जहरीली धरती से खाने व खून में घुलता जहर, भावी पीढिय़ां खतरे में

punjabkesari.in Wednesday, Dec 18, 2024 - 05:46 AM (IST)

पंजाब की जिस हरियाली व खुशहाली का जो रूप हमने देखा है, वह अब एक डरावनी हकीकत की ओर तेजी से बढ़ रहा है। बठिंडा, मानसा और लुधियाना के खेतों की मिट्टी के 60 फीसदी नमूनों में एंडोसल्फान और कार्बोफ्यूरान जैसे जहरीले कैमिकल कीटनाशकों के अवशेष पाए गए हैं। यह खतरा एक ऐसे टाइम बम जैसी चेतावनी है, जो न केवल हमारी फसलों में जहर घोल रहा है, बल्कि आने वाली नस्लों पर संकट का संकेत है। हर साल 5 दिसंबर को मनाए जाने वाले ‘वल्र्ड सॉयल डे’ के मौके पर जहां दुनिया के तमाम देश धरती में घुलते इस जहर पर कड़ी नजर रखने के उपायों बारे चर्चा करते हैं, वहीं भारत को भी इस जहर के कहर से बचने के कारगर कदम उठाने होंगे। 

खेतों से थाली तक जहर का कहर : 85 फीसदी से अधिक रकबे में धान व गेहूं की खेती पर निर्भर पंजाब में कैमिकल कीटनाशकों की बढ़ती खपत चिंताजनक है। राष्ट्रीय स्तर पर जहां कीटनाशकों की खपत प्रति हैक्टेयर 62 किलो है, वहीं 77 किलो प्रति हैक्टेयर कीटनाशकों की खपत करने वाला पंजाब जैसा छोटा प्रदेश यू.पी. व महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों के बाद देश में तीसरे नंबर पर है। इस पागलपल के परिणाम विनाशकारी हैं। हमारी उपजाऊ जमीन बंजर हो रही है। मिट्टी में प्राकृतिक उर्वरता बनाए रखने वाले सूक्ष्मजीव कैमिकल कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल के कारण 30 से 50 फीसदी तक खत्म हो चुके हैं। इसका सीधा असर मिट्टी की गुणवत्ता व फसलों की पोषण क्षमता पर पड़ा है। सैंटर सॉयल सैलेनिटी रिसर्च इंस्टीच्यूट (सी.एस.एस.आर.आई.) के मुताबिक एग्रो-कैमिकल्स के अधिक इस्तेमाल के कारण भारत में 67 लाख हैक्टेयर जमीन लवणता से प्रभावित हो चुकी है। मिट्टी में घुले कैमिकल हमारे खाए हर निवाले से हमारे डी.एन.ए. में जहर घोल रहे हैं, जिसका असर आने वाली पीढिय़ों में भी दिखेगा। इसके लिए अभी से जागरूक होकर इस संकट का कारगर समाधान ढूंढना होगा। 

कानूनी खामियां : कीटनाशकों के उत्पादन व इस्तेमाल पर नियंत्रण रखने के लिए साल 1968 का इंसेक्टिसाइड एक्ट व 1971 के इंसैक्टिसाइड रूल्स आज के दिन कारगर नहीं हैं। कीटनाशकों के दुष्परिणामों को कम करने के लिए पैस्टीसाइड मैनेजमैंट बिल 2020 जैसे संशोधन की कोशिशें हुईं, लेकिन इसमें कई बड़ी खामियां हैं। यह बिल हमें जहरीले कीटनाशकों से बचाने की बजाय केवल इनके निर्माताओं के रजिस्ट्रेशन व लाइसैंसिंग प्रक्रियाओं पर केंद्रित होकर रह गया। 1968 का इंसैक्टिसाइड एक्ट व 1971 के इंसैक्टिसाइड रूल्स आज के दिन कृषि पर गहराते इस संकट को संभालने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रहे हैं। पैस्टीसाइड एक्शन नैटवर्क के मुताबिक, हर साल दुनियाभर में कीटनाशकों के जहर के कारण औसत 11,000 मौतें होती हैं, जिनमें से 6,600 मौतें भारत में हो रही हैं। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि हमारे देश में कीटनाशकों के इस्तेमाल व सुरक्षा उपायों में कानूनी स्तर पर भारी खामियां हैं।

