‘गटर के स्तर’ तक गिरी राजनीति

Wednesday, Feb 05, 2020 - 02:36 AM (IST)

राजनीतिक विरोधी या जानी दुश्मन? दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए चल रहे प्रचार अभियान को नागरिकता संशोधन कानून के संबंध में चल रहे आंदोलन के दौरान आरोप-प्रत्यारोप और अपशब्दों के प्रयोग के बीच यह प्रश्न सुर्खियों में छाया हुआ है और इसके चलते विरोधियों और जानी दुश्मनों के बीच की रेखा धुंधली हो गई है और इस क्रम में स्वस्थ प्रतिस्पर्धियों के बीच गरिमा, शालीनता, भाईचारा और आदर के बुनियादी सिद्धांत ताक पर रख दिए गए हैं और प्रत्येक चीज खेल बन गया है। 

देशभक्त से देशद्रोही और इस सबकी शुरूआत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी शरजील इमाम द्वारा नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में यह कहने से भी हुई जब उसने यह कहा, ‘‘यदि हम 5 लाख लोगों को एकजुट कर पाएं तो हम पूर्वोत्तर को हमेशा के लिए भारत से अलग कर सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो कम से कम एक महीने के लिए असम को शेष भारत से अलग करने की हमारी जिम्मेदारी है। तभी सरकार हमारी बात सुनेगी।’’वहीं केन्द्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने एक चुनावी रैली में दर्शकों से कहा, ‘‘देश के गद्दारों को....’’ तो भीड़ से आवाज आई ‘‘गोली मारो सालों को’’। 

उसके बाद भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने शाहीन बाग में प्रदर्शन कर रहे लोगों को बलात्कारी और हत्यारा कहकर एक बड़ा विवाद पैदा किया और कहा कि ये लोग आपके घरों में घुसेेंगे तथा आपकी बहनों और बेटियों का बलात्कार कर उनकी हत्या करेंगे। यही नहीं उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री के बारे में कहा ‘‘दिल्ली में केजरीवाल जैसे अनेक नटवरलाल और आतंकवादी छुप रहे हैं। मेरी समझ में नहीं आता है कि हमें आतंकवादियों के विरुद्ध कश्मीर में लडऩा चाहिए या दिल्ली में आतंकवादी केजरीवाल के विरुद्ध लडऩा चाहिए।’’ 

आग में घी डालने का काम कांग्रेस के राहुल गांधी ने भी किया जिन्होंने मोदी की तुलना गांधी के हत्यारे गोडसे से की और कहा कि दोनों एक ही विचारधारा में विश्वास करते हैं। तो पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे जो लोग सरकारी सम्पत्ति को नष्ट कर रहे हैं उन्हें कुत्ते की तरह गोली मार देनी चाहिए जैसा कि उनके साथ असम और उत्तर प्रदेश में किया गया। और उन्होंने इस पर पछतावा भी नहीं व्यक्त किया। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में भी केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को सलाह दी गई कि शरजील इमाम जैसे कीड़ों को तुरंत नष्ट किया जाना चाहिए और भाजपा का एक विधायक चाहता है कि उसे गोली मारी जाए। 

गिरगिट का रंग दिखा रहे नेता
मुझे इस बात पर हैरानी नहीं है क्योंकि हमारे नेतागण सारी गरिमा और शालीनता को ताक पर रखकर अपना गिरगिट का रंग दिखा रहे हैं। एक समय था जब व्यंग्य में बातें कही जाती थीं और नेता उन्हें उसी भावना से लेते थे। किन्तु आज राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और पार्टियों के बीच गाली-गलौच और अपशब्दों का प्रयोग होता है और भीड़ के दर्शक ऐसी बातों पर सीटी बजाते हैं और कहते हैं दिल मांगे मोर। राजनीतिक चर्चा में इस गिरावट के लिए केवल राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। ऐसे शब्दों पर पार्टियों द्वारा प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और ऐसी मांग भी की जाती है साथ ही चुनाव आयोग से शिकायत भी की जाती है किन्तु अपनी पार्टियों के नेताओं के बारे में उनके ये विचार नहीं होते हैं। 

आखिर दोष किसका?
चुनाव आयोग भी ऐसे भाषणों के विरुद्ध 2-3 दिन तक चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगाने या चेतावनी देने के अलावा कुछ नहीं कर सकता है। फिर दोष किसका है? हमारे नेतागण अपशब्दों के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं और वे कई वर्षों से समाज में जहर फैला रहे हैं और यह सब कुछ वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा रहा है। हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध और विभिन्न जातियों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है किन्तु कोई इस बारे में विचार नहीं करता कि उनकी राजनीतिक चर्चा विषाक्त क्यों हो रही है? क्या ऐसी भाषा और व्यवहार को माफ किया जा सकता है? 

