पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट में

Tuesday, Apr 10, 2018 - 04:11 AM (IST)

गत 4 महीनों में पाकिस्तानी रुपए का दूसरी बार अघोषित अवमूल्यन इस बात का स्पष्ट संकेत है कि देश की अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट में है। कोई हैरानी की बात नहीं कि आर्थिक पंडित यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि इस्लामाबाद को शीघ्र ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) से एक अन्य बेलआऊट के लिए बातचीत करनी पड़ेगी। 

पूर्व वित्त मंत्री हफीज पाशा ने कुछ माह पूर्व एक सैमीनार में बोलते हुए भविष्यवाणी की थी कि सितम्बर तक सरकार के पास विदेशी मुद्रा समाप्त हो जाएगी। उन्होंने तर्क दिया कि आई.एम.एफ. से कड़ी शर्तों के साथ एक अन्य बेलआऊट के लिए बातचीत करनी होगी। वित्त वर्ष 2018 के पहले 8 महीनों (जुलाई से फरवरी) में चालू खाते का घाटा 10.82 अरब डालर तक पहुंच गया जो वित्त वर्ष 2017 की समाप्ति पर जून 2017 में 12.4 अरब डालर था तथा वित्त वर्ष 2016 में महज 4.86 अरब डालर। इस वित्त वर्ष के अंत तक इसके 15.7 अरब डालर तक पहुंच जाने की आशंका है। विदेशी मुद्रा के कम होते भंडार के कारण सरकार को रुपए को गिरने देने के लिए मजबूर होना पड़ा। विगत  वर्षों के विपरीत स्टेट बैंक रुपए को कृत्रिम रूप से स्थिर रखने के लिए अब अमरीकी डालरों को बाजार में फैंकने की स्थिति में नहीं है। 

इसलिए एक स्थिर तथा फलती-फूलती पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ तथा उनके द्वारा चुने गए वित्त मंत्री इसहाक डार के आॢथक सिद्धांतों की आम जनता के सामने हवा निकल गई। दोनों ही अब सत्ता से बाहर हैं। मगर उनकी खोखली नीतियों के प्रभाव पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का लम्बे समय तक पीछा करते रहे। शरीफ तथा डार दोनों ने इस बात पर जोर दिया था कि रुपए के साथ-साथ डालर की कीमत को लेकर किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा इसलिए निर्यात लाबियों द्वारा मचाया गया शोर बहरे कानों तक पहुंचने जैसा था। वित्त एवं वाणिज्य मंत्रालयों तथा विभिन्न दावेदारों के बीच कई बैठकें डार की जिद को तोडऩे में असफल रहीं। 

गत वर्ष शरीफ के सत्ता से बाहर होने से पहले रुपए की कीमत पर चर्चा करने के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई गई। प्रमुख बैंकरों, आर्थिक विशेषज्ञों तथा निर्यातकों ने जोरदार तरीके से तर्क दिया कि वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में चीन, भारत तथा बंगलादेश जैसे पकिस्तान के प्रतिस्पर्धियों ने अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन कर दिया है अत: इस तरह के माहौल में पाकिस्तानी निर्यातक कैसे स्पर्धा कर सकते हैं? उत्पादन की उच्च लागत तथा रुपए के कारण गिरते निर्यात की वजह से शरीफ के 4 वर्षों के कार्यकाल में लगभग 5 अरब डालर का नुक्सान हुआ। व्यवहार्यता के अभाव के कारण 120 कपड़ा मिलें अथवा पाकिस्तान की कपड़ा क्षमता का 33 प्रतिशत बंद करना पड़ा। इस समय के दौरान कपड़ा क्षेत्र में लगभग 20 लाख नौकरियां खत्म हो गईं। 

स्वाभाविक है कि इस तरह की ढिलमुल नीतियों के चलते निर्यात भी ढीला रहा जिस कारण पाकिस्तान तेजी से एक आयात आधारित अर्थव्यवस्था बन रहा है। आयात के लिए दो महीने से अधिक धन उपलब्ध करवाने हेतु पर्याप्त विदेशी मुद्रा न होने के कारण किसी भी समय स्रोतों के मामले में एक जोरदार झटका सहन करना पड़ सकता है। 62 अरब डालर लागत के सी.पी.ई.सी. (चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) के दूरगामी लाभों पर ध्यान न दें तो अभी यह भी चालू खाते के घाटे में अपना योगदान डाल रहा है। यहां यह स्वीकार करना जरूरी है कि जी.डी.पी. (सकल घरेलू उत्पाद) में निरंतर वृद्धि हुई है। मगर इस वर्ष जी.डी.पी. की विकास दर का अब 5.1 प्रतिशत अनुमान लगाया जा रहा है, जबकि पहले इसका 6 प्रतिशत होने का अनुमान था। ऐतिहासिक तौर पर हमारे सत्ता वर्ग के अक्खड़ तथा अहंकारपूर्ण बर्ताव ने हमारी आर्थिक नीतियों को नुक्सान पहुंचाया है। यहां ऊंचे दावों तथा जमीनी हकीकतों में बहुत अंतर है। 

मैं 90 के दशक के प्रारम्भ में नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री के तौर पर पहले कार्यकाल के दौरान उनके साथ दावोस की यात्रा को काफी याद करता हूं। ज्यूरिख में आयोजित एक कम उपस्थिति वाली निवेश कांफ्रैंस में तत्कालीन वित्त मंत्री सरताज अजीज ने बढ़-चढ़कर कहा था कि पाकिस्तान एक आगे बढ़ता हुआ आर्थिक ‘बाघ’ है, जो एक ऐसा शब्द है जिसे तेजी से विकास कर रही दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मगर दुख की बात है कि आई.एम.एफ. के कई बेलआऊट्स के बाद एक के बाद एक आने वाली पाकिस्तानी सरकारें अपनी तेजी से बढ़ रही जनसंख्या की मूल आर्थिक जरूरतों को भी पूरा करने में असफल रही हैं। 

जी.डी.पी. में करों की हिस्सेदारी काफी कम रही है क्योंकि सरकारें उन लोगों पर टैक्स लगाने में अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने में असफल रही हैं, जो कर चुकाने में सक्षम हैैं। इसके अतिरिक्त शरीफ की आर्थिक टीम ये दावे करती रही कि पाकिस्तानी स्टॉक मार्कीट्स विश्व में सबसे अच्छी कारगुजारी दिखा रही हैं। मगर अब जब ये सर्वाधिक खराब कारगुजारी वाली बन गई हैं तो सब पत्थर की तरह चुप हैं। दुख की बात है कि ऊर्जा क्षेत्र में अत्यंत प्रगति तथा विशाल ढांचागत परियोजनाओं जिनमें मैट्रो ट्रेन्स, हाईवेज व मोटरवेज शामिल हैं, के बावजूद सामाजिक क्षेत्र पर खर्चा बहुत कम किया गया है।-आरिफ निजामी

Pardeep

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