ट्रेनिंग व जागरूकता की कमी : फसलों में कीटनाशकों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन इनके जहरीले प्रभावों के कारण इनके उत्पादन, खपत और निपटान पर कड़ी निगरानी की जरूरत है। बीते 3 दशकों में कैमिकल कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल बढ़ा है, जिसका बड़ा कारण कीटनाशक निर्माता कंपनियों की आक्रामक मार्केटिंग रणनीतियां हैं। ऐसे में कीटनाशकों के रिटेल विक्रेताओं की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं कि वे किसानों को अधूरी या भ्रमित करने वाली जानकारी देते हैं। फसल की जरूरत मुताबिक कीटनाशकों के सही इस्तेमाल के लिए किसानों को कारगर ट्रेनिंग नहीं मिल रही। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के ‘प्लांट प्रोटैक्शन डिपार्टमैंट’ ने 1994 से 2022 तक देश के करीब 15 करोड़ किसानों में से केवल 5.85 लाख किसानों को इंटीग्रेटिड पैस्ट मैनेजमैंट की ट्रेनिंग दी। पैस्टीसाइड मैनेजमैंट पर इंटरनैशनल कोड ऑफ कंडक्ट की हिदायतों मुताबिक, सरकारें व निर्माता कंपनियां किसानों को सही ट्रेनिंग और जानकारी दें, पर इन हिदायतों के पालन पर सख्ती करने की जरूरत है।

सटीक रिकॉर्ड तक नहीं : कीटनाशकों के जहर से होने वाली मौतों का देश में सटीक रिकॉर्ड न होना भी इन पर नियंत्रण रखने वाले रैगुलेटरी सिस्टम को कमजोर करता है। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) के रिकॉर्ड में वही मामले होते हैं, जो मैडिको-लीगल केस के तौर पर सामने आते हैं। जमीनी हकीकत यह है कि कीटनाशक निर्माता कंपनियों के खिलाफ मैडिको-लीगल मामला दर्ज कराना किसानों के लिए बहुत मुश्किल व खर्चीला है। सटीक डाटा के अभाव में किसी की भी जवाबदेही तय नहीं हो पा रही। राज्य सरकारें भी घातक कैमिकल कीटनाशकों पर 60 दिन तक का अस्थायी प्रतिबंध लगा अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं, जिसके चलते समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकल रहा। भारत में सुरक्षा संबंधी जानकारी अक्सर पर्चियों में भर दी जाती है, जिससे किसानों को कीटनाशकों के जोखिमों व सही मात्रा में इस्तेमाल बारे स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती। हालांकि सैद्धांतिक रूप से कंज्यूमर प्रोटैक्शन एक्ट किसानों पर भी लागू होता है, लेकिन भ्रमित करते लेबल और घटिया कीटनाशक निर्माताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं होती। 

आगे की राह : सरकार को खतरनाक कीटनाशकों पर प्रतिबंध के साथ पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए। पैस्टीसाइड मैनेजमैंट बिल 2020 की खामियां दूर हों, ताकि कीटनाशकों के लेबलिंग मानकों से किसानों को उनके खतरों और सही इस्तेमाल की सटीक जानकारी मिल सके। आने वाली पीढिय़ों का सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करने के लिए कारगर गैर-कैमिकल कीटनाशकों को बढ़ावा देना होगा।(लेखक कैबिनेट मंत्री रैंक में पंजाब इकोनॉमिक पॉलिसी एवं प्लानिंग बोर्ड के वाइस चेयरमैन भी हैं)-डा. अमृत सागर मित्तल(वाइस चेयरमैन सोनालीका)    


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