नागपुर जाकर ‘विजेता’ बनकर उभरे हैं प्रणब मुखर्जी

Sunday, Jun 10, 2018 - 02:43 AM (IST)

प्रणव दा स्पष्ट तौर पर विजेता बनकर उभरे हैं। ‘पूर्व’ राष्ट्रपति बनने के समय से ही उन्हें व्यावहारिक रूप से ऐसे भुला दिया गया था जैसे कभी उनका अस्तित्व ही न रहा हो। अब वह न केवल हफ्तों बल्कि महीनों तक सार्वजनिक ध्यानाकर्षण का केंद्र बने रहेंगे। 

आखिर यदि आप कांग्रेसी खेमे में से उभरे इस राजनीतिक दिग्गज को अनुभव और विद्वता का भंडार मानते हैं तो आपको यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वह अपना शेष जीवन अपने दोहत्र-पौत्र के साथ खेलते हुए या बागीची की देखभाल करते हुए गुमनामी की स्थिति में बिताने को तैयार नहीं हैं। न ही वह अपने लंबे मंत्री जीवन में अर्जित की गई ढेर सारी दुनियावी दौलत की देखभाल करते हुए जीवन बिताएंगे। 

यदि प्रणव दा एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं (जैसा कि आप सभी आग्रहपूर्वक कहेंगे) तो निश्चय ही खबरों में से उनके गायब होने की संभावना नहीं। उनमें हर वह गुण है जो उनकी तात्कालिक पूर्ववर्ती प्रतिभा पाटिल में नहीं था। क्या आपमें से कोई यह स्मरण कर सकता है कि आजकल वह कहां हैं और क्या कर रही हैं? वैसे किसी को इस बात की परवाह भी नहीं। लेकिन प्रणव बाबू की ओर देखें, वह कई दिनों से समाचारों पर छाए हुए हैं और आने वाले कई दिनों तक इस बात को लेकर चर्चाएं गर्म रहेंगी कि नागपुर में जाने का उनका फैसला सही था या गलत, जो कुछ उन्होंने संघ के तृतीय वर्षीय शिविर के समारोह के मौके पर कहा, क्या वह भारतीय सभ्यता की धरोहर का एक विनम्र सबक था या उन्होंने ङ्क्षखचाई की थी। 

बंद दिमागों वाले जिन लोगों ने अपने मन में यह गांठ मार रखी थी कि आर.एस.एस. एक फासिस्ट संगठन है, वे इस बात पर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि नागपुर की यात्रा में से असली विजयी बनकर आर.एस.एस. नहीं बल्कि खुद प्रणव मुखर्जी उभरे हैं। फहराते हुए भगवा ध्वज के समक्ष पंक्तिबद्ध हुए संघ प्रशिक्षुओं को संबोधित करके प्रणव दा ने बहुत अधिक प्रचार हासिल किया है। आर.एस.एस. अपने खुद के एजैंडे और अपने मिशन के अनुसार चलता है और इसे 1925 में तय किए गए अपने लक्ष्यों को हासिल करने की कोई विशेष जल्दी नहीं है। जिस परियोजना का लक्ष्य सभ्यता से संबंधित हो उसे पूरा करने में हजार वर्ष लगते हैं और जो लोग संघ के इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए जिम्मेदार हैं वे बहुत धैर्यवान हैं। वे न तो फटाफट कोई लक्ष्य साधने के दबाव में हैं और न ही उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है। 

फिर भी यह मानना होगा कि इस संगठन को भी अपने तय मार्ग में कुछ संशोधन करने की जरूरत है। अपने दिमाग में से यह बात निकाल दीजिए कि कोई शक्ति हिंदू धर्म का इस्लामीकरण कर सकती है। ऐसा हो ही नहीं सकता और न ही कोई कर सकता है क्योंकि हमारे डी.एन.ए. में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन फिर भी आर.एस.एस. एक काम कर सकती है कि अपने सदस्यों को अनुकरणीय नागरिकों की प्रतिमूर्ति बनाए जो कानून का पालन करने वाले शहरी हों। इसे अपने वैभवशाली अतीत का राग अलापने का सिलसिला बंद करके इसकी बजाय आधुनिकीकरण को अपनाना चाहिए जोकि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान और बाहरी दुनिया के साथ तारतम्य से हासिल होता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो इसे नागपुर नामक कुएं के मेंढक नहीं बने रहना चाहिए। 

