गोवा की राजनीति और इतिहास

punjabkesari.in Monday, Feb 14, 2022 - 06:29 AM (IST)

गोवा में आज सोमवार को मतदान होने के साथ, राजनीति के लिए फिर से इतिहास का सामना करने का समय आ गया है और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वर सैट कर दिया है। उन्होंने 8 फरवरी को राज्यसभा में कहा, ‘‘भारत को आजादी मिलने के 15 साल बाद गोवा आजाद हुआ था। पंडित  जवाहर लाल नेहरू ने महसूस किया कि अगर उन्होंने गोवा से औपनिवेशिक शासकों को बाहर करने के लिए एक सैन्य अभियान शुरू किया तो शांति के वैश्विक नेता के रूप में उनकी छवि प्रभावित होगी।’’ 

मोदी ने नेहरू के 1955 के स्वतंत्रता दिवस के भाषण का हवाला दिया, जिसमें देश के पहले प्रधानमंत्री को सत्याग्रहियों को मंझधार में छोडऩे का दोषी ठहराया, यहां तक कि उनमें से 25 को गोवा-महाराष्ट्र सीमा पर पुर्तगाली सेना द्वारा गोली मार देने के बाद गोवा को आजाद कराने के लिए भारतीय सेना को भेजने से इंकार कर दिया। अगले दिन, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रचार भाषणों में कहा कि यदि नेहरू चाहते तो 1947 में ही गोवा को मुक्त करा सकते थे और स्थानीय भाजपा इकाइयों ने संदेश को बढ़ाते हुए सोशल मीडिया पोस्ट प्रसारित किए। 

गोवा का स्वतंत्रता आंदोलन : 1510 में गोवा एक पुर्तगाली उपनिवेश बन गया, जब एडमिरल अफोंसो डी. अल्बुकर्क ने बीजापुर के सुल्तान यूसुफ आदिल शाह की सेना को हराया। अगली साढ़े चार शताब्दियों ने एशिया के सबसे लंबे औपनिवेशिक संघर्षों में से एक को देखा- गोवा ने खुद को प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों और धार्मिक और सांस्कृतिक उबाल के चौराहे पर पाया, जो अंतत: एक अलग गोअन पहचान के अंकुरण की ओर ले गया, जो आज भी मुकाबले का एक स्रोत बना हुआ है। 

20वीं शताब्दी के अंत तक, गोवा ने पुर्तगाल के औपनिवेशिक शासन के विरोध में राष्ट्रवादी भावना का उभार देखना शुरू कर दिया था, जो शेष भारत में ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन के अनुरूप था। गोवा में राष्ट्रवाद के जनक के रूप में माने जाने वाले ट्रिस्टाओ डी ब्रागांका कुन्हा जैसे दिग्गजों ने 1928 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गोवा राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की।

1946 में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने गोवा में एक ऐतिहासिक रैली का नेतृत्व किया, जिसने एक नागरिक स्वाधीनता और स्वतंत्रता और भारत के साथ अंतिम एकीकरण के लिए आह्वान किया, जो गोवा के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण क्षण बन गया। उसी समय, एक सोच यह थी कि शांतिपूर्ण तरीकों से नागरिक स्वतंत्रता नहीं जीती जा सकती तथा अधिक आक्रामक सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता है। यह आजाद गोमांतक दल (ए.जी.डी.) का विचार था, जिसके सह-संस्थापक प्रभाकर सिनारी आज भी कुछ जीवित स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं। 

जैसे-जैसे भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ा, वैसे-वैसे यह स्पष्ट हो गया कि विभिन्न जटिल कारकों के कारण गोवा जल्द मुक्त नहीं होगा। विभाजन के आघात और उसके बाद हुए बड़े पैमाने पर बिगाड़, पाकिस्तान के साथ युद्ध ने भारत सरकार को एक और मोर्चा खोलने से रोक दिया, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शामिल हो सकता था। इसके अलावा, गांधी जी की राय थी कि लोगों की चेतना बढ़ाने के लिए गोवा में अभी भी बहुत सारे आधारभूत कार्यों की आवश्यकता है, और भीतर से उभरने वाली अलग-अलग राजनीतिक आवाजों को पहले एक आम राय के नीचे लाया जाना चाहिए।

