‘सत्ता तो आती-जाती, मगर जिंदगियां नहीं’

Thursday, Nov 05, 2020 - 03:13 AM (IST)

बिहार में कोरोना के मामले दो लाख से ऊपर पहुंच चुके हैं और नेताओं की प्रचार सभाओं में भीड़ उमड़ रही है। न सामाजिक दूरी के नियमों का पालन हो रहा है और न ज्यादातर लोग मास्क लगाते हैं। एक ओर कोरोना की वजह से त्यौहारों और सार्वजनिक आयोजनों पर रोक है, लोग खुले मैदानों में दशहरा नहीं मना सके मगर मैदानों में नेताओं की जनसभाओं में रोज मजमे लग रहे हैं। 

बिहार में दो चरण का मतदान हो चुका है और अभी तक कोई ऐसी कार्रवाई भी नहीं हुई है, जिससे स्पष्ट संदेश जाता। उलटा भीड़ देखकर नेता उत्साहित हैं, जबकि हर संवेदनशील व्यक्ति यह जान रहा है कि इसमें कितना बड़ा खतरा छुपा है। नेता भी इस खतरे से अनभिज्ञ नहीं होंगे क्योंकि एक दर्जन से ज्यादा बड़े नेता कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। देश के गृहमंत्री और कई राज्यों के मुख्यमंत्री कोरोना संक्रमित रह चुके हैं। 

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चुनाव तिथियों की घोषणा होने के बाद पहले 30 सितम्बर को दिशा-निर्देश जारी कर 15 अक्तूबर तक किसी भी तरह की जनसभा और रैली पर रोक लगा दी थी मगर 8 अक्तूबर को नए दिशा-निर्देश जारी करते हुए राजनीतिक दलों को रैली करने की तत्काल प्रभाव से अनुमति दी और साथ ही नई गाइडलाइन भी जारी की। इसके अनुसार किसी भी बंद जगह पर जनसभा करने पर हाल की अधिकतम क्षमता के आधे लोग ही बुलाए जा सकते हैं और यह संख्या भी अधिकतम 200 हो सकती है। सभी के लिए मास्क पहनना और थर्मल स्कैङ्क्षनग अनिवार्य है। सभी को सामाजिक दूरी का पालन करना था और हाथ सैनिटाइज करने थे। खुले स्थलों पर जनसभाओं को लेकर चुप्पी साध ली गई। सत्ता की भूख में चोर रास्ता छोड़ दिया गया। नतीजा सामने है, सभी दल खुले मैदानों में जनसभाएं कर रहे हैं और इनमें हजारों की भीड़ आ रही है। 

खुदा न खास्ता अगर बिहार में कोरोना विस्फोट होता है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा। क्या इन रैलियों का आयोजन करने वाले नेता, या रैलियों में आने वाली भीड़? चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां हों, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनसभाएं हों या विपक्ष में  तेजस्वी और लोजपा के चिराग पासवान की सभाएं, सब तरफ एक ही नजारा है। न अधिकारी इन सभाओं में सामाजिक दूरी के नियमों का पालन करवा पाने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं और न ही राजनीतिक जनसभाओं को लेकर कोई ऐसा स्पष्ट दिशा-निर्देश है जो उन्हें कदम उठाने के लिए बाध्य करे। 

शुरू में जो लोग दिल्ली की मस्जिद में ठहरे लोगों की ङ्क्षनदा कर रहे थे, क्या अब भी वे ऐसे भीड़ और प्रचार मजमा लगाने वालों की ङ्क्षनदा करेंगे, ऐसा नहीं लगता।  भला ऐसा चुनावी उत्सव किस काम का जो लोगों को बीमार होने के लिए आमंत्रित करे। 
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 25 सितम्बर को जब चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित कीं तो इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था कि यह कोरोनाकाल का चुनाव है। इसलिए विशेष सावधानियां बरतनी होंगी। मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने इस मौके पर यहां तक कहा था कि दुनिया की नजरें भी इस पर होंगी क्योंकि 243 सीटों के लिए बिहार में मतदान होगा और कोविड-19 के समय में यह दुनिया के सबसे बड़े चुनाव में से एक होगा। 

महामारी के संकटकाल को देखते हुए मतदान के समय को भी बढ़ाया गया और विशेष कोरोना गाइडलाइन तैयार की गई। मतदान का समय शाम तक एक घंटे बढ़ाया गया। पहले मतदान का समय सुबह सात से शाम पांच बजे तक होता था मगर अब इसे शाम 6 बजे तक कर दिया गया। अंतिम एक घंटे का समय कोरोना मरीजों और संदिग्ध मरीजों के मतदान के लिए रखा गया है। जिस प्रैस कांफ्रैंस में मतदान तिथियों की घोषणा की गई, उसी में यह भी बताया गया कि चुनाव प्रचार के दौरान सभी तरह के शारीरिक संपर्क वर्जित होंगे यानी सबको सामाजिक दूरी बनाकर रखनी होगी। 80 साल से अधिक के बुजुर्गों को पोस्टल वोटिंग यानी डाक से मतदान की सुविधा दी गई। इतना ही नहीं कोरोना से सुरक्षा के लिए बचाव उपकरणों को तरजीह दी गई। 

कुछ कड़े नियम बन सकते थे, जैसे त्यौहारों को लेकर बने। मगर ऐसा नहीं हुआ, खासकर पहले दो चरणों का प्रचार इसका गवाह है। इस सबकी वजह सिर्फ सत्ता की भूख है, जिसके लिए जनता की जान कोई मायने नहीं रखती। चुनाव आयोग ने 21 अक्तूबर की शाम जरूर थोड़ा संज्ञान लिया था। कोरोनाकाल में यह लापरवाही बहुत डरावनी है। लोगों की जिंदगियां बहुत कीमती हैं। ऐसे में जब वैक्सीन का आना अभी दूर है और सर्दियां शुरू हो चुकी हैं, लोगों को खुद सजग होना चाहिए। नेताओं को थोड़ा समझदार और जिम्मेदार बनना चाहिए। इसी में सबका भला है। सत्ता तो आती-जाती रहती है, मगर जिंदगी नहीं।-अकु श्रीवास्तव

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