प्रधानमंत्री ने ‘आम आदमी’ के लिए खोल दिए पद्म पुरस्कारों के द्वार

Monday, Jan 29, 2018 - 03:19 AM (IST)

पद्म पुरस्कार हर साल दिए जाते रहे हैं। इस बार भी दिए गए। पर कभी ऐसा नहीं होता कि विवादों की छाया इन सम्मानों पर नहीं पड़ी हो।  देरी और योग्यता को लेकर इन सम्मानों को लेकर हर बार आलोचना होती रही है। जिसको नहीं मिलता है , उसे या उसके प्रशंसकों को तो देरी ही लगेगी लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इसके योग्य नहीं होते और पुरस्कार की सूची में जगह पा जाते हैं। आप यकीन कर सकते हैं कि सिरसा के राम रहीम को भारत रत्न से लेकर पद्मश्री देने की सिफारिशों की संख्या चार हजार से ज्यादा रही है। इसी क्षेत्र के एक सज्जन ने तो खुद ही 17 आवेदन अपने लिए दे दिए। 

तय है कि इनके नाम इन पुरस्कारों की सूची में नहीं आने थे। नहीं आए। लेकिन इतने सारे नाम आए कि आपको यह सोचना पड़ सकता है कि क्या यह संभव है कि पंद्रह हजार आपके पास प्रार्थनापत्र आ जाएं और आप नामों को गंभीरता से जांच लें और अधिकतम 120 ( पद्म पुरस्कारों के घोषित होने वालों की अधिकतम सीमा 120 होती है और इसमें 4 वर्ग भारत रत्न, पद्म विभूषण और पद्म श्री में हस्तियां नामित होती हैं ) नामों की सूची में आने पर एकमत हो सकें। वो भी तीन महीने के अंतराल की सीमा में होने वाली कुछ बैठकों में। अभी तक यह होता रहा है कि कोई भी संस्था, सांसद, विधायक, मंत्री, सरकार कुछ नामों की संस्तुति करते थे। सूची बनती थी। सामान्य तौर पर 1500 से 2000 लोगों की यह संख्या होती थी और उनमें से 120 का चुनाव हो जाता था। मनमर्जी और पैठ का भरपूर इस्तेमाल होता। 

क्रीमी लेयर से युक्त सूची हम लोग पहले टी.वी. और अखबार में देख गर्व कर रहे होते। परन्तु बाद में मोदी सरकार के आने पर इसको आम जनता के लिए भी खोल दिया गया और लोग इसमें खुद भी अपने नाम भेजने और भिजवाने लगे। नतीजा, संख्या में दस गुना तक वृद्धि हो गई और अब नाम छांटने की प्रक्रिया पर सवाल उठने लगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुरस्कार वितरण की जिस प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए कई कदम उठाए उस पर पानी फेरने के भी इंतजाम उनके संगी-साथियों ने अपने तरीके से किए। एक आर.टी.आई. याचिका से खुलासा हुआ कि 2015 में पुरस्कारों के लिए मिली 1840 की सूची में से 637 ने खुद अपने नाम भेजे लेकिन इनमें से पद्म सम्मान सिर्फ 3 लोगों को नसीब हुआ। इसी तरह 2016 में 2311 की सूची में 720 लोगों ने खुद नाम भेजे, भाग्य ने सिर्फ 2 का ही साथ दिया। 

लेकिन विभिन्न माध्यमों से होकर बनी सूची में 2015 में सिर्फ 58 लोग इसमें से थे। तब 104 लोगों को पद्म पुरस्कार की घोषणा की गई थी। 46 महानुभाव अंतिम वक्त में जोड़े गए थे। 2016 में 112 लोगों को सम्मानित किया गया। इनमें सिर्फ 65 सूची से थे और 47 सरकार की कृपा दृष्टि वाले कलाकार, फिल्म वाले, समाजसेवी और उद्योगपति शामिल थे। कहने का भाव है कि घालमेल का खेल चलता रहा। दरअसल 2016 में प्रधानमंत्री ने नीति आयोग की बैठक के दौरान खुलासा किया था कि इस तरह की सूचियों में नेताओं और प्रभावशाली वर्ग का बड़ा हस्तक्षेप रहता है। उन्होंने इस सम्मान की प्रविष्टि के द्वार आम आदमी के लिए खोल दिए और इच्छा यह जाहिर की कि गुमनाम हीरो को इसमें सम्मानित किया जाए। लगता है कि प्रधानमंत्री अपने इस मंतव्य में कामयाब भी हुए हैं। कुछ नाम और काम तो ऐसे हैं जिनको देखकर लगता है कि काश हम ऐसी प्रतिभाओं को पहले पहचानते। 

