गरीब कैदियों की रिहाई जल्द और मुकद्दमे कम हों

punjabkesari.in Sunday, Oct 20, 2024 - 05:01 AM (IST)

अफसरों और सरकार से मीडिया में रोजाना सवाल किए जाते हैं, लेकिन अदालतों के मामलों में वैसे तीखे तेवर नहीं दिखते। सच तो यह है कि जानकारी की कमी के साथ लोगों को कोर्ट की अवमानना का डर रहता है। ऐसे माहौल में सुप्रीम कोर्ट के सीटिंग जज कोई बात कहें तो उसे पूरा महत्व देने के साथ पर्याप्त चर्चा भी होनी चाहिए।

जेलों में बंद गरीब और जरुरतमंद लोगों को नि:शुल्क और अच्छी कानूनी सहायता देने के लिए संसद ने 1987 में कानून बनाया था। उसके अनुसार राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) का गठन किया गया। इसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के जज होते हैं। राज्यों और जिला स्तर पर भी विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपंकर दत्ता ने कहा कि 10 साल पहले कोलकाता में नालसा ने फंड की कमी की वजह से गरीब वादी की मदद मुहैया कराने में असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन अब नालसा के पास जजों की आवभगत के लिए भी पर्याप्त पैसे हैं। 

उन्होंने कहा कि जब भी मैं नालसा के किसी समारोह में जाता हूं तो सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि नालसा के पास इतना पैसा कहां से आ रहा है। क्या विधिक सेवा प्राधिकरण का असल उद्देश्य यही है? क्या ऐसे ही मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान की जा सकती है? देश की प्रथम नागरिक महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बढ़ती जेलों और कैदियों के प्रति  बहुत संजीदा हैं। राष्ट्रपति के आदेश से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति होती है।

राष्ट्रपति ने इस बारे में जजों के सामने कई बार चिंता जाहिर की है लेकिन सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहे। उन्होंने कहा कि कैदियों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए जेलों में क्षमता से 30 फीसदी ज्यादा कैदी भरे हुए हैं। उनमें से 75 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। लोगों को लगता है कि ये पुलिस की ज्यादती के शिकार हैं, लेकिन ये सभी कैदी अदालत के आदेश से जेलों में बंद हैं। आपराधिक मामलों में पुलिस और सरकार अभियोजन पक्ष की तरफ से मुकद्दमें लड़ती है। कई लोगों को गलत तरीके से गिरफ्तार करने के बाद उन्हें बेवजह जेल में रखा जाता है। 

ऐसे विचाराधीन कैदियों की रिहाई के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने अनेक आदेश पारित किए हैं। लेकिन जेलों की बंद कोठरी में संविधान के प्रावधानों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की गूंज नहीं पहुंच पाती। कैदियों की गिरफ्तारी, जेलों में उन पर भारी खर्च और रिहाई के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण का सफेद हाथी, सब कुछ है लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाती। यह अजब त्रिकोण है कि सरकारी खर्चे से ही पुलिस, जेल और नालसा की गाड़ी चल रही है। सैंटर फॉर एकाऊंटेबिलिटी एंड सिस्टेमिक चेंज (सी.ए.एस.सी.) ने इस दिशा में बड़ी शुरूआत की है। उनके प्रोजैक्ट से रिटायर्ड जज, आई.पी.एस. और आई.ए.एस. के साथ अनेक वकील और युवा छात्र जुड़े हैं। मैं इस बात से हैरान हूं कि साल 2022 से कैदियों के सम्पूर्ण विवरण का डाटा उपलब्ध नहीं है। 

गृहमंत्री अमित शाह ने नए आपराधिक कानूनों में जल्द न्याय का आश्वासन दिया है। छोटे अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा का भी प्रावधान है। लेकिन अदालतों में पुराने मुकद्दमों का बोझ अगर खत्म नहीं होगा तो फिर नए मुकद्दमों का जल्द निपटारा कैसे होगा? केन्द्र सरकार ने युवाओं की इंटर्नशिप के लिए राष्ट्रीय योजना बनाई है। देश के सभी राज्यों में 1400 जेलों में बंद 5 लाख से ज्यादा कैदियों का नवीनतम विवरण उपलब्ध हो जाए तो इस दीवाली से जेलों की सफाई का प्रोजैक्ट भी शुरू हो सकता है। जब देश में 5 करोड़ से ज्यादा मुकद्दमे लंबित हों तो इस समय सबसे बड़ी जरूरत यही है कि मुकद्दमों की संख्या कम की जाए और जो फालतू में या गैर जरूरी मुकद्दमे चल रहे हैं उनको खत्म करने के लिए बड़े स्तर पर कदम उठाए जाएं। 

इसका एक तरीका यह भी हो सकता है कि छोटे मामले जिसमें जेबकतरी, राहजनी, छोटी चोरियां, अवमानना के मामले हों, उनको एक साथ खत्म किया जाए और इसके लिए अगर किसी केंद्रीय स्तर पर अध्यादेश की जरूरत हो तो वह भी लाया जाए। उधर कैदियों की रिहाई के राष्ट्रीय अभियान में युवा छात्रों की इंटर्नशिप और ट्रेनिंग सर्टीफिकेट देने के लिए सैंकड़ों अच्छे वकीलों ने सहमति दी है। भ्रष्टाचार के आरोपों में जेलों में बंद अनेक नेताओं को बड़े वकीलों की बहस के बाद बेल मिल जाती है। गरीब और जरूतमंद कैदियों की रिहाई के लिए भी बड़े वकीलों को सहयोग करना चाहिए। यह बात अभी तक चाहिए शब्द तक ही सीमित है, जबकि बहुत सारे बड़े वकीलों को सामने आना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार बेल बांड नहीं दे पा रहे गरीब कैदियों की रिहाई होनी चाहिए।-अकु श्रीवास्तव 
 


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