‘प. बंगाल में एक मुट्ठी चावल से सत्ता पाना चाहती है भाजपा’

Tuesday, Jan 12, 2021 - 05:05 AM (IST)

9 जनवरी को भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने बंगाल के पूर्वी वर्धमान जिले से एक मुट्ठी चावल यात्रा शुरू की। 5 किसानों से एक-एक मुट्ठी चावल इकक्टा किया। इससे पहले उन्होंने यहां के सदियों पुराने राधा-गोविंद मंदिर में पूजा भी की। मथुरा मंडल नाम के किसान के यहां भोजन भी किया।

अब बंगाल के 40 हजार गांवों में भाजपा कार्यकत्र्ता ‘एक एक मुट्ठी चावल’ जमा करेंगे। इकट्ठे चावलों से सामूहिक भोज का आयोजन किया जाएगा। सबके घरों से मिले चावल से भोजन पकाने का अर्थ है, सभी जातियों, धर्मों की न केवल समरसता, बल्कि ऊंच-नीच के भाव का खात्मा भी। इसके अलावा कृष्ण कथा और कृष्ण भक्ति धारा से जोड़कर वैष्णवों और सनातनियों का समर्थन प्राप्त करना। इस तरह की इमोशनल पालिटिक्स भाजपा का हमेशा से हिस्सा रही है। बंगाल के चुनाव में एक मुट्ठी चावल अभियान भाजपा को सफलता दिला सकता है। 

पता नहीं, भाजपा के विरोधी इस यात्रा का महत्व समझते भी हैं कि नहीं, लेकिन इसके जबरदस्त निहितार्थ हैं। एक मुट्ठी चावल का अर्थ बंगाल में वही है जो उत्तर भारत में एक मुट्ठी चने का। एक मुट्ठी भात, माने पेट भर खाना। बंगाल का प्रमुख खाद्य पदार्थ चावल ही है। चावल, माछ या चावल और आलू का झोल वहां साहित्य में भी पर्याप्त मात्रा में दिखाई देता है। इसके अलावा राधा गोविंद मंदिर से यात्रा की शुरूआत, मथुरा नाम के किसान के घर भोजन यानी कि कृष्ण भक्ति, चैतन्य महाप्रभु के प्रेम की भक्ति को  भाजपा और उसकी सत्ता में भागीदारी से जोड़ना। हम जानते हैं कि पारम्परिक रूप से बंगाल के लोग शक्ति के उपासक हैं, जबकि वैष्णव सम्प्रदाय प्रेम की बात करता है। कृष्ण भक्ति और प्रेम की भी परंपरा है बंगाल में।

बल्कि एक तरह से सुदामा की कथा से भी भाजपा खुद को जोड़ रही है। आपको याद होगा कि ममता बनर्जी ने भाजपा को बाहरी लोगों की पार्टी कहा था। एक तरह से ममता बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के जमाने से चले आ रहे पुराने नारे सन ऑफ द सॉयल को दोबारा जीवित करना चाहती हैं। जबकि भाजपा खुद को अखिल भारतीय पार्टी कहती है। सुदामा की कथा में यही तो है कि कृष्ण वृंदावन-मथुरा को छोड़कर चले गए हैं। वे अब द्वारिका के राजा हैं। द्वारिकाधीश हैं। द्वारिका माने गुजरात। उत्तर प्रदेश के ब्रजमंडल के सुदामा पत्नी के आग्रह पर कृष्ण से मिलने द्वारिका जाते हैं। उन जैसा गरीब ब्राह्मण भला कृष्ण जैसे सम्राट को क्या दे सकता है। वह अपनी पोटली में थोड़े से चावल बांधकर ले जाते हैं। जब द्वारपाल आकर कृष्ण को सूचना देता है कि एक गरीब ब्राह्मण आया है जो खुद का नाम सुदामा बता रहा है तो कृष्ण दौड़े चले आते हैं। 

सुदामा को अपने सिंहासन पर बिठाते हैं। खुद उनके पांव धोते हैं। कृष्ण की मनोदशा को इन पंक्तियों से बेहतर बयां नहीं किया जा सकता कि ‘‘देख सुदामा की दीन-दशा करुणा करके करुणानिधि रोए। वह कृष्ण जो प्रेम के देवता हैं। जिनकी बांसुरी की जादुई धुन से बड़े से बड़े लोग ङ्क्षखचे चले आते हैं, वह अपने मित्र की दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं।’’ कृष्ण, सुदामा से कहते हैं कि ‘‘भाभी ने जो कुछ मेरे लिए भेजा है, दो।’’ मगर सुदामा संकोच के कारण अपनी चावलों की पोटली छिपाने लगते हैं। कृष्ण जबरदस्ती पोटली से एक मुट्ठी चावल छीनकर खा लेते हैं। दूसरी मुट्ठी भी खाते हैं। जैसे ही तीसरी मुट्ठी खाने की कोशिश करते हैं, रुक्मिणी उनका हाथ पकड़ लेती हैं।

कहती हैं कि आप दो लोक पहले ही अपने मित्र को दे चुके हैं। तीसरा भी दे दिया, तो हम कहां जाएंगे। सोचिए कि सुदामा के चावल खाने मात्र से कृष्ण उन्हें दो लोक दे देते हैं। इसमें कृष्ण की उदारता तो है ही, अपने मित्र के प्रति न केवल लगाव बल्कि उसे सब कुछ सौंप देने की सदइच्छा भी है। इसी कथा को भातीय जनता पार्टी बंगाल में अपनी तरह से लिख रही है। वह बंगाल के चावल से ही खुद की सत्ता अपने नाम लिख लेना चाहती है।-क्षमा शर्मा
 

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