जहां तक इस्लाम का संबंध है, जिस प्रकार इसके जेहादी तत्व रूस और चीन समेत दुनिया के अधिकतर हिस्से के लिए चुनौती बने हुए हैं, उसके चलते देर-सवेर यह अपना ही दुश्मन बन जाएगा। इसे अपने हाल पर छोड़ दें। इसका जो हश्र होगा उसका प्रमाण ढूंढने के लिए हमें पाकिस्तान या सीरिया से आगे जाने की जरूरत नहीं। वैसे प्राचीन हिंदू समाज और हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में मतभेदों पर परस्पर विचार-विमर्श यानी ‘‘सम्वाद’’ के माध्यम से हल करने की पद्धति है न कि उस व्यक्ति को शैतान के रूप में पेश करके जिसके साथ आपके वैचारिक मतभेद हों। ऐसे में निमंत्रण को एक बार स्वीकार कर चुकने के बाद यदि प्रणव दा ठुकरा देते तो यह अभद्रता होती। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि छुआछूत/अपरथायड (नस्लभेद) इसके अपने ही अनुयायियों की कुरूप छवि उभारता है। आप शैतान के साथ भी इस उम्मीद पर मिल-बैठते हैं कि वह अपनी नीचता से पिंड छुड़ाने के योग्य हो जाए। नागपुर की कवायद पर छिड़े विवाद के ऐन बीचों-बीच प्रणव 2019 के चुनावों के बाद के परिदृश्य में एक संभावी खिलाड़ी बनकर उभरे हैं। 

अटकलें लगाने वाले यह कह रहे हैं कि यदि मोदी साधारण बहुमत हासिल करने में विफल रहते हैं तो प्रणव दा प्रधानमंत्री पद के लिए राजग और गैर-राजग दोनों खेमों के स्वीकार्य उम्मीदवार के रूप में उभर सकते हैं। ऐसी स्थिति में वह उस कार्पोरेट घराने से भी कुछ सहायता की उम्मीद कर सकते हैं जिस पर अपने कुंजीवत मंत्रीपद के चलते उन्होंने काफी कृपादृष्टि की थी। नागपुर जाकर पूर्व राष्ट्रपति ने हो सकता है यह संकेत दिया हो कि वह गणतंत्र के पूर्व प्रमुख के सम्मान और आभा की दृष्टि से उपयुक्त क्षमता में ‘देश की सेवा’ करने के लिए उपलब्ध हैं। आपको याद होगा कि गत माह मलेशिया के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले 92 वर्षीय महातिर मुहम्मद की तुलना में प्रणव एक दशक युवा हैं। वैसे भी पूर्व राष्ट्रपति के प्रधानमंत्री बनने पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है। 

जरा इस बात पर मंथन करें कि नागपुर जाकर प्रणव ने राहुल गांधी पर शायद उपकार ही किया है। इस दिग्गज राजनीतिज्ञ के विरुद्ध आनंद शर्मा और अन्य छुटभैये नेताओं ने तो ट्वीट पर व्यंग्य कसा लेकिन जैसे ही उन्हें यह आशंका सताने लगी कि कहीं वह आर.एस.एस. को नेक चलनी का प्रमाणपत्र न दे दें, उन्होंने तुरंत अपना थूका हुआ चाट लिया। इसके पीछे यह डर कार्यरत था कि उनका ‘महान नेता’ जिस प्रकार मोदी को पराजित करने के लिए हर किसी के साथ गलबहियां लेते हुए एक व्यापक मोर्चा गठित कर रहा है, कहीं प्रणव दा ही संयोगवश उसके सर्वमान्य नेता के रूप में न उभर आएं। यदि इस मोर्चे को सर्वमान्य नेता नहीं मिलता तो इसके विखंडन के खतरे को टालने के लिए मुखर्जी रिक्तता को भर सकते हैं और उनके पास राजग की ओर प्रस्थान करने का कोई मौका ही नहीं होगा। 

इसी बीच कांग्रेस के भाग्य पर अफसोस होता है जिसका नेता इसे कदम-दर-कदम सिकोडऩे पर कमर कसे हुए है। कर्नाटक में एच.डी. कुमारस्वामी के छोटे से गुट के आगे नत्मस्तक होने के लिए कांग्रेस को मजबूर करने के बाद उसने अब केरल की वह इकलौती राज्यसभा सीट केरल कांग्रेस (एम) की थाली में परोस दी है जिसे कांग्रेस खुद जीतने की स्थिति में थी। ‘महान नेता’ इतना हताश था कि प्रमुखत: ईसाई संगठन के नेता को मनाने के लिए उसने खुद को केवल मुस्लिम पार्टी बताने वाली केरल मुस्लिम लीग की सेवाएं लीं। यदि राहुल अपनी ही पार्टी के पांव पर कुल्हाड़ा चलाना जारी रखेंगे तो जब प्रधानमंत्री की गद्दी पर दावेदारी ठोंकने का उनका मुहूर्त आएगा तो शायद तब तक कांग्रेस का वजूद ही नहीं रह गया होगा।-वरिन्द्र कपूर

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