विरोध के तरीके को लेकर भी सवाल उठे। अपने निबंध ‘गोवा स्ट्रगल फॉर फ्रीडम 1946-61 : द कांट्रीब्यूशन ऑफ नैशनल कांग्रेस गोवा एंड आजाद गोमांतक दल’ में इतिहासकार डा. सीमा रिसबड ने गोवा में स्वतंत्रता के लिए लडऩे वाले समूहों के भीतर फूट पर प्रकाश डाला और तर्क दिया कि अधिनायकवादी शासन के खिलाफ सत्याग्रह की अपनी सीमाएं थीं। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि एक अन्य पुर्तगाली कालोनी दादरा और नगर हवेली की मुक्ति में ए.जी.डी. द्वारा निभाई गई उग्रवादी भूमिका की सफलता से इस ङ्क्षबदू को मान्यता मिलती है (भारतीय अधिकारियों के गुप्त समर्थन के साथ, जैसा कि कुछ का कहना है)। 

नेहरूवादी दुविधा : यह स्पष्ट था कि नेहरू गोवा में लंबी दौड़ के लिए तैयार थे, यह देखते हुए कि जिन परिस्थितियों से भारत उभर रहा था और जहां वह राष्ट्रों के समूह में भारत की स्थिति को आकार देने की ओर अग्रसर था, शायद अपने लिए उपलब्ध सभी विकल्पों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे। पुर्तगाल ने 1951 में गोवा पर एक औपनिवेशिक अधिकार के रूप में नहीं, बल्कि एक विदेशी प्रांत के रूप में दावा करने के लिए अपना संविधान बदल दिया था। इस कदम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से गोवा को नवगठित उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन ‘नाटो’ सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनाना था। लेकिन यह अन्य नाटो सदस्य देशों को स्वीकार्य नहीं था। 

सवाल यह उठता है कि अगर 1955 में चीजें इस तरह के स्तर पर पहुंच गई थीं, तो नेहरू ने सैन्य आक्रमण शुरू करने के लिए दिस बर 1961 तक इंतजार क्यों किया, भले ही भारत ने गोवा के मुद्दे को विभिन्न स्तरों और मंचों पर उठाना जारी रखा। 

डी.पी. सिंघल, जो उस समय क्वींसलैंड विश्वविद्यालय में एक राजनीतिक वैज्ञानिक थे, ने मार्च 1962 में ‘द ऑस्ट्रेलियन क्वार्टरली’ में प्रकाशित अपने पेपर ‘गोवा : एंड ऑफ एन एपोच’ में एक सुराग दिया। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद विरोध की अपनी नीति के साथ भारत गुटनिरपेक्ष विश्व और एफ्रो एशियाई एकता ने नेता के तौर पर मजबूती से स्थापित हो गया था। अक्तूबर 1961 में पुर्तगाली उपनिवेशों पर आयोजित अफ्रीका की भारतीय परिषद की एक संगोष्ठी में अफ्रीकी प्रतिनिधियों के कड़े विचार सुनने को मिले, जिन्होंने तर्क दिया कि गोवा के मुद्दे पर भारत की धीमी गति से चलने की नीति क्रूर पुर्तगाली शासन के खिलाफ उनके अपने संघर्षों में बाधा बन रही है।

प्रतिनिधि निश्चित थे कि जिस दिन गोवा आजाद होगा, उस दिन पुर्तगाली साम्राज्य का पतन हो जाएगा। बाकी एक इतिहास है। गोवा को 19 दिस बर, 1961 को 2 दिनों से भी कम समय तक चली तेज भारतीय सैन्य कार्रवाई से मुक्त करा लिया गया। गोवा ने 60 साल की घटनापूर्ण मुक्ति और भारतीय संघ में सफल एकीकरण देखा है। इसके लिए अपने भविष्य की ओर देखना अधिक महत्वपूर्ण है, बजाय इसके कि रियर मिरर में तेजी से घटती, धुंधली छवियां देखना।-प्रो. राहुल त्रिपाठी


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