कूटनीतिक तौर पर बहुत बुरी स्थिति में फंस गया है पाकिस्तान

Tuesday, Jun 28, 2016 - 01:43 AM (IST)

(आरिफ निजामी): आजकल पाकिस्तान में हर ओर एक ही बात का रुदन सुनाई देता है कि अन्तर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर पाकिस्तान अलग-थलग होकर रह गया है। हमारे सिविलियन और सैन्य नीति निर्धारकों को भी यह अप्रिय सच्चाई माननी पड़ रही है कि चीन को छोड़कर पाकिस्तान के बहुत ही कम विश्वसनीय मित्र रह गए हैं। 

 
पाकिस्तान में कोई अधिकारी और नेता यह मानने को तैयार नहीं कि कई वर्षों तक अपनाई गई असंतुलित और दूरदृष्टिविहीन नीतियों का नतीजा आखिर इसी रूप में निकलना था। लेकिन हर स्तर पर यही रोना-धोना सुनाई देता है कि पाकिस्तान के साथ ज्यादती हो रही है। 
 
हाल ही में ब्लूचिस्तान में अमरीकियों द्वारा ड्रोन हमला करके मुल्ला मंसूर को मार गिराना यह सिद्ध करता है कि इस्लामाबाद के मामले में अमरीका अपना धैर्य खोता जा रहा है। ब्लूचिस्तान में यह अमरीका का पहला ड्रोन हमला था और इसे बिल्कुल वाजिब रूप में पाकिस्तान की प्रभुसत्ता का उल्लंघन करार दिया गया है। लेकिन अनेक वर्षों से अमरीका पाकिस्तान की मिलीभगत से ही आतंकियों का गढ़ समझे जाने वाले इसके इलाकों में ड्रोन हमलों का कार्यक्रम चला रहा है, इसलिए इतनी देर बाद प्रभुसत्ता के उल्लंघन की शिकायत करना कोई अर्थ नहीं रखता। 
 
जब भारतीय प्रधानमंत्री वाशिंगटन में कूटनीतिक सफलता के झंडे गाड़ रहे थे तो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लंदन के अस्पताल में बाईपास सर्जरी करवा रहे थे, इसलिए पाकिस्तानी सेना ने स्थिति अपने हाथों में लेने का निर्णय लिया। पाकिस्तानी सेना प्रमुख ने गत मंगलवार को वित्त मंत्री इसहाक डार, विदेश मामलों के सलाहकारों तथा रक्षा मंत्री को सेना मुख्यालय में तलब किया। यह कवायद सेना की चौधराहट दिखाने के साथ-साथ इस बात को ध्यान में रखकर की गई थी कि सिविल नेतृत्व को स्थिति बिगाडऩे का दोष देकर लताड़ लगाई जाए। लेकिन क्या स्थिति बिगाडऩे में बेचारे मंत्रियों का ही दोष है? 
 
वाशिंगटन में नरेन्द्र मोदी की यात्रा  इतनी सफल रही कि भारत और अमरीका दोनों ने पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि वह हर प्रकार के आतंकवादियों को शरण दे रहा है। भारत-अमरीका घोषणापत्र में एक बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान को खास तौर पर उन संगठनों के विरुद्ध कार्रवाई करने को कहा गया है, जो केवल भारत के विरुद्ध ही लक्षित हैं। इससे स्पष्ट है कि पाकिस्तान के इस रुदन पर किसी भी देश को विश्वास नहीं आ रहा कि वह स्वयं आतंकवाद  से पीड़ित है, न कि आतंकवाद का विस्तारक। 
 
अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हो रही पाकिस्तान की किरकिरी के लिए नवाज शरीफ को ही दोष दिया जा रहा है क्योंकि वह पूर्णकालिक विदेश मंत्री तैनात करने की बजाय खुद ही इस मंत्रालय से चिपके हुए हैं। उनकी आलोचना बिल्कुल सही है लेकिन दोष केवल उन्हीं का नहीं है क्योंकि हर कोई जानता है कि महत्वपूर्ण क्षेत्रीय और विदेश नीति से संबंधित मामलों पर सेना की ही मर्जी चलती है। इसलिए सिविलियन नेतृत्व की सही या काल्पनिक अक्षमता के लिए आलोचना करने की बजाय सैन्य नेतृत्व को भी आत्ममंथन करना चाहिए। जितनी जल्दी पाकिस्तान के शासकों को यह बोध हो जाता है कि उनकी वर्तमान नीतियां गैर-उपजाऊ हैं और पाकिस्तान को पतन की ओर लेकर जा रही हैं, उतना ही बेहतर होगा। 
 
भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अपना एक-एक दाव कमाल की कामयाबी से खेल रहे हैं। एक ओर तो वह बहुत आक्रामक ढंग से आर्थिक एवं व्यापार डिप्लोमेसी के रास्ते पर अग्रसर हैं, जिसके बहुत ही उल्लेखनीय परिणाम निकले हैं; दूसरी ओर वह बहुत सफलता से पाकिस्तान की ऐसी तस्वीर पेश कर रहे हैं कि यह आतंकवाद का शिकार नहीं बल्कि आतंकवाद फैलाने वाला सरगना है। 
 
