जाति और समुदाय के ठप्पे का राजनीतिकरण एक अभिशाप
punjabkesari.in Saturday, Nov 12, 2022 - 03:55 AM (IST)

7 नवम्बर को, सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में अपनी वैधता को बरकरार रखा, जो भारत में कल्याणकारी योजनाओं में बदल सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ई.डब्ल्यू.एस.) आरक्षण योजना के पक्ष में 3-2 के बहुमत से फैसला सुनाया।
बहुमत में तीन न्यायाधीशों के अनुसार, केवल आर्थिक मानदंडों पर आधारित आरक्षण ने संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं किया। अल्पसंख्यक दृष्टिकोण रखने वाले न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि आदिवासियों और पिछड़े वर्गों का बहिष्कार ‘ओरवेलियन’ था, क्योंकि सरकारी आंकड़ों से ही पता चलता है कि भारत के आर्थिक रूप से वंचित वर्ग इन समूहों से संबंधित हैं। उन्होंने कहा:
‘संपूर्ण बहिष्करण सिद्धांत का शुद्ध प्रभाव ऑरवेलियन है, (ऐसा कहना है) जो यह है कि जाति या वर्ग की परवाह किए बिना सभी सबसे गरीब लोगों को उन पर विचार करने का अधिकार है, फिर भी केवल वे, जो अगड़े वर्गों या जातियों से संबंधित हैं, पर विचार किया जाएगा और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सामाजिक रूप से वंचित वर्गों के लोग अपात्र होंगे।’
2019 में, सरकार ने ई.डब्ल्यू.एस. के लिए एक विशेष कोटा बनाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पारित किया।
यह आरक्षण कोटा घरेलू आय द्वारा परिभाषित किया गया था, न कि जाति के आधार पर और सालाना 8 लाख रुपए से कम आय वाले परिवारों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत नौकरियों और सीटों को अलग रखा गया था। अन्य योग्यता कारकों में 5 एकड़ या उससे अधिक की कृषि भूमि का कोई पारिवारिक स्वामित्व या 1,000 वर्ग फुट का आवासीय फ्लैट न होना शामिल है।
उल्लेखनीय है कि संवैधानिक संशोधन को घोषणा के 2 दिनों की अवधि के भीतर पारित कर दिया गया और एक चर्चा के लिए कोई जगह नहीं थी। एक हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक दिलीप मंडल कहते हैं कि:
‘...यह कानून जल्दबाजी में पारित किया गया था। चुपके से पारित किया गया। संविधान (124वां संशोधन) विधेयक, 2019 को 8 जनवरी, 2019 को अघोषित रूप से संसद में पेश किया गया था, जैसे कि कोई राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला शामिल हो। इसे 48 घंटे के भीतर दोनों सदनों में पारित कर दिया गया और अगले दिन राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। आदर्श रूप से, दूरगामी प्रभाव वाले ऐसे विधेयकों को व्यापक चर्चा और परामर्श के लिए विभाग-संबंधित समितियों को भेजा जाना चाहिए। जल्दबाजी में किसी विधेयक को पेश करना और पारित करना गैरकानूनी नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से संवैधानिक नैतिकता और औचित्य के खिलाफ है।’
यह तर्क दिया जाता है कि ई.डब्ल्यू.एस. कोटा अनिवार्य रूप से उच्च जातियों के गरीब सदस्यों के लिए एक योजना है क्योंकि इसमें अनुसूचित जाति (एस.सी.), अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) और सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों (एस.ई.बी.सी.) को शामिल नहीं किया गया, भले ही वे गरीब हों। 103वें संशोधन को चुनौती देने वाले याचिकाकत्र्ताओं का तर्क है कि:
1. केवल आर्थिक दर्जे पर कोटा बनाना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है;
2. इस योजना से दलितों/आदिवासियों को बाहर करना ‘बेवजह भेदभावपूर्ण’ है;
3. ‘पिछड़ेपन’ को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है और सरकार को उच्च जाति ई.डब्ल्यू.एस. के पिछड़ेपन की स्थिति का पता लगाने के लिए अध्ययन करना चाहिए और यह कि क्या उन्हें कलंक या भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
यह याद किया जा सकता है कि आरक्षण की अवधारणा को पत्रकार और समाज सुधारक दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर (जिन्हें काका कालेलकर के नाम से भी जाना जाता है) ने खारिज कर दिया था। उनकी अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (1955) ने पिछड़े वर्गों की स्थितियों की जांच की। इसकी सिफारिशें, जिन्हें कभी लागू नहीं किया गया, में कहा गया कि आर्थिक पिछड़ापन, न कि जाति, तरजीही व्यवहार का आधार होना चाहिए। इसे सरदार प्रताप सिंह कैरों द्वारा खूबसूरती से आगे बढ़ाया गया, जो पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री थे, जिसमें पंजाब, हरियाणा और हिमाचल का हिस्सा शामिल था। उन्होंने कहा- ‘हरिजन आय से, जाति से नहीं।’
कालेलकर आयोग इस बात से अवगत था कि पिछड़ेपन का आकलन जाति की कसौटी के अलावा गरीबी, निवास और व्यवसाय से भी किया जा सकता है। यह विचार था कि पिछड़े समूहों के सदस्य, जिन्होंने एक निश्चित स्तर की आर्थिक और शैक्षिक उन्नति प्राप्त कर ली थी, उन्हें पिछड़े वर्ग से हटा दिया जाना चाहिए। यह महसूस किया गया कि पिछड़ेपन का आकलन करने के लिए व्यक्ति और परिवार आदर्श आधार होंगे, क्योंकि जाति की कसौटी कुछ अस्पष्ट थी और लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ भी, क्योंकि इसने जाति और वर्ग भेद को और बढ़ावा दिया था।पिछड़े वर्ग में ‘लोगों के समूह’ को दिए जाने वाले विशेषाधिकार बहुत अधिक हैं। इस संबंध में, प्रख्यात राजनयिक बी.के. नेहरू ने एक बार टिप्पणी की थी कि पूरा देश ‘उन्नत माने जाने की प्रतीक्षा करने की बजाय अपने पिछड़ेपन पर गर्व करने लगा है।’
यह भारत के सामाजिक और आर्थिक मूल्यों पर एक घटिया टिप्पणी है। हमने देखा है कि अधिकांश राजनेताओं ने सार्वजनिक रूप से जाति-आधारित सांप्रदायिक राजनीति की निंदा की है। हालांकि, व्यवहार में वे हमेशा सार्वजनिक रूप से जो कहते हैं, उसके ठीक विपरीत करते हैं। इस तरह का पाखंड भारत के सामाजिक लोकाचार का हिस्सा बन गया है। दरअसल, जाति और समुदाय के लेबल का राजनीतिकरण भारतीय राजनीति पर एक अभिशाप रहा है।-हरि जयसिंह