस पर आलोचना करने या सवाल उठाने का स्वागत करूंगा बेशक ये सवाल कितने भी तीखे और आहत करने वाले क्यों न हों। मैं ये बातें एक सैनिक के बेटे के रूप में कर रहा  हूं जो यह जानता है कि ऐसी बातों का क्या अर्थ होता है। 
 

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