‘स्वतंत्रता’ के प्रति हमारा बेरहमी भरा रुख

Sunday, Jul 05, 2020 - 04:32 AM (IST)

यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तार हो जाता है, तो उसने कुछ गलत किया हो। यदि किसी व्यक्ति की जमानत रद्द हो जाती है तो वह कसूरवार हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति न्यायिक हिरासत (पुलिस हिरासत से भिन्न) में भेजा जाता है तो  वह जेल होने के साथ सजा का हकदार है। यह हमारी उस पवित्र अधिकार के नाम से बुलाई जाने वाली ‘स्वतंत्रता’ के प्रति बेरहमी भरा रुख है। स्वतंत्रता के प्रति हमारे नकारात्मक रवैये से इसे नष्ट कर दिया जाता है जिससे अमरीका के मिन्नीसोटा में जार्ज फ्लाइड जैसी घटना या फिर तमिलनाडु में जयराज तथा फिनिक्स जैसी घटनाएं होती हैं। 

जयराज तथा फिनिक्स को हिरासत में दी जाने वाली कथित यातना का पहला मामला नहीं है।  1996 में सुप्रीमकोर्ट के 2 जजों ने पश्चिम बंगाल के डी.के. बासु तथा उत्तर प्रदेश के ए.के. जौहरी के पत्रों का संज्ञान लिया जिसमें निरंतर हिरासत में यातना की बात कही गई थी। 18 दिसम्बर 1996 को एक ऐतिहासिक निर्णय (डी.के. बासु बनाम स्टेट ऑफ वैस्ट बंगाल, (1997) 1 एस.सी.सी. 436) दिया गया। इस  निर्णय की कई बार पुष्टि की गई। फिर भी दुख इस बात का है कि 24 वर्षों के बाद भी कुछ नहीं बदला। 

बहुत ज्यादा पुलिस
एक औसतन व्यक्ति सरकार में विश्वास रखता है क्योंकि  सरकार लोगों के साथ निपटती है और यह मानती है कि पुलिस अधिकारी, एक अभियोक्ता, एक मैजिस्ट्रेट, एक जज या फिर एक डाक्टर हमेशा कानूनी ढंग से कार्रवाई करता है। लार्ड डैनिंग के कथन के अनुसार, ‘‘कोई एक व्यक्ति यह नहीं मान सकता कि कार्यकारी कोई पाप नहीं कर सकती  जोकि हम सबसे साधारण तौर पर हो जाता है। आप यह यकीन रखिए कि समय-समय पर वे कुछ ऐसी चीजें कर जाती है जो नहीं होनीचाहिए या फिर वह चीजें नहीं करती जो होनी चाहिए थी।’’ 

हिरासत में यातना का बीज हिरासत के बाद नहीं बोया जाता। इसके विभिन्न चरण होते हैं जैसे गिरफ्तारी, जमानत का रद्द होना, पुलिस हिरासत की अनुमति या फिर न्यायिक हिरासत में रिमांड। प्रत्येक चरण में कानून स्पष्ट होता है मगर इसको लागू करना कई बार गलत या फिर भ्रष्ट हो सकता है। यहां पर हम डी.के.  बासु की गिरफ्तारी के साथ अपनी बात की शुरूआत करते हैं। कोर्ट ने देखा कि हमने गिरफ्तारी का अधिकार नियमित पुलिस के अलावा कई अथॉरिटियों को दे रखा है जैसे सी.बी.आई., ई.डी., सी.आर.पी.एफ., सी.आई.डी., बी.एस.एफ., ट्रैफिक पुलिस, इंकम टैक्स इत्यादि। इनमें से कुछ एजैंसियां दावा करती हैं कि वे ‘पुलिस’ नहीं है तथा वह आपराधिक प्रक्रिया के कोड से बाध्य नहीं है। 

मिसाल के तौर पर ई.डी.  ने माना है कि वह ‘केस डायरी’ को कायम रखने के प्रति बाध्य नहीं हैं। हमने हालातों को निॢदष्ट नहीं किया जब गिरफ्तारी की गई थी। नैशनल पुलिस कमिशन (थर्ड रिपोर्ट) ने माना कि 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां गैर-जरूरी थीं। जजों ने रिपोर्ट में दिशा-निर्देशों की अनुशंसा को कोट किया और खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा, ‘‘पुलिस कमिशन की सिफारिशें मौलिक अधिकारों, स्वतंत्रता तथा निजी आजादी की संवैधानिक सहगामियों को दर्शाती है। ये सिफारिशें हालांकि अभी तक कोई भी वैधानिक स्थिति प्राप्त नहीं कर पाई।’’ 

गिरफ्तारी तथा डिमांड
पहला सुधार यह है कि कई अथॉरिटियों से गिरफ्तारी का अधिकार छीन लिया जाए। दूसरा यह घोषित किया जाए कि कोई भी अथॉरिटी जिसके पास गिरफ्तार करने की शक्ति हो वह ‘पुलिस अधिकारी’ है। तीसरा कठोरतापूर्वक कुछ निॢदष्ट हालातों से उपजे मामलों में गिरफ्तारी का अधिकार सीमित कर दिया जाए। याद रखें कि जयराज तथा फिनिक्स को लॉकडाऊन के दौरान तय सीमा अवधि के 15 मिनट बाद तक दुकान खोलने के लिए कथित तौर पर गिरफ्तार किया गया था। 

दूसरा चरण प्रस्तुत करना तथा रिमांड लेना है। ऐसी हिरासत की जरