प्लास्टिक डोर : लातों के भूत बातों से नहीं मानते

punjabkesari.in Thursday, Feb 15, 2024 - 04:37 AM (IST)

सर्द ऋतु की कड़कड़ाती ठंड की विदायगी तथा मनभावन बसंत के आगमन के मध्य सुहावने मौसम का अहसास एक सुखद करवट लेने लगता है। निखरे अंबर की आभा कई गुणा बढ़ जाती है, जब मस्ती भरी विविध रंगी पतंगें यत्र-तत्र झूमती दिखाई देती हैं। लोहड़ी, मकर संक्रांति, बसंत पंचमी; हमारे पारंपरिक तीज-त्यौहार पतंगबाजी के बिना जैसे अधूरे माने जाते हैं। इन पर्वों पर विशेष रूप से पतंग उड़ाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है।

परिवर्तन के इस दौर में जहां पतंगों के मनभावन रूपों में नवीनता देखी जा रही है, वहीं पारंपरिक मांझे के स्थान पर प्लास्टिक डोर का चयन सुरक्षा के लिहाज से आज एक ङ्क्षचताजनक विषय बन चुका है। प्लास्टिक से निर्मित मजबूत डोर न केवल मानवों पर घातक प्रहार कर रही है, बल्कि मासूम परिंदों-जानवरों को हताहत करने का सबब भी बन रही है। दरअसल, पतंगबाजी मेें प्रयुक्त होने वाला मांझा पहले स्वदेशी स्तर पर तैयार किया जाता था। पंजाब तथा उत्तर प्रदेश का बरेली शहर परंपरागत सूती डोर बनाने के लिए विशेष रूप से विख्यात थे।

पतंगें कटकर गिरतीं तो सूती डोर से किसी प्रकार की जैविक क्षति न होती, किंतु जब से मुक्त  व्यापार व्यवस्था के अंतर्गत चीन से आयातित सस्ती व मजबूत डोर ने बाजार में प्रवेश किया, परंपरागत डोर के व्यवसाय को हिलाकर रख दिया। अनुमानानुसार, एक हजार मीटर की एक सामान्य सूती डोर की एक चरखी की कीमत पर लगभग चार हजार मीटर लंबी प्लास्टिक डोर की चरखी खरीदी जा सकती है।

पतंग व्यापारियों के मुताबिक, नायलॉन या सिंथैटिक धागे से बनी इस डोर को अधिक धारदार बनाने के लिए रासायनिक पाऊडर तथा अन्य धातुओं का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी चपेट में आने से गला तक कट सकता है। मारक एवं विद्युत संवाहक होने के चलते प्रांत में प्रतिबंधित होने के बावजूद, सस्ती व मजबूत होने के कारण इसकी मांग बराबर बनी हुई है। कई जिलों में पुलिस प्रशासन द्वारा कठोरता बरतने के बावजूद प्लास्टिक डोर का धड़ल्ले से बिकना जारी है। 

प्लास्टिक डोर की अवैध बिक्री अनवरत हादसों को निमंत्रण दे रही है। गत सप्ताह, जालंधर की एक एक्टिवा सवार युवती का गला अनायास ही प्लास्टिक डोर की चपेट में आ जाने के कारण बुरी तरह से कट गया, डोर हटाने की कोशिश में हाथ की दो उंगलियां भी जख्मी हो गईं। इसी प्रकार स्थानीय निवासी मैकेनिक का गला एवं नाक प्लास्टिक डोर के कारण कट गए।
सूची बहुत लंबी है, प्लास्टिक डोर जनित दुर्घटना का कोई न कोई मामला अक्सर संज्ञान में आ ही जाता है। बीते दो वर्षों में 50 से अधिक लोग इसकी मार का शिकार बन चुके हैं। हत्यारी प्लास्टिक डोर एक बच्चे सहित 2 लोगों की जान भी ले चुकी है। 

हादसों का यह दौर सामाजिक विसंगति का मसला न होकर वास्तव में कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन चुका है। पुलिस द्वारा आए दिन छापेमारी, गिरफ्तारियां करने तथा प्लास्टिक डोर के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाने की दावेदारी के बावजूद हालात न सुधरना खेदजनक है। असल में, प्लास्टिक डोर का इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति  मामले में समान रूप से दोषी होने पर भी अक्सर पकड़ में नहीं आ पाता। जीवन पर कहर बरपाने वाली डोर वास्तव में कहां से व किन हाथों द्वारा संचालित हुई, पता लगा पाना मुश्किल है।

प्रयत्न करने पर भी पुलिस की गिरफ्त में केवल विक्रेता ही आ पाते हैं। सरकारी आदेश के उल्लंघन के दोष में धारा-188 लागू होती है, जिसके अंतर्गत मात्र 1 माह की सजा तथा 200 रुपए का जुर्माना है। स्पष्ट शब्दों में, इसे दंड के नाम पर महज खानापूर्ति ही कहेंगे। घटनाओं पर लगाम लगाने के उद्देश्य से अथवा किसी की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले को समुचित दंड देने के आधार पर यह दंड प्रक्रिया नाकाफी है। अधिकांश मामलों में त्वरित जमानत पर रिहा हुए दोषी पुन: इस व्यापार में सक्रिय हो जाते हैं।

यही कारण है कि संबद्ध मामलों में हो रही निरंतर बढ़ौतरी को देखते हुए पंजाब में खूनी डोर बेचने वालों के विरुद्ध धारा-188 की बजाय भारतीय दंड संहिता की धारा-307 के तहत कार्रवाई करने की मांग जोर पकडऩे लगी है। निश्चय ही, पतंगबाजी हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का अभिन्न अंग है। विरासती संवद्र्धन में अवश्य इस खेल को आगे ले जाना चाहिए, किंतु किसी के जीवन की सुरक्षा को ताक पर रखकर नहीं। संवेदनाओं को परिपोषित करने वाली हमारी संस्कृति आनंद की आड़ में किसी के भी जीवन पर प्रहार करने की इजाजत कतई नहीं देती। थोड़े से लाभांश की खातिर हादसों को न्यौता देना न तो खरी सौदेबाजी है और न ही ग्राहक के तौर पर समझदारी।

धंधे के नाम पर खूनी मुनाफाखोरी बटोरने वाले सौदेबाज यदि समाज के अपराधी हैं, तो इस गुनाह में वे गैर जिम्मेदार अभिभावक भी बराबर के शरीक हैं, जो खेल के नाम पर अपने बच्चों को आफत खरीदकर देने में सहायक बनने से रत्ती भर भी संकोच नहीं करते। अपनी लापरवाही अथवा बच्चों की हठधर्मिता में शायद वे यह भूल जाते हैं कि एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते समाज को सुरक्षित बनाए रखना उनका सर्वोपरि दायित्व होना चाहिए।

दुर्घटनाओं पर लगाम लगाना तभी संभव है, जब पुलिस-प्रशासन दावेदारी की बजाय कत्र्तव्यपरायणता को अधिक महत्व दे। अपराधी जब नियमों को सरेआम ताक पर रखकर, कानून का उल्लंघन करने लगें, तो समय व परिस्थितियों के ध्यानार्थ कानून में यथेष्ट परिवर्तन लाना अनिवार्य हो जाता है। मत भूलें, ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’। हादसे अपने-पराए में भेद नहीं करते, वे तो बस आसमान से कहर बनकर टपक पड़ते हैं। हमारे हाथों बिकी अथवा खरीदी प्लास्टिक डोर क्या जाने कब, कहां से कोई मातमी संदेश ले आए; यदि मतिपूर्ण इतना ही विचार लें तो प्लास्टिक डोर उत्पादन-भंडारण, क्रय-विक्रय का क्रम स्वयंमेव थम जाएगा। -दीपिका अरोड़ा


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