सांसद का काम नालियां और सड़कें बनाना नहीं

Monday, Mar 25, 2019 - 04:12 AM (IST)

इस देश की राजनीति की यह दुर्दशा हो गई है कि एक सांसद से ग्राम प्रधान की भूमिका की अपेक्षा की जाती है। आजकल चुनाव का माहौल है। हर प्रत्याशी गांव-गांव जाकर मतदाताओं को लुभाने में लगा है। उनकी हर मांग स्वीकार कर रहा है। चाहे उस पर वह अमल कर पाए या न कर पाए। 2014 के चुनाव में मथुरा में भाजपा उम्मीदवार हेमा मालिनी ने जब गांवों के दौरे किए, तो ग्रामवासियों ने उनसे मांग की कि वे हर गांव में आर.ओ. का प्लांट लगवा दें।

चूंकि वे सिनेतारिका हैं और एक मशहूर आर.ओ.कम्पनी के विज्ञापन में हर दिन टी.वी. पर दिखाई देती हैं। इसीलिए ग्रामीण जनता ने उनके सामने यह मांग रखी। इसका मूल कारण यह है कि मथुरा में 85 फीसदी भूजल खारा है और खारापन जल की ऊपरी सतह से ही प्रारंभ हो जाता है। ग्रामवासियों का कहना है कि हेमा जी ने यह आश्वासन उन्हें दिया था, जो आजतक पूरा नहीं हुआ। सही बात क्या है, यह तो हेमा जी ही जानती होंगी। 

जब सांसद निधि का विरोध हुआ
यह भ्रांति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना है, कानून बनाने में मदद करना है, न कि गली-मोहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बंद कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हमारे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के कई स्तर हैं। सबसे नीची इकाई पर ग्राम सभा और ग्राम प्रधान होता है। उसके ऊपर ब्लाक प्रमुख, फिर जिला परिषद। उसके अलावा विधायक और सांसद। यूं तो जिले का विकास करना चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों, विधायकों व सांसदों की ही नहीं, हर नागरिक की भी जिम्मेदारी होती है। परंतु विधायक और सांसद का मुख्य कार्य होता है, अपने क्षेत्र की समस्याओं और सवालों को सदन के समक्ष जोरदार तरीके से रखना और सत्ता और सरकार से उसके हल निकालने की नीतियां बनवाना। प्रदेश या देश के कानून बनाने का काम भी क्रमश: विधायक और सांसद करते हैं। 

बीमार चुनाव प्रक्रिया
जातिवाद, सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीति का अपराधीकरण व भ्रष्टाचार कुछ ऐसे रोग हैं, जिन्होंने हमारी चुनाव प्रक्रिया को बीमार कर दिया है। अब कोई भी प्रत्याशी अगर किसी भी स्तर का चुनाव लडऩा चाहे, तो उसे इन रोगों को सहना पड़ेगा। वर्ना कामयाबी नहीं मिलेगी। इस पतन के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार हैं, बल्कि मीडिया और जनता भी, जो निरर्थक विवाद खड़े कर चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति हमलावर रहते हैं। बिना यह सोचे कि अगर कोई सांसद या विधायक थाना-कचहरी के काम में ही फंसा रहेगा तो उसे अपनी कार्यावधि के दौरान एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलेगी, जिसमें वह क्षेत्र के विकास के विषय में सोच सके।

जनता को चाहिए कि वह अपने विधायक और सांसद को इन पचड़ों में न फंसा कर उनसे खुली वार्ताएं करें। दोनों पक्ष मिल-बैठकर क्षेत्र की समस्याओं की प्राथमिक सूची तैयार करें और निपटाने की रणनीति की पारस्परिक सहमति से बनाएं। फिर मिलकर उस दिशा में काम करें जिससे वांछित लक्ष्य की प्रप्ति हो सके। एक सांसद या विधायक का कार्यकाल मात्र 5 वर्ष होता है, जिसका तीन चैथाई समय केवल सदनों के अधिवेशन में बैठने पर निकल जाता है। एक चौथाई समय में ही उन्हें समाज की अपेक्षाओं को भी पूरा करना है और अपने परिवार को भी देखना है। इसलिए वह किसी के भी साथ न्याय नहीं कर पाता। दुर्भाग्य से दलों के कार्यकत्र्ता भी प्राय: केवल चुनावी माहौल में ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा वे अपने काम-धंधों में जुटे रहते हैं। इस तरह जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच खाई बढ़ती जाती है। ऐसे जनप्रतिनिधि को अगला चुनाव जीतना भारी पड़ जाता है। 

नागरिक समितियां बनाई जाएं
होना यह चाहिए कि दल के कार्यकत्र्ताओं को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों की समस्याएं सुलझाने में भी अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। इसी तरह हर बस्ती, चाहे वह नगर में हो या गांव में उसे प्रबुद्ध नागरिकों की समितियां बनानी चाहिएं, जो ऐसी समस्याओं से जूझने के लिए 24 घंटे उपलब्ध हो। मुंशी प्रेमचंद की कथा ‘पंच परमेश्वर’ के अनुसार इस समिति में गांव की हर जाति का प्रतिनिधित्व हो और जो भी फैसले लिए जाएं, वे सोच समझ कर सामूहिक राय से लिए जाएं। फिर उन्हें लागू करवाना भी गांव के सभी लोगों का दायित्व होना चाहिए।

हर चुनाव में सरकारें आती-जाती रहती हैं। सब कुछ बदल जाता है। पर जो नहीं बदलता, वह है इस देश के जागरूक नागरिकों की भूमिका और लोगों की समस्याएं। इस तरह का एक गैर-राजनीतिक व जाति और धर्म के भेद से ऊपर उठ कर बनाया गया संगठन प्रभावी भी होगा और दीर्घकालिक भी। फिर आम जनता को छोटी-छोटी मदद के लिए विधायक या सांसद की देहरी पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी। इससे समाज में बहुत बड़ी क्रांति आएगी। काश! ऐसा हो सके।-विनीत नारायण

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