राष्ट्रप्रेम भाव प्रधान होना चाहिए

Tuesday, Jan 30, 2024 - 07:06 AM (IST)

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।। 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ये पंक्तियां स्पष्ट तौर पर देश प्रेम को एक सर्वोच्च भावना के रूप में उद्धृत करती हैं। राष्ट्रभक्ति उत्कृष्ट प्रेम का एक ऐसा पुनीत भाव है, जिसके समक्ष सभी प्राथमिकताएं नतमस्तक हो उठें। यह देश प्रेम ही तो था जिसने परतंत्र भारतवर्ष को प्रगाढ़ निष्ठासूत्र में कुछ ऐसे एकीकृत किया कि अंतत: फिरंगियों को देश छोड़कर जाना ही पड़ा। 

अगस्त माह को सुवासित करने वाले स्वतन्त्रता दिवस की बात हो अथवा सर्द जनवरी की ठिठुरन में केसरिया रंगत घोलने वाले गणतंत्र दिवस का जिक्र, राष्ट्रीय पर्वों को मनाने का सौभाग्य प्राप्त होना तभी संभव हो पाया, जब सामूहिक रूप से देशवासियों ने निजत्व से ऊपर उठकर केवल राष्ट्रीयता को अधिमान दिया। 

युवा देश का भविष्य हैं, देश के समग्र विकास में उनका विशेष योगदान रहता है किन्तु देशप्रेम की अविरल धारा से जोड़े बिना उनके सामथ्र्य का पूर्ण उपयोग हो पाना संभव नहीं। एक समय था, जब देशभक्ति  की पावन रसधारा संस्काररूप में स्वत: ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित हुआ करती थी। दादी-नानी की लोरियों में बसी असंख्य शौर्य गाथाएं स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों से परिचित करा, बालमन में देशप्रेम के अंकुर प्रस्फुटित करने में सहायक बनतीं। नवांकुरों के पल्लवित होने तक महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, अशफाक उल्ला खां सरीखे वीर-वीरांगनाओं की ओजस्विता एवं शूरवीरता नस-नस में अपना स्थान बना चुकी होती। यौवन के पदार्पण तक देशभक्ति  की महानता से अच्छा-खासा तादात्म्य स्थापित हो जाता, राष्ट्र पर सर्वस्व न्यौछावर करने का जज्बा ठाठें मार रहा होता। 

इस संदर्भ में वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन करें तो मौजूदा परिस्थितियां पूर्णत: प्रतिकूल प्रतीत होती हैं। अधिकांश युवाओं में देश के प्रति ‘सर्वस्व समर्पण’ वाला भाव किंचित मात्र भी दृष्टिगोचर नहीं होता। पाश्चात्य सभ्यता के प्रति बढ़ते रुझान में पारम्परिक मूल्य तिरोहित हो रहे हैं। एकल परिवार व्यवस्था अधिमान में न तो दादा-दादी को ही कोई स्थान प्राप्त है, न ही वंशानुगत किस्सा-कहानी संचारण में ही किसी की रुचि। तिलस्मी दुनिया के जगमगाते किरदारों के मध्य देश के वास्तविक नायक अपनी पहचान काफी हद तक खोते चले जा रहे हैं। वीरगाथाएं तो मानो पाठ्यक्रम का एक औपचारिक भाग मात्र बनकर रह गई हैं, जिनकी परिधि बहुधा आंकिक मूल्यांकन तक ही सीमित रहती है। यही कारण है कि यौवनकाल में प्रपात का रूप धारण करने वाली देश प्रेम रसधारा अपने प्रथम चरण में ही सूखने लगी है। अधिकतर राष्ट्र पर्वों पर ही उठने वाली देशभक्ति की गूंज अक्सर हमारे दैनिक क्रिया-कलापों में नजर नहीं आती। 

