‘जनता का संघर्ष ही कारगर हथियार है’

punjabkesari.in Tuesday, Jan 05, 2021 - 04:57 AM (IST)

किसानों तथा आम उपभोक्ताओं से संबंधित 3 कानूनों के खिलाफ 2020 में शुरू हुआ किसानों का संघर्ष, जो कृषि को कार्पोरेट घरानों के सुपुर्द करने तथा कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देकर आम लोगों के पेट पर लात मारने की एक शातिर चाल थी, आर्थिक मांगों से शुरू होकर मोदी सरकार की समस्त आर्थिक तथा राजनीतिक पहुंच को चुनौती देने तक पहुंच गया है। 

पंजाब की धरती से शुरू हुआ यह किसानी संघर्ष पड़ोसी राज्य हरियाणा को भी अपने अलिंग्न में लेता हुआ पूरे देश की सीमाओं तक फैल गया है। जो व्यवस्था इस संघर्ष को सफल बनाने के लिए अपनाई गई वह पूरी तरह से विचारधारक तथा सांस्कृतिक थी। विचारधारक नजरिए के साथ मोदी सरकार तथा संघ परिवार की ओर से साम्प्रदायिकता के जहर के मुकाबले सभी धर्मों, जातों तथा विश्वास करने वाले लोगों की विशाल एकता, विभिन्न प्रांतों के आपसी विवादों तथा झगड़ों की जगह एक-दूसरे का पलकों को बिछाकर किया गया स्वागत तथा प्यार, बांटने तथा उत्तेजना पैदा करने वाले नारों के मुकाबले ‘मजदूर-किसान एकता जिंदाबाद’,‘इंकलाब जिंदाबाद’ से गूंजती मीठी आवाजों तथा लाखों की तादाद में जुड़े मेहनतकश लोगों का अनुशासित तथा अहिंसक प्रदर्शन अपने आप में एक मिसाल ही है। 

इस प्रदर्शन के दौरान एक-दूसरे की सहायता तथा सहयोग, बिना भेदभाव के लोगों में बैठकर लंगर खाने की परम्परा, महिलाओं तथा बुजुर्गों के प्रति सम्मान, हर किसी के सामाजिक तथा रीति-रिवाजों की कद्र तथा इसके आगे हर कुर्बानी करने का जज्बा तथा लालच रहित सब्र-संतोष की उदाहरणें दिल्ली की सरहदों के ऊपर निर्मित ‘किसान गांव’ में देखने को मिलती हैं। आपसी मतभेद के होते हुए भी एकमत होते हुए किसी व्यक्ति विशेष  के स्थान पर सामूहिक नेतृत्व की उसारी भी हमारी स्वस्थ संस्कृति की मूल्यवान देन है। हर बैठक में तर्क सहित सरकारी दलीलों को रद्द कर किसानों की मांग को सही तरीके से सिद्ध करना तथा फैलाए जा रहे भ्रमों का एक सही जवाब देना भी इस किसानी संघर्ष की खासियत है। सरकार तथा कृषि आंदोलन के प्रतिनिधियों के बीच हुई लम्बी बातचीत के दौर एक नए इतिहास की उसारी भी है। 

लोगों ने अपने अनुभव तथा विवेक के माध्यम से यह सीख लिया है कि उनके दुश्मन अंबानी और अडानी जैसे कार्पोरेट घराने हैं जो पहले देश के प्राकृतिक साधनों पर कब्जा कर अब किसानों की जमीन को हथियाना चाहते हैं। इसके अलावा ये लोग कृषि मंडी में दाखिल होकर जरूरी वस्तुओं के भंडारण के साथ कालाबाजारी के माध्यम से समस्त उपभोक्ताओं का खून चूस कर अपना राजस्व बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए हैं। इस आंदोलन ने हर व्यक्ति की जुबान तथा दिमाग पर यह बात उतार दी है कि मोदी सरकार बेशक दावे कुछ भी करे परंतु वास्तव में वह आम जनता के हितों की रक्षक नहीं बल्कि देशी तथा विदेशी कार्पोरेट घरानों के मुनाफों में बढ़ौतरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। 

अम्बानी तथा अडानी के खिलाफ प्रकटाया जा रहा गुस्सा वास्तव में देश के समस्त मुनाफाखोरों की लूट-खसूट के खिलाफ है। पिछले 6 वर्षों से मोदी सरकार द्वारा परोसे जा रहे ‘साम्प्रदायिक एजैंडे’ के प्रति लोगों के मनों में पनप रहे गुस्से का सही समय पर एक लावे की तरह फूटना भी किसानी आंदोलन की व्यापकता तथा प्रसिद्धि का सबब है। 

किसानों का यह संघर्ष यह भी दर्शाता है कि आॢथक मांगों तथा सांस्कृतिक सीढिय़ों का सफर तय करता हुआ कोई व्यापक जन आंदोलन हफ्तों, महीनों का नहीं बल्कि सालों का सफर तय कर सकता है। इस कृषि आंदोलन ने सत्ताधारी पार्टी तथा अन्य दलों तथा उनके नेताओं की परवाह न करते हुए लोगों को भारतीय राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है जो 70 सालों से लोगों को धोखा देती आ रही है। ऐसे दलों की कृपा ही देश के श्रमिक लोगों की वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। जहां इस आंदोलन में श्री गुरु नानक देव जी का तत्व ज्ञान नजर आता है, वहीं इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह की सूझ की झलक भी नजर आती है।

जिस तरह से मोदी सरकार ने भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता, संगठनात्मक ढांचे तथा लोकतांत्रिक कद्रों-कीमतों का उपहास किया है, वहीं उसने डा. बी.आर. अम्बेदकर के नेतृत्व में बने संविधान की प्रासंगिकता को समझने वाले लोगों को भी झिंझोड़ कर रख दिया है। इस महान किसान आंदोलन ने भारत की राजनीति में कई नई-नई बातें देखी हैं। भविष्य में आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा विचारधारक क्षेत्रों में बहुत कुछ घटने वाला है। सिर्फ और सिर्फ एक जनतक संघर्ष ही कारगर हथियार है जिसके माध्यम से साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों तथा कार्पोरेट घरानों के फायदे के लिए निर्मित किए जा रहे विकास मॉडल को असफल बनाया जा सकता है।-मंगत राम पासला


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