अभी कुछ ही वर्ष पूर्व अमरीका के जिन सांसदों ने यह सिफारिश की थी कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिया गया अमरीकी वीजा रद्द किया जाए, ऐन उन्हीं लोगों ने अमरीकी कांग्रेस में खड़े होकर प्रधानमंत्री बन चुके नरेन्द्र मोदी के लिए काफी देर तक तालियां बजाईं। अमरीका ने ऐसा करके नरेन्द्र मोदी पर कोई एहसान नहीं किया बल्कि यह दुनिया में भारत के बढ़ते दबदबे का प्रमाण है।
 
इस्लामाबाद को चारों खाने चित्त करते हुए भारत अब परमाणु आपूर्तिकत्र्ता ग्रुप (एन.एस.जी.) की सदस्यता हासिल करने के ऐन कगार पर पहुंच चुका है। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने भारत की इस दावेदारी का जोरदार समर्थन किया है। यहां तक कि मैक्सिको और स्विट्जरलैंड में मोदी के केवल कुछ देर तक रुकने का नतीजा यह हुआ है कि इन दोनों देशों ने फैसला किया है कि वे एन.एस.जी. में भारत के प्रवेश का विरोध नहीं करेंगे। 
 
इस्लामाबाद खुद को केवल इस बात से तसल्ली दे सकता है कि चीन एन.एस.जी. में भारत के प्रवेश का गला फाड़-फाड़ कर विरोध कर रहा है। बेशक पाकिस्तान ने भी बहुत पिछड़ कर गत माह एन.एस.जी. की सदस्यता हासिल करने के लिए आवेदन किया है, लेकिन उसे भी सर्वसम्मति बनने के बाद ही दाखिल किया जा सकता है। कुछ भी हो, फिलहाल चीन शायद पाकिस्तान को बेइज्जत होने से बचाता रहेगा। 
 
हाल ही में पाकिस्तान की मिजाजपुर्सी के लिए अमरीका ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के लिए अपने प्रतिनिधि रिचर्ड ओल्सन सहित दो उच्च पदाधिकारियों को इस्लामाबाद भेजा। बेशक सरताज अजीज ने इस शिष्टमंडल को ब्लूचिस्तान में अमरीका द्वारा पाकिस्तान की प्रभुसत्ता के उल्लंघन एवं भारतीय गुप्तचर एजैंसी रॉ की गतिविधियों के संबंध में प्रमाण प्रस्तुत किए, तो भी अमरीका की नजरों में पाकिस्तान अपनी खोई हुई विश्वसनीयता बहाल नहीं कर पाया। 
 
ऐसा न कर पाने का सबसे प्रमुख कारण यह है कि अमरीका चाहता है कि इस्लामाबाद एक ओर तो तालिबानी नेतृत्व को वार्तालाप की मेज पर लेकर आए और इसके समानांतर ही हक्कानी नैटवर्क का सफाया कर दे। अमरीकी नीति निर्धारकों को यह समझ है कि पाकिस्तान या तो ऐसा करने की इच्छा नहीं रखता या फिर इसके अंदर कुछ कर पाने की क्षमता ही नहीं है। इसी बीच अफगानिस्तान व पाकिस्तान के लिए अमरीका के पूर्व दूत जालमय खलीलजाद ने ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में पाकिस्तान पर जोरदार हल्ला बोलते हुए लिखा है कि अफगानिस्तान पर अपना वर्चस्व सुनिश्चित करने और भारत-अफगान रिश्तों को सीमित करने की मंशा से ही पाक ने तालिबानियों के बहाने अफगानिस्तान के विरुद्ध छद्म युद्ध छेड़ा हुआ है।
 
कुछ भी हो, सच्चाई यही है कि पाकिस्तान कूटनीतिक तौर पर एक ऐसी स्थिति में फंस गया है, जिसमें से निकलने का उसे रास्ता नहीं सूझ रहा। एक ओर तो भारत पर लक्षित अपनी वर्तमान नीतियों को जारी रखना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है, दूसरी ओर ब्लूचिस्तान में ‘रॉ’ द्वारा फैलाई गई अफरा-तफरी का उसका आरोप वाशिंगटन या काबुल दोनों पर ही प्रभावी सिद्ध नहीं हो रहा क्योंकि पाकिस्तान स्वयं भारत और अफगानिस्तान दोनों के विरुद्ध आतंकी कार्रवाइयां कर रहे जेहादियों को पनाह और सहायता दे रहा है। इस स्थिति में से उबरने के लिए पाकिस्तान के सैन्य और सिविल नेतृत्व दोनों को ही ठंडे दिमाग से आत्मचिन्तन करना होगा।       
 
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