इसमें मुख्य कारण है अपने कत्र्तव्यों की अपेक्षा अधिकारों की ओर अधिक झुकाव होना। पाश्चात्य देशों से स्वदेश की तुलना करके व्यवस्थाओं को कोसने वाले लोग बहुतायत में मिल जाएंगे किन्तु राष्ट्रभक्त होने के नाते कत्र्तव्य निर्वहन में उनकी भूमिका क्या रही, इस बात पर चुप्पी साध लेंगे। दोष मात्र पालन-पोषण प्रक्रिया अथवा अधिकारमयी सोच का ही नहीं, बदलते परिवेश के लिए व्यवस्थाएं भी बराबर उत्तरदायी हैं। आजादी के वर्षों बाद भी यदि भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई आदि समस्याएं मुंह खोले खड़ी हैं तो सीमित दायरों तक नागरिकों का आक्रोषित होना भी स्वाभाविक है। जीवन की अनिवार्यता, रोजगार प्रबन्धन की ही बात करें तो आॢथक शोध संस्था ‘सैंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सी.एम.आई.ई.) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, जून 2022 में भारत की बेरोजागारी दर कुल कार्यबल का 7.8 फीसदी हो गई, कृषि सैक्टर में 1.3 करोड़ लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा। 

अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने की आदत हो या शहीद परिवारों की सुध बिसराने की बात अथवा समस्याओं के बाहुल्य से उपजा रोष; सभी अवस्थाएं आस्था को प्रभावित करती हैं। भौतिक आकर्षण हो अथवा व्यवस्थाओं से मोहभंग, विदेश पलायन का मूल कारण बनते हैं। संयुक्त  राष्ट्र के आॢथक-सामाजिक मामलों के जनसंख्या विभाग द्वारा जारी की गई ‘इंटरनैशनल माइग्रेशन, 2020’ रिपोर्ट के तहत प्रवासी संख्या में भारत पहले पायदान पर रहा। 2020 में देश से बाहर रहने वाले लोगों की संख्या 18 मिलियन अर्थात 1 करोड़ 80 लाख रही, जो प्रवासियों के मामले में सर्वाधिक पाई गई। 

राष्ट्र को एकतासूत्र में आबद्ध करने हेतु विविध प्रकार के सशक्त  माध्यमों द्वारा बच्चों-युवाओं को निज विचाराभिव्यक्ति  हेतु खुला मंच प्रदान किया जाना तथा राष्ट्र एवं प्रांत स्तरीय आयोजित कार्यक्रमों, समारोहों तथा प्रतियोगिता प्रतिभागिता के जरिए उनके हृदय में देशभक्ति  की रसधारा का  सिंचन करना अत्यावश्यक है। प्रेरक वीरगाथाओं के तहत विकसित हुआ बचपन, नि:संदेह, देश की भावी पीढ़ी के चरित्र निर्माण व नैतिक संस्कारों को दिशा प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। देश के भविष्य को ऐसे संस्कारों-कार्यक्रमों से जोडऩा वर्तमान काल की महती आवश्यकता है। 

विश्वसनीयता, विकास व विचारों में अटूट संबंध है। समुचित विकास ही विश्वसनीयता को ठोस आधार प्रदान करता है, जिससे सकारात्मक विचार गतिमान होते हैं तथा इसी वैचारिक धरा पर राष्ट्रभक्ति का बीज अंकुरित, पल्लवित एवं संवॢद्धत होता है। देश प्रेम प्रायोजित कार्यक्रम नहीं जो विशेष अवसरों/पर्वों पर ही उभरे बल्कि यह तो निश्छल भावना है जो सदैव धड़कन बनकर हृदय में बसा करती है। राष्ट्र से जुड़ाव बनाए रखने हेतु भावनाएं आवश्यक हैं किन्तु इनकी उपज तभी संभव होगी, जब व्यक्तिगत तौर पर स्वार्थपरायणता को तिलांजलि देने के साथ-साथ व्यवस्थात्मक स्तर पर भी कंटकों एवं उर्वरक अवरोधकों का निर्मूलीकरण तथा शुद्धिकरण संभव बनाया जाए। 

संपुष्टता हो अथवा संजीविता, क्षमता ईमानदार प्रयास से ही विकसित होती है। संवेदनात्मक स्तर पर मातृभूमि से जुड़ाव संभावनाओं के असंख्य द्वार खोल देता है एवं राष्ट्र विकास के उगातम आयाम स्थापित करने में सहायी बनता है। नवव्योम सृजन क्षमता एवं प्रतिबद्धता के पीछे मूल कारण रूप में जो भावना कार्य करती है, वह है देश प्रेम। इसे जीवन से कभी आलोपित न होने दिया जाए, गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर यही हमारा संकल्प हो।  

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