तू-तू, मैं-मैं साम्प्रदायिक रंग ले लेती है
यह सच है कि चुनावी भाषण मतदाताओं को लुभाने के लिए दिए जाते हैं। कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही जाती हैं और जोशीले नारे लगाए जाते हैं। कई बार हास्य और व्यंग्य का भी प्रयोग होता है किन्तु ठाकुर, वर्मा और शरजील आदि ने सारे पिछले रिकार्ड तोड़ दिए हैं। हालांकि उनका उद्देश्य अपने विरोधियों पर बढ़त हासिल करना और मतदाताओं को अपने पक्ष में भड़काना होता है और कुछ लोग इसे राजनीतिक चर्चा का अंग कह सकते हैं परंतु दिल्ली में एक ओर भाजपा और ‘आप’ के बीच तथा दूसरी ओर नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भाजपा और संपूर्ण विपक्ष के बीच चल रही तू-तू, मैं-मैं में यह सांप्रदायिक रंग ले लेता है। 

राजनीतिक शालीनता और गरिमा के बीच की रेखा मिट गई
इस तू-तू, मैं-मैं में कोई भी पाक-साफ नहीं है और यही हमारी राजनीति की कटु सच्चाई भी है और यह बताता है कि हमारी राजनीति में कितनी गिरावट आ गई है जिसके चलते सही और गलत राजनीतिक शालीनता और गरिमा के बीच की रेखा मिट गई है और राजनीति गटर के स्तर तक गिर चुकी है। आज प्रत्येक राजनीतिक पार्टी द्वारा गाली-गलौच और अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है और ये नए वोट कैङ्क्षचग मंत्र बन गए हैं। हर कोई सौहार्द की अपनी परिभाषा देता है जो उसकी संकीर्ण राजनीतिक आवश्यकताओं पर निर्भर करती है और आशा करते हैं कि इससे उन्हें राजनीतिक तृप्ति और सत्ता मिलेगी। उनके लिए साध्य महत्वपूर्ण है साधन नहीं और जीतना ही खेल का नाम है। 

सभी एक ही रंग में रंगे हुए
आज चुनाव आयोग ठाकुर और वर्मा को अस्थायी रूप से चुनाव प्रचार से दूर रख सकता है किन्तु क्या इससे यह रुकेगा? बिल्कुल नहीं क्योंकि सभी एक ही रंग में रंगे हुए हैं चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई अन्य पार्टी और गत वर्षों में गाली-गलौच एक गुण बन गया है और असंसदीय भाषा प्रचलित हो गई है। दूसरी ओर सभी राजनीतिक पाॢटयों ने व्यवस्था की खामियों को उजागर किया है। ये सारे राजनीतिक दल आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत में विश्वास करते हैं। वे कानून द्वारा शासन करने और जिसकी लाठी उसकी भैंस में विश्वास करते हैं। गाली-गलौच और राजनीतिक कार्य साधकता हमारी व्यवस्था के दिवालिएपन को उजागर करता है जिसमें हमारे राजनेताओं ने गिरी हुई नैतिकता और ऊंचे लालच में महारत हासिल कर ली है और जिसके चलते हमारी बिखरी राजनीति और भी गंदी हो गई है। फलत: अनैतिकता जीवन शैली बन गई है। एक और गाली से क्या फर्क पड़ता है। 

अनैतिकता भारतीय लोकतंत्र का आधार नहीं हो सकता
यह  सच है कि कठोर शब्द राजनीति के अंग रहे हैं और यहां तक कि संसदीय चर्चाओं की माता वैस्टमिंस्टर भी इससे अछूती नहीं है। इस मामले में लेबर पार्टी नेता मेबेवन और विंस्टन चॢचल की तू-तू, मैं-मैं प्रसिद्ध है जिसमें वे कंजर्वेटिव नेताओं को नाली का कीड़ा कहते हैं। आज भारत नैतिक चौराहे पर है। खेल के नियम भविष्य को ध्यान में रखे बिना अविवेकपूर्ण ढंग से बदल दिए गए हैं और वर्तमान में सर्वत्र गिरावट देखने को मिल रही है और लोगों में निराशा है। इसलिए हमारे नेताओं को समझना चाहिए कि वे गाली-गलौच को महत्व दे रहे हैं और उन्हें इस पर रोक लगानी होगी। अनैतिकता भारतीय लोकतंत्र का आधार नहीं हो सकता। हम कब तक ऐसी गाली-गलौच सुनते रहेंगे? 

आप कह सकते हैं कि चुनाव में सब कुछ जायज है फिर भी हमें लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी। राजनीतिक प्रणाली और वर्तमान राजनीतिक मूल्यों में बदलाव के लिए आने वाले समय में लंबा संघर्ष करना पड़ेगा। हमारे नेताओं को चुनाव प्रचार को पुन: राष्ट्र को प्रभावित कर रहे मुद्दों पर गरिमापूर्ण बहस की पटरी पर लाना होगा। कुल मिलाकर भारत के मतदाताओं को अपने साथ ऐसा खिलवाड़ होने नहीं देना चाहिए और न ही उन्हें निर्लज्ज और स्वार्थी नेताओं को ङ्क्षहसक गाली-गलौच की अनुमति देनी चहिए। हमारे नेताओं को एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आप किसी की ओर एक उंगली उठाएंगे तो आपकी ओर चार उंगलियां उठेंगी। क्या कोई राष्ट्र शर्म और नैतिकता के बिना रह सकता है और कब तक?-पूनम आई. कौशिश

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