टूट के कगार पर पहुंची पी.डी.पी.

Tuesday, Jul 10, 2018 - 03:28 AM (IST)

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक पार्टियों की भूमिका सर्वोपरि है और इन पार्टियों के अभ्युदय व सफलता की पृष्ठभूमि में जहां विचारधारा एवं रणनीति के अलावा नेताओं-कार्यकत्र्ताओं की मेहनत जैसे कारक अहम होते हैं, वहीं इन तमाम मानदंडों पर खरा न उतरना उसे पतन की राह पर ले जाता है। फिर जब किसी पार्टी का पतन शुरू होता है तो विरोधी पार्टियांकिसी मृत देह पर गिद्धों की भांति उसे नोचने के लिए टूट पड़ती हैं। जम्मू-कश्मीर में पी.डी.पी. के साथ आजकल यही हो रहा है। 

भाजपा, कांग्रेस या नैशनल कांफ्रैंस, कोई भी पार्टी हो, खुलेआम इंकार करने के बावजूद अंदरखाने हर कोई पी.डी.पी. नेतृत्व से नाराज विधायकों को अपने पाले में खींचने की जुगत लगा रहा है। आलम यह है कि आज कुल 28 निर्वाचित विधायकों में से आधे से अधिक दूसरी पाॢटयों के संपर्क में हैं, जिनकी बदौलत भाजपा फिर से सत्ता में लौटने के सपने संजो रही है। हालांकि, कांग्रेस ने भी प्रयास किया था लेकिन अपनी दाल न गलती  देखकर वह फिलहाल पीछे हटती प्रतीत हो रही है। कांग्रेस और भाजपा का लालच यह भी है कि उसे कश्मीर में जनाधार वाले नेता ‘रैडीमेड’ मिल रहे हैं क्योंकि घाटी में कांग्रेस का चुनावी रिकार्ड जहां ज्यादा अच्छा नहीं है, वहीं भाजपा का तो कभी खाता ही नहीं खुला है।

पी.डी.पी. के इस हश्र का कारण पार्टी अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की राजनीतिक अदूरदॢशता तो है ही, जनता द्वारा ठुकराए गए नेताओं की जुंडली के प्रभाव में आकर पनपे अहंकार के कारण जनाधार वाले नेताओं से समन्वय का अभाव एवं उन्हें अपमानित करना भी बड़ा कारण रहा है। केवल पार्टी ही नहीं, बल्कि सहयोगी दलों के साथ भी महबूबा मुफ्ती का व्यवहार उचित नहीं रहा है। तीन-तीन वर्ष तक रोटेशनल सी.एम. का समझौता होने के बावजूद वर्ष 2008 में उन्होंने कांग्रेस की सरकार गिराई और 2015 में गठित गठबंधन सरकार के दौरान एकतरफा निर्णय लेकर सहयोगी भाजपा की किरकिरी करवाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। 

जम्मू-कश्मीर में आजादी के बाद ही नहीं, बल्कि महाराजा हरि सिंह के शासनकाल के दौरान आजादी से डेढ़ दशक पहले ही शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नैशनल कांफ्रैंस (1932 से 1939 तक मुस्लिम कांफ्रैंस) राज्य की एकमात्र राजनीतिक पार्टी के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी थी। आजादी के बाद पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद ने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ के सहयोग से उसे चुनौती देने का प्रयास किया लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं शेख अब्दुल्ला के मैत्री संबंधों के चलते लम्बे संघर्ष के बावजूद प्रजा परिषद को ज्यादा सफलता नहीं मिली। बहरहाल, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में वर्ष 2002 (राज्यपाल शासन को छोड़कर) तक जम्मू-कश्मीर पर नैशनल कांफ्रैंस एवं कांग्रेस का शासन चलता रहा। 

इसी बीच, राज्य विशेषकर कश्मीर घाटी में नैशनल कांफ्रैंस के एकाधिकार को समाप्त करने और लोगों को राजनीतिक विकल्प देने की जरूरत महसूस होने लगी। इसी विचार-मंथन की बदौलत वर्ष 1998 में लम्बे समय तक कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष एवं देश के गृहमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में पी.डी.पी. नामक राजनीतिक दल का गठन किया गया। शुरूआती दौर में केन्द्रीय नेताओं ने भी पी.डी.पी. को अपने पैरों पर खड़ा होने में खूब सहयोग दिया। इस पार्टी ने तेजी से लोगों के दिलों में जगह बनाई और अपनी स्थापना के 4 वर्ष के भीतर 2002 में ही कांग्रेस के सहयोग से राज्य की सत्ता पर कब्जा कर लिया। 

समझौते के अनुसार पहले तीन वर्ष तक पी.डी.पी. की तरफ से मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने जबकि अगले तीन वर्ष तक कांग्रेस की तरफ से गुलाम नबी आजाद को मुख्यमंत्री रहना था लेकिन श्री अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अडिय़ल रुख अपनाते हुए पी.डी.पी. ने आजाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद नैशनल कांफ्रैंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के दौरान पी.डी.पी. ने विपक्ष की भूमिका निभाई। वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में जब किसी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला तो काफी विचार-मंथन के बाद विचारधारा के स्तर पर धुरविरोधी पी.डी.पी. एवं भाजपा ने मिलकर सरकार बनाने का निर्णय लिया और 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की। हालांकि, मुफ्ती के 10 माह के शासनकाल के दौरान भी दोनों पार्टियों के बीच कई मुद्दों पर विवाद खड़े हुए लेकिन मुफ्ती परिस्थितियों को समय रहते संभाल लेते थे। 

निस्संदेह, मुफ्ती और महबूबा के अंदाज में शुरू से ही जमीन-आसमान का अंतर रहा है। मुफ्ती जहां सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करने वाले और गंभीर मसलों को बेहद संजीदगी एवं सूझबूझ से सुलझाने में माहिर थे, इसलिए वह पार्टी नेताओं में ही नहीं, आम जनता के बीच भी लोकप्रिय थे, वहीं महबूबा अपने अडिय़ल रुख के कारण न केवल आम जनता, बल्कि पार्टी नेताओं के बीच भी लोकप्रिय नहीं हो पाईं। यही कारण है कि 7 जनवरी, 2016 को मुफ्ती के निधन के बाद न केवल सहयोगी भाजपा के साथ संबंधों में खटास, बल्कि पी.डी.पी. नेताओं की महबूबा से नाराजगी की खबरें भी निरंतर आती रहीं। 

राज्य के समक्ष मुंहबाय खड़े सुरक्षा एवं विकास में क्षेत्रीय संतुलन के मुद्दों में गंभीरता दिखाने की बजाय रातों-रात कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोगों में लोकप्रिय होने के लिए मुख्यमंत्री के तौर पर महबूबा मुफ्ती ने कई ऐसे निर्णय ले लिए, जिनसे उनकी सहयोगी भाजपा की बहुत फजीहत हुई। इतना ही नहीं, पी.डी.पी. अध्यक्ष होने के बावजूद वह अपनी पार्टी के नेताओं से भी कटती चली गईं। पूर्व उप-मुख्यमंत्री एवं बारामूला-कुपवाड़ा के सांसद मुजफ्फर हुसैन बेग और श्रीनगर-बडग़ाम के पूर्व सांसद हामिद तारिक कर्रा सरीखे वरिष्ठ नेता तो पहले ही महबूबा की कार्यशैली से नाराज रहे हैं। पार्टी में कोई सुनवाई न होने पर कर्रा तो पी.डी.पी. छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने पर भी विवश हो गए। 

इसके बाद पी.डी.पी. और भाजपा के बीच सेतु बनकर जिस पूर्व वित्तमंत्री डा. हसीब अहमद द्राबू ने गठबंधन सरकार गठित करवाने में अहम भूमिका निभाई, अलगाववादियों की नजरों में ‘हीरो’ बनने के चक्कर में महबूबा ने बड़े नाटकीय अंदाज में उन्हें भी बर्खास्त कर दिया। सूत्र बताते हैं कि पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन को बनवाने वाले डा. हसीब द्राबू की इसे तुड़वाने में भी भूमिका रही है। इसके अलावा मंत्रिमंडल फेरबदल में अनदेखी के चलते कई वरिष्ठ नेता महबूबा मुफ्ती से दूर होते चले गए। अब पी.डी.पी. नेतृत्व से असंतुष्ट ये तमाम लोग अपनी सुविधा, विचारधारा, लगाव एवं भविष्य की संभावनाओं के मद्देनजर कांग्रेस, नैशनल कांफ्रैंस एवं भाजपा में अपनी जमीन तलाश रहे हैं। 

दरअसल, पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को अपनी चालाकियों के कारण न केवल जम्मू-कश्मीर की सत्ता से हाथ धोना पड़ा है, बल्कि अब उनकी पार्टी पी.डी.पी. भी बिखराव की राह पर अग्रसर हो गई है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में अपनी स्थापना के केवल 4 वर्ष में जो पार्टी सत्ता के मुहाने तक पहुंच गई थी, अब उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में केवल सवा दो वर्ष के अंतराल में वही पार्टी पतन के कगार पर पहुंच गई है। अभी भी यदि महबूबा मुफ्ती अपने स्वभाव, परामर्शदाताओं एवं नीतियों में बदलाव लाती हैं तो पार्टी को बड़ा नुक्सान होने से बचा सकती हैं, क्योंकि जो पी.डी.पी. नेता आज पार्टी नेतृत्व पर वंशवाद हावी होने का सवाल उठा रहे हैं, वही दो दशक तक इसी वंशवाद को स्वीकार करते आए हैं। इसलिए नेताओं में नाराजगी का कारण वंशवाद नहीं बल्कि महबूबा एवं उनकी करीबी जुंडली द्वारा रोज-रोज किया जाने वाला प्रत्यक्ष एवं परोक्ष अपमान है।-बलराम सैनी

Pardeep

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