पी.डी.पी. के समक्ष निरन्तर समर्पण करती आ रही है भाजपा

Friday, Apr 06, 2018 - 02:49 AM (IST)

जम्मू -कश्मीर की सत्ता में रहने के लिए भाजपा पिछले 3 वर्षों से अपने मूल मुद्दे एवं विचारधारा को तिलांजलि देकर सहयोगी पी.डी.पी. के समक्ष निरंतर समर्पण पर समर्पण करती रही है। जम्मू संभाग की कुल 37 में से 25 सीटों पर विजयी बनाकर भाजपा को राज्य की सत्ता के मुहाने तक पहुंचाने वाली राष्ट्रवादी जनता भगवा दल के इस समर्पण भाव को देखकर न केवल निराश है, बल्कि चिंतित भी है। 

हद तो तब हो गई जब केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने 27 मार्च को लोकसभा में यह स्पष्ट करके लोगों की रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया कि केन्द्र सरकार का जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करने वाली भारतीय संविधान की धारा 370 को हटाने का कोई विचार ही नहीं है। इससे पहले, पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र दाखिल करके धारा 370 को मजबूती प्रदान करने वाले अनुच्छेद 35-ए को चुनौती देने वाली याचिका का डटकर विरोध किया गया है। ऐसे में, यह आशंका प्रबल हो गई है कि आतंकवादियों के लिए महबूबा सरकार द्वारा प्रस्तावित नई पुनर्वास नीति पर भी कहीं भाजपानीत केन्द्र सरकार घुटने न टेक दे। 

वर्ष 2014 में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार 25 सीटें हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी को जब 28 सीटें प्राप्त करने वाली मुफ्ती परिवार की पार्टी पी.डी.पी. के साथ मिलकर सत्ता में आने की उम्मीद जगी तो भाजपा नेताओं ने किसी भी कीमत पर इस अवसर को न गंवाने की ठान ली। दोनों पार्टियों के बीच करीब 2 महीने के विचार-मंथन के बाद जो एजैंडा ऑफ अलायंस बनकर जनता के सामने आया, उसमें धारा 370 को हटाने, पश्चिमी पाकिस्तानी रिफ्यूजियों को नागरिकता प्रदान करने और विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन करके दोनों संभागों के बीच सत्ता संतुलन के जरिए जम्मू संभाग के साथ दशकों से हो रहे भेदभाव को समाप्त करने जैसे उन कुछेक मूल मुद्दों को तो गठबंधन सरकार का गठन होने से पहले ही एक झटके में दफन कर दिया गया था, जिन मुद्दोंं को आधार बनाकर भाजपा (पहले जनसंघ एवं प्रजा परिषद) पिछले 6 दशक से राजनीति करती आई थी। 

भाजपा द्वारा पी.डी.पी. के समक्ष समर्पण करने का सिलसिला सरकार बनने के बाद और भी तेज हो गया। 1 मार्च, 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सहयोगी भाजपा के राजनीतिक हित एवं ङ्क्षचताओं की परवाह न करते हुए जम्मू-कश्मीर में सुचारू एवं शांतिपूर्ण विधानसभा चुनाव का श्रेय पाकिस्तान, आतंकवादियों एवं अलगाववादियों को दे डाला और 2010 में तुफैल मट्टू की मौत के बाद कश्मीर घाटी में हुई भीषण पत्थरबाजी के मास्टरमाइंड मसरत आलम को रिहा कर दिया, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की काफी किरकिरी हुई। इसके बाद भाजपा को बैकफुट पर लाने के इरादे से तत्कालीन वित्तमंत्री डा. हसीब अहमद द्राबू ने माता वैष्णो देवी, पवित्र अमरनाथ गुफा एवं मचैल में चंडी माता के दर्शनों के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की हैलीकॉप्टर सेवा पर सर्विस टैक्स लगा दिया और स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय तक तमाम नेताओं की कोशिशों के बावजूद भाजपा समर्पण की मुद्रा में नजर आई और टैक्स वापसी नहीं हो पाई। 

