हिंसक घटनाओं से तहस-नहस हो रहा देश का बहुलतावादी सामाजिक ताना-बाना

Saturday, Sep 08, 2018 - 02:54 AM (IST)

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की 2 सितम्बर को नई दिल्ली में पुस्तक रिलीज करने के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि अनुशासन के लिए कहना निरंकुशता नहीं है। सच है, हम लोग अनुशासनहीन हो गए हैं। विदेशों में काम करने वाले यही भारतीय अत्यधिक अनुशासित होते हैं। भाजपा नीत राजग शासन के चार वर्षों के दौरान अपने कई विदेशी दौरों के बावजूद क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस स्वदेशी तथा विदेशी व्यवस्था पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है? 

नरेन्द्र मोदी के लिए इस मुद्दे पर विचार करना उचित होगा। इतना ही महत्वपूर्ण बड़ा प्रश्र यह है कि क्यों भारतीयों की अधिकतर सफलता की कहानियां विदेशों से हैं, जबकि यहां पर लोगों को अपने कार्य क्षेत्र में खुद को व्यावसायिक तौर पर स्थापित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। यहां एक समस्या व्यावसायिक माहौल पैदा करने की है न कि पक्षपात की राजनीति पर चलने की। देश की नौकरशाही प्रणाली के कार्य में सम्भवत: कुछ सुधार हुआ हो मगर वर्षों के दौरान भारतीय राजनीति के विकास को देखते हुए मुझे केन्द्रीकृत राजनीति के खतरों का एहसास हो रहा है। 

जिसने मतदाताओं को विचलित कर दिया है और व्यापक सामाजिक झगड़ों को जन्म दिया है जिनकी रफ्तार विभिन्न समयों तथा स्थितियों में अलग-अलग होती है। मैं अतीत में हुई घटनाओं को नहीं देख रहा। मैंने ऐसी घटनाओं की चर्चा अपनी पूर्ववर्ती पुस्तकों में की है। मैं हाल ही के वर्षों के दौरान हुई घटनाओं को लेकर अधिक चिंतित हूं। यह महज ‘भीड़ तंत्र’ नहीं है बल्कि कानून के डर का अभाव है, जो अनुशासनहीनता का वातावरण पैदा करता है। बदले में यह ‘सही राजनीतिक सम्पर्कों’ वाले लोगों को एहसास करवाता है कि वे आपराधिक कार्रवाइयां करके बच सकते हैं। पुलिस भीड़ द्वारा की गई ऐसी घटनाओं को ‘गायों की तस्करी, पशुओं पर अत्याचार, तेज रफ्तार ड्राइविंग तथा रोड रेज’ के रूप में दर्ज करती है। 

मोदी अधिष्ठान को जिस बात का एहसास नहीं हो रहा, वह यह कि समाज के एक वर्ग को लक्षित करके की गई ऐसी हिंसक घटनाएं देश के ‘बहुलतावादी सामाजिक ताने-बाने’ को तहस-नहस कर देती हैं। इतनी ही बेचैन करने वाली बात यह है कि सीधे अथवा परोक्ष रूप से ऐसे व्यवहार असहिष्णुता, नफरत अथवा राजनीतिक दंडमुक्ति का माहौल पैदा करते हैं तथा नकारात्मक तत्वों में वृद्धि करते हैं, जो हमारे मूल्य आधारित उदार हिंदूवाद से परे होते हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजैंडे के लिए स्वस्थ संकेत नहीं है। यहां मैं स्वामी विवेकानंद के 11 सितम्बर, 1893 के प्रसिद्ध शिकागो भाषण की याद दिलाना चाहूंगा। विश्व को हिंदूवाद का सहनशीलता व अन्य धर्मों के लिए सम्मान का चेहरा दिखाने के अतिरिक्त उन्होंने कहा था कि ‘मैं उत्साहपूर्वक आशा करता हूं कि इस कन्वोकेशन के सम्मान में सुबह के वक्त बजी घंटी सभी तरह की धर्मांधता के लिए मृत्युनाद होगी।’ हम विभिन्न धार्मिक समूहों के उन्मादी तत्वों द्वारा चलाए जा रहे बार्बरिक युग में वापस नहीं लौट सकते। आज भारत अलग तरह का है। 