गुमनाम हीरो को हीरो बनाने की यह पहल काम भी करती दिख रही है। नहीं तो पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय बन चुकी प्लास्टिक का इस्तेमाल कहां हो पा रहा था। विज्ञानियों के सुझाव भी बहुत आगे नहीं जा पा रहे थे। जो थे, अर्थ के ढांचे में फिट नहीं बैठते थे। ऐसे  में राजगोपालन वासुदेवन ने प्लास्टिक से सड़क बनाने की कल्पना को साकार किया और दस साल से यह काम करा रहे हैं। तिरुवनंतपुरम की 75 वर्षीय लक्ष्मी कुट्टी कवियत्री हैं, शिक्षक हैं लेकिन लोग उन्हें जंगल की दादी मां मानते हैं और वह हर्बल औषधि से सांप से काटने से लेकर अन्य रोगों का इलाज करती हैं। 

क्या कोई आदमी सब्जी बेचकर गरीबों के लिए अस्पताल बना सकता है। यह काम पश्चिम बंगाल की सुहासिनी मिस्त्री कर रही हैं। सुहासिनी एक नहीं दो ( एक नदिया जिले में और दूसरा सुंदरबन में) अस्पताल चला रही हैं। अपने धर्मशाला के योशी धोंधेन के प्रशंसक कई होंगे। उन्होंने जिस तरीके से तिब्बती और हर्बल दवाओं के सहारे से हजारों लोगों को स्वस्थ किया, वह काफी बड़ा काम ही नहीं बल्कि भारत और चीन के बीच एक सेतु का काम है। जनानी अम्मा नाम से प्रसिद्ध  बेलगाम की 97 वर्षीय सुलागती नरसम्हा नर्स के रूप में निष्काम सेवा कर रही हैं और पंद्रह हजार से ज्यादा बच्चों की परम्परागत तरीके से डिलीवरी करा चुकी हैं। 60 वर्षीय किसान सिताव जोद्दाती देवदासियों के उत्थान के लिए लगी हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुधांशु बिश्वास पिछड़े बंगाल में गरीबों के लिए अस्पताल चला रहे हैं ।

ये सभी लोग ऐसे हैं जिन्हें देश कम जानता है और ऐसे सम्मान से देश सम्मानित भी होता है। गुमनाम हस्तियों की यह सूची पिछले साल से ज्यादा बढ़ी है, यह संतोषजनक है। लेकिन पुरस्कार नामांकन की खिड़की कितनी खुली है और कितनी बंद, यह सवाल अब भी पूरी तरह से साफ नहीं है। कला, संगीत और साहित्य का क्षेत्र तो इस बार बाजी मार ले गया बाकी क्षेत्रों को उस तरह की मान्यता नहीं दिखी जैसे पहले दिखती थी। यहां तक कि चिकित्सा के क्षेत्र में भी खास उपलब्धि नहीं दिखी। जिस मेक इन इंडिया को सरकार आगे बढ़ाना चाहती है, व्यापार और उद्योग में भी उसे लोग बहुत नहीं मिले। सरकार को आज भी देश की रीढ़ माने जा रहे कृषि क्षेत्र से पुरस्कार लायक कोई नहीं मिला। 

इस सूची में चौंकाने वाला सबसे बड़ा तथ्य विदेशियों का नाम है। 85 में से 16 पद्म विजेता हमारी धरती के नहीं हैं। इसमें से काफी कुछ आसियान देशों के सदस्य हैं। हो सकता है सरकार ने जानबूझ कर इनको शामिल किया हो। यानी कि ये नाम भी खुद नहीं भेजे गए होंगे  और हो सकता है कि इन्हें अंतिम वक्त में ही शामिल किया गया हो। यानी पद्म पुरस्कार की सूची काफी छोटी हो गई। ऐसे में कई राज्यों का तो पत्ता ही साफ हो गया। वैसे राज्यों के अनुसार पुरस्कारों का प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता पर होता तो ज्यादा ही अच्छा होता। वैसे यह स्पष्ट है कि अभी पद्म पुरस्कारों को प्रतिष्ठा पाने के लिए लम्बी जद्दोजहद से गुजरना होगा।-अकु श्रीवास्तव

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