अपनों से दूर होते लोग

Monday, Dec 20, 2021 - 05:45 AM (IST)

जीवन में सपनों के लिए कभी अपनों से दूर न होना क्योंकि।
जीवन में अपनों के बिना सपनों का कोई मोल नहीं होता॥ 

दुनिया की व्यस्तता में अपनों से अपने बिछड़ रहे हैं। आज का मानव मोबाइल के इस दौर में इतना व्यस्त हो चुका है कि वह घर पर भी अपनों को ठीक से समय नहीं दे पा रहा। आखिर यह कैसी व्यस्तता आन पड़ी है कि किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है? मुमकिन तो सिर्फ इतना रह गया है कि एक-दूसरे से मोबाइल या मैसेज के माध्यम से संपर्क हो रहा है। अक्सर अपने सगे-संबंधियों से मिलने पर यही एक बहाना प्रसिद्ध होता जा रहा है कि जीवन की इस आपाधापी में बस आपसे संपर्क करने का समय ही नहीं मिलता, जबकि ज्यादातर समय हमारा फोन देखने या टी.वी. देखने में ही बीत जाता है। 

यहां तक कि हम अपने बच्चों को भी समय नहीं दे पाते। जब हम समय निकाल भी लें तो बच्चे भी अपनी दुनिया में व्यस्त बैठे होते हैं क्योंकि हमारी तरह उनकी भी अपनी निजी दुनिया और निजी समय-सारणी है। यही विडंबना हमें अपनों से दूर करती जा रही है। समय सबसे बलवान है। वह अपने साथ-साथ चीजों, आदतों और तौर-तरीकों तक को बदल देता है। एक जमाना था जब लोगों के कच्चे घर और सच्चे दिल होते थे, अपना सुख-दुख आपस में बांटते थे, घंटों एक-दूसरे के घरों में और चबूतरों पर बैठ कर बतियाते थे लेकिन अब वह बात नहीं रही। लोग धीरे-धीरे अपनों से दूर होते जा रहे हैं। 

दिखावे की आग चारों तरफ फैल रही है। सुख-दुख बांटने का समय तक नहीं रहा, पुराने शौक कम हो गए हैं। अब न कला-संस्कृति के लिए समय रहा है, न मिलने-जुलने के लिए। यहां तक कि अपने खुद के लिए भी समय नहीं रहा। रामलीला का मंचन, कठपुतली का नाच या कवियों-शायरों की महफिल, नाटक और संगीत धीरे-धीरे सब अतीत की बातें बनते नजर जा रहे हैं। 

अब दुख इस बात का है कि हमारे पास न तो अपनी संस्कृति और विरासत संभालने का समय है और न ही इन्हें युवा पीढ़ी के हाथों सौंपने का। हमारी सभ्यता और संस्कृति आज की युवा पीढ़ी के लिए पुरानी होती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप आज का युवा पाश्चात्य संस्कृति की तरफ भागा जा रहा है। भारतीय संस्कृति की महान विरासत मातृ देवो, पितृ देवो और अतिथि देवो भव की शिक्षा से आज की युवा पीढ़ी कोसों दूर खड़ी है। बरसों बाद जब आज के युवा कहीं दूर प्रदेश से घर पर आते हैं तो उनसे यह पूछे जाने पर कि सामने बैठे यह बुजुर्ग कौन हैं, वे अक्सर निरुत्तर हो जाते हैं और हिचकिचाने लगते हैं। 

अब भला इसमें उन बच्चों का क्या कसूर। कसूर तो हमारा है जो हम उन्हें नैतिकता की शिक्षा, सभ्यता और अपनी संस्कृति की पहचान न दे सके। इसलिए एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भविष्य को बेहतरीन बनाने के लिए हमारा यह दायित्व बनता है कि बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा दें और संस्कारों को लेकर रोजाना उनके साथ बातचीत करें। प्रतिदिन अगर संस्कारों की बात होगी तो बच्चे स्वयं ही नैतिक मूल्यों व संस्कारों के प्रति सजग रहेंगे, जिससे हमारा दायित्व भी पूरा हो जाएगा और युवा पीढ़ी को बेहतरीन भविष्य भी मिल सकेगा। जब हम रिश्तों के लिए वक्त नहीं निकाल पाते हैं। तब वक्त हमारे बीच से रिश्ते को निकाल देता है॥-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 

Advertising