गरीबी को बुलावा देती ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’

Tuesday, Sep 15, 2020 - 02:44 AM (IST)

इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना महामारी से उपजी परिस्थिति ने हमारे जीवन को कई रूप में प्रभावित किया है। इसे परिस्थितिवश कहें या मजबूरीवश कि हम अपनी जीवनशैली में कई प्रकार का बदलाव ला चुके हैं। हालांकि, यह कहना पूरी तरह सच नहीं होगा कि सौ फीसदी लोगों की जिंदगी में तबदीली आई होगी। लेकिन, इसमें भी कोई अतिश्योक्ति नहीं कि हम में से अधिकांश लोग अपनी जीवनशैली को बदल चुके हैं। 

पढ़ाई-लिखाई, दफ्तरी काम, घर के कार्य, खानपान, खर्च का स्तर आदि कई ऐसे पहलू हैं जिनमें तबदीली आ चुकी है। लेकिन, इन सभी में पारिवारिक खर्च को संतुलित करने की कवायद सबसे अहम है। इस महामारी के चलते उपजी आॢथक तंगी ने लोगों की फिजूलखर्ची की आदत पर ब्रेक लगा दी है। इतना ही नहीं, लोग अब जरूरी खर्चों में भी कटौती करते दिख रहे हैं। दिलचस्प बात है कि शादी-विवाह जैसे कार्यक्रमों में भी लोगों की सादगी दिख रही है। 

ऐसे कार्यक्रम में वर-वधू पक्ष से केवल परिवार के लोग शामिल हो रहे हैं। न कोई बैंड, न बाजा, न बारात, न सैंकड़ों व्यंजनों की भरमार। यानी शादियों को यादगार बनाने के लिए अनाप-शनाप खर्च की अवधारणा पर लगाम लगती नजर आ रही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कोरोना काल मध्यम और निम्न आय वर्गों के लिए वरदान साबित हुआ है। शादी की जिस अवधारणा को अमल में लाने के लिए दशकों से लोगों को जागरूक करने की कोशिश हो रही थी, कोरोना काल ने उसे चुटकी में मुमकिन कर दिया। 

शादियों को बेवजह ‘यादगार’ बनाने के लिए मध्यम और निम्न आय वाले परिवारों पर अनावश्यक दबाव रहता था और फिर उनकी आॢथक कमर ही टूट जाया करती थी। लेकिन कोरोना काल की परिस्थिति ने अनावश्यक खर्च की परंपरा की कमर तोड़ दी। यह विडम्बना ही है कि जो काम बहुत ही मामूली खर्च में पूरा किया जा सकता है, उसमें लोग अनाप-शनाप खर्च करने से नहीं चूकते। मैं समझता हूं कि शायद यह दुनिया का पहला काम है जिसमें लोग अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करने की कोशिश करते हैं। अन्यथा, हर काम में लोगों की कोशिश यही रहती है कि जितना वे खर्च कर सकने की हैसियत रखते हैं उससे भी कम खर्च हो। इसकी वजह साफ है। दरअसल, शादी में ज्यादा-से-ज्यादा खर्च करना ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ का कारण बन गया है। 

शादी में खानपान से लेकर दहेज के लेन-देन तक, सभी चीजें इसी ‘प्रतिष्ठा’ को ध्यान में रख कर तय की जाती हैं। सिर्फ एक दावत और एक समारोह से काम चल जाने वाले शादी के काम को कई बड़े कार्यक्रमों में उलझा कर रख दिया गया है। रिंग सैरेमनी से लेकर शादी तक कई कार्यक्रम होते हैं जिनमें लाखों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं। वर-वधू इस बात की भी नकल करते हैं कि बॉलीवुड स्टार अपनी शादी में कैसे कपड़े पहनते हैं। यहां तक कि फूलों की सजावट, बैंड और होटलों की भी नकल की जाती है। अब तक तो लोग केवल समाज और रिश्तेदारी में ही शादी की इस चकाचौंध का दिखावा करते थे। लेकिन, अब सोशल मीडिया की लत ने इसके दायरे को और बढ़ा दिया है। सोशल मीडिया पर लाइव वीडियो और शादी की तस्वीरें सांझा करने के चलन ने शादी की फिजूलखर्ची को और भी विकराल बना दिया है। 

हालांकि, इन सभी खर्चों के पीछे कई अनुत्पादक तर्क भी दिए जाते हैं जिनमें सबसे बड़ा तर्क है कि शादी एक बार ही होती है। लेकिन तलाक की बढ़ती प्रवृत्ति के दौर में यह तर्क खुद अपनी प्रासंगिकता का प्रमाण खोज रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि एक तलाकशुदा व्यक्ति अपनी दूसरी शादी में भी इस दिखावे से नहीं बच पाता और दोबारा अनाप-शनाप खर्च करने पर मजबूर हो जाता है। 

इस विमर्श में एक बात जो बहुत ही आम है, वह यह कि इन खर्चों की सबसे बड़ी मार वधू के परिवार को सहनी पड़ती है। सामाजिक दबाव के चलते वे हैसियत से ज्यादा खर्च करने को मजबूर होते हैं जिससे उनकी आॢथक स्थिति दयनीय हो जाती है। इस दबाव के चलते निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों के सामने शादियों के लिए सूद पर कर्ज लेने की नौबत आ जाती है। कुछ गरीब परिवार कर्ज के जाल में इस कदर फंस जाते हैं कि वे इससे जीवन भर नहीं निकल पाते। नतीजतन, गरीब व्यक्ति और गरीब होता जाता है। 

यह हमारे समाज की बदकिस्मती है कि किसी खास व्यक्ति के व्यक्तिगत फैसलों को ही हम मॉडल समझ बैठते हैं, बिना यह देखे कि उस व्यक्ति की क्या हैसियत है। जिस प्रकार एक जूते खरीदने से लेकर खानपान तक में लोग अपनी जेब का वजन देखते हैं, उसी तरह हमें शादी जैसे कार्यक्रमों में भी इस पहलू पर संजीदगी से गौर करना होगा। इस मुहिम में समाज के हर आय वर्ग के लोगों को शामिल होना चाहिए कि शादी जैसा काम हर वर्ग के परिवार के लिए कैसे आसान बने?-रिजवान अंसारी
 

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