पी.एन.बी. मामले में सरकार को भी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता

Friday, Feb 23, 2018 - 01:09 AM (IST)

आजकल पंजाब नैशनल बैंक काफी वावेलों में घिरा हुआ है। इसकी वैबसाइट पर ‘इरादतन डिफाल्टर्स’ की सूची उपलब्ध है जिन पर 31 जनवरी 2018 तक 14593 करोड़ रुपया बकाया है। इरादतन डिफाल्टर वास्तव में घोटालेबाज ही होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि नीरव मोदी का घोटाला सामने आने से पहले भी पी.एन.बी. धोखेबाजों के हाथों काफी बड़ी मात्रा में लुट चुका था। 

पी.एन.बी. के डिफाल्टरों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान ‘विन्सम ज्वैलरी एंड डायमंड्स लि.’ को हासिल है, जिस पर 747.98 करोड़ रुपए का बकाया है, जबकि जूम डिवैल्पर्ज लि. ने बैंक को 410 करोड़ रुपए अदा करने हैं। 31 दिसम्बर 2017 के अनुसार जिन इरादतन डिफाल्टरों के विरुद्ध मुकद्दमे दायर करवाए गए हैं, सी.आई.बी.आई.एल. (सिबिल) की वैबसाइट पर उनके संबंध में यह बताया गया है कि सबसे अधिक ऐसे डिफाल्टर पी.एन.बी. से संबंधित हैं और सबसे अधिक बकाया देनदारी भी उन्हीं पर है। 

वास्तव में तो समस्त राष्ट्रीयकृत बैंकों का जितना पैसा डिफाल्टरों की ओर फंसा हुआ है उसमें से 30 प्रतिशत अकेले पी.एन.बी. का है। संख्या और राशि दोनों के हिसाब से पी.एन.बी. के डिफाल्टर पहले स्थान पर हैं और इस तथ्य के मद्देनजर बैंक की नींद अवश्य ही खुलनी चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पी.एन.बी. के इरादतन डिफाल्टरों की सूची में हीरा और जवाहरात कम्पनियां शामिल हैं। बैंकर भी जानते हैं कि इस क्षेत्र की कम्पनियों को ऋण देना बहुत जोखिम भरा होता है और इसी कारण बहुत अधिक सावधानी बरतने तथा बाजार से गोपनीय जानकारियां जुटाने की जरूरत होती है लेकिन पी.एन.बी. प्रबंधन ने कई बार धोखा खाने के बावजूद कोई सबक नहीं सीखा। 

बेशक पी.एन.बी. जोखिम प्रबंधन की विफलता का विशेष रूप में सटीक उदाहरण बन कर उभरा है तो भी सरकारी क्षेत्र की पूरी बैंकिंग प्रणाली में इस दृष्टि से अनेक त्रुटियां मौजूद हैं। 30 सितम्बर 2017 को सिबिल द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार स्टेट बैंक समूह सहित राष्ट्रीयकृत बैंकों का इरादतन डिफाल्टरों की ओर 93359 करोड़ रुपया बकाया था, जोकि भारत में कार्यरत विदेशी बैंकों सहित समूचे बैंकिंग तंत्र के बकाए का 83.6 प्रतिशत बनता है। समस्त बैंकों द्वारा दिए गए ऋण में सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों की हिस्सेदारी प्रतिशत की तुलना में उनकी डिफाल्टर लेनदारी का अनुपात कहीं अधिक है। यह समस्या केवल घटिया जोखिम प्रबंधन का ही नतीजा नहीं है। 

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बहुत लम्बे समय से राजनीतिक हस्तक्षेप के शिकार चले आ रहे हैं और अपने चहेतों को रेवडिय़ां बांटने वाले राजनीतिज्ञों के लिए बैंक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जैसे हैं। यही कारण है कि पब्लिक सैक्टर बैंक भारतीय वित्त प्रणाली की बहुत ही कमजोर कड़ी के रूप में उभरे हैं। 4 वर्ष पूर्व पी.जे. नायक समिति ने व्यथा जाहिर की थी, ‘‘अधिकतर बैंकों को किसी तरह का दिशा बोध ही नहीं है। उनका न तो कारोबारी रणनीति पर कोई फोकस है और न ही जोखिम प्रबंधन पर।’’ वैसे सरकार को भी इस मामले में जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। वर्तमान स्थिति में सरकार के पास दो ही विकल्प हैं- या तो इन बैंकों का निजीकरण कर दे या फिर उन्हें इस बात के लिए बाध्य करे कि भविष्य में उन्हें बाजार में प्रतिस्पर्धा करते हुए अपने बूते ही अपनी समस्याएं सुलझानी पड़ें। ऐसा करने के लिए विभिन्न पब्लिक सैक्टर बैंक आपस में विलय कर सकते हैं। कमाल की बात तो यह है कि पी.जे. नायक समिति ने 4 वर्ष से भी अधिक समय पूर्व बैंकिंग तंत्र की वर्तमान समस्याओं का पूर्वानुमान लगा लिया था।-मानस चक्रवर्ती

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