मैं स्वामी विवेकानंद को भारत के लिए रोल माडल के रूप में देखता हूं। मैंने अतीत में झांका है और धर्म तथा कर्म के प्राचीन सिद्धांतों तथा भारतीयों के किसी भी दुर्भाग्यशाली घटना को परमात्मा की मर्जी समझ कर स्वीकार करने के व्यवहार पर करीब से नजर डाली है। धर्म अभी भी व्यक्ति तथा सामुदायिक जीवन में एक ताकतवर कारक है। मगर जो चीज आज राजनीति के साथ खतरनाक खेल खेलती दिखाई देती है वह है मुनाफे की राजनीति के साथ धर्मों के तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने वाले पहलू। यहां तक कि समाज के अत्यंत संवेदनशील क्षेत्रों में चुुनिंदा धार्मिक रास्तों का राजनीति के औजारों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका परिणाम साम्प्रदायिक विभाजन तथा कट्टरवाद में वृद्धि के रूप में निकलता है। 

दरअसल बढ़ती साम्प्रदायिकता राजनीति का खुला अपराधीकरण तथा हिंदू प्रतिक्रिया, ये सभी उग्र सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के दुखद पहलू हैं जिन्हें हम आज देख रहे हैं। ये भारतीय मतदाताओं को अत्यंत दुविधा में डाल देते हैं। निश्चित तौर पर एक सुनहरी भविष्य के सपने दर्जनों लोगों द्वारा बेचे जा रहे हैं। यह समय बिताने का हमारे राजनीतिज्ञों का पसंदीदा कार्य है। वे पहले सपने बेचते हैं और फिर आत्म-विकास के लिए उनका शोषण करते हैं। यहां तक कि वोटें प्राप्त करने के लिए वे गरीबी के कष्टों का भी दोहन करते हैं। इस सबके बीच जहां हमने वोटों तथा नोटों के शातिर चक्कर का सामना किया है, इस प्रक्रिया में एक समानांतर अर्थव्यवस्था भी चल रही है जिसे ‘कालेधन की अर्थव्यवस्था’ कहा जाता है। लम्बे समय के दौरान काला धन आधिकारिक अर्थव्यवस्था से अधिक शक्तिशाली बन गया है। यह महात्मा गांधी की धरती में असत्याभास लगता है, जिनका मंत्र ‘साधारण रहन-सहन तथा उच्च विचार’ था। रिचर्ड एटनबरो की बदौलत आज भी महान गांधी अस्तित्व में हैं। सच है कि बहुत से अवरोधों के बावजूद आज भारत में लोकतंत्र एक ‘जीवंत’ चीज है। हालांकि यह अफरा-तफरी की ओर जा रहा है। 

मैं आशा करता हूं कि प्रधानमंत्री इस छोटे से लेख में उठाए गए सभी मामलों तथा मुद्दों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे। मैं हाल ही में पुणे पुलिस द्वारा प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) समूह के ‘सक्रिय सदस्यों’ को देश की लोकतांत्रिक सरकार को गिराने के लिए एक ‘फासीवाद विरोधी मोर्चा’  बनाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए मानवाधिकार कार्यकत्र्ताओं का आलोचनात्मक मुद्दा नहीं उठा रहा। भीमा-कोरेगांव में 1 जनवरी को हुई ‘हिंसा’ के इतने दिनों के बाद भी पुलिस ने अभी उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल नहीं किया है। पुणे की अदालत ने विनम्रता दिखाते हुए उन्हें आरोप पत्र को अंतिम रूप देने के लिए और 90 दिनों का समय दिया है। 

मैं इस मुद्दे के गुणों-अवगुणों में नहीं जाना चाहता क्योंकि यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के ध्यानार्थ है। हालांकि सत्ता में बैठे लोगों को शीर्ष अदालत द्वारा दी गई अंतरिम व्यवस्थाओं पर गम्भीरतापूर्वक ध्यान देने की जरूरत है। इसने कहा है कि ‘असहमति लोकतंत्र की सुरक्षा है। यदि इसकी इजाजत नहीं दी जाती तो प्रैशर कुकर फट जाएगा।’ यह मोदी सरकार के लिए स्पष्ट चेतावनी है कि भारतीय लोकतंत्र के पहिए को किस तरह नहीं चलाना है। नि:संदेह समय आ गया है कि भारतीय राजनीति में बढ़ रहे नकारात्मक रुझानों को लेकर आत्ममंथन किया जाए। भारत के पारम्परिक समाज के ताने-बाने, जो अपनी ताकत सहिष्णुता, समझ, अन्य धार्मिक मूल्यों तथा धर्मनिरपेक्ष प्रकृति से प्राप्त करता है, की हत्या करने वाली प्रक्रिया को रोकने के लिए हमें अपना सर्वश्रेष्ठ कदम आगे बढ़ाना होगा।-हरि जयसिंह

Pardeep

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