जब प्राचीन आपशम्भू मंदिर में कुछ शरारती तत्वों ने तोड़-फोड़ की तो जम्मू के तत्कालीन जिला मैजिस्ट्रेट सिमरनदीप सिंह ने तोड़-फोड़ के आरोपी के खिलाफ जनसुरक्षा अधिनियम (पी.एस.ए.) के तहत मामला दर्ज करवाया लेकिन तत्कालीन राजस्व मंत्री सईद बशारत अहमद बुखारी ने आरोपी को पागल करार देते हुए पी.एस.ए. हटाने की घोषणा कर दी, तब भी भाजपा कुछ नहीं कर पाई। इसके बाद भाजपा तत्कालीन राजस्व मंत्री सईद बशारत अहमद बुखारी को ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट में संशोधन के लिए विवादास्पद विधेयक विधानसभा में पेश करने से नहीं रोक पाई। हालांकि, ‘पंजाब केसरी’ द्वारा इस विधेयक की खामियां उजागर किए जाने के बाद सकते में आई भाजपा ने बीच-बचाव के रास्ते ढूंढते हुए इसे सदन की चयन समिति को भेजे जाने की अनुशंसा कर दी। चयन समिति को भेजे जाने के बाद यह विवादित विधेयक अब पी.डी.पी. नेतृत्व के पास तुरुप का वह पत्ता है जिसे भाजपा से संबंध विच्छेद करने के लिए कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 

पी.डी.पी. नेताओं की कुटिल चालों से हर बार मात खाने के बावजूद भाजपा का समर्पण भाव समाप्त नहीं हुआ और उसने श्रीनगर-बडग़ाम एवं अनंतनाग-पुलवामा लोकसभा सीटों के उपचुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए। हालांकि, अनंतनाग-पुलवामा उपचुनाव को तो सुरक्षा कारणों से स्थगित कर दिया गया लेकिन श्रीनगर-बडग़ाम चुनाव में नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला विजयी रहे। नि:संदेह, इन उपचुनावों में भाजपा की जीत के कोई आसार नहीं थे लेकिन वह लोकसभा उपचुनावों में विभिन्न इलाकों से मिले वोटों के आधार पर अपने जनाधार का आकलन करके आगामी पंचायती राज संस्थाओं एवं शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव के मद्देेनजर बूथ स्तर पर अपनी रणनीति बना सकती थी। दिलचस्प बात यह है कि जिस पी.डी.पी. के लिए भाजपा ने यह ‘समर्पण’ किया था, उसने न तो अपने प्रत्याशियों की घोषणा के समय भाजपा को विश्वास में लिया और न ही प्रत्याशी घोषित करने के बाद भाजपा से समर्थन का कोई आग्रह किया था। 

दरअसल, भाजपा द्वारा उपचुनाव न लडऩे का निर्णय पार्टी के कश्मीर आधारित उन अवसरवादी नेताओं की सलाह पर लिया गया था, जो केन्द्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ जुड़कर तमाम प्रकार के राजनीतिक एवं आर्थिक लाभ तो लेना चाहते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर अपनी पकड़ साबित करने का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। मुफ्ती मोहम्मद सईद के बाद महबूबा मुफ्ती ने सत्ता संभाली तो भाजपा नेताओं की राय को दरकिनार करके मुख्यमंत्री निरंतर 35-ए को बरकरार रखने, पत्थरबाजों को आम माफी देने, गुज्जर-बकरवालों के लिए नई आदिवासी नीति बनाने और कोटरंका जैसे क्षेत्रों में ए.डी.सी. की नियुक्ति करके भाजपा के जनाधार वाले क्षेत्र में असंतोष पैदा करने जैसे एकतरफा निर्णय लेती आ रही हैं। 

हथियार छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने वाले आतंकवादियों के लिए वर्ष 2004 में पी.डी.पी.-कांग्रेस सरकार का नेतृत्व कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पुनर्वास नीति की घोषणा की थी, जिसमें सुरक्षा बलों के समक्ष आत्मसमर्पण करने वाले आतंकवादियों को 1.5 लाख रुपए का मुआवजा, 2 हजार रुपए प्रतिमाह मानदेय एवं उनसे बरामद किए गए हथियारों की कीमत देने का प्रावधान था। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता से चार कदम आगे बढ़ते हुए आतंकवादियों की मुआवजा राशि को 6 लाख रुपए, मानदेय को 4 हजार रुपए प्रतिमाह और हथियारों की कीमत में भारी-भरकम बढ़ौतरी करते हुए नई पुनर्वास नीति का मसौदा तैयार किया है। अब देखना है कि भाजपा इस नीति को रद्दी की टोकरी में डालने में कामयाब हो पाती है अथवा आतंकवादियों के लिए फिर से जश्न-ए-बहार के दिन लौट आते हैं।-बलराम सैनी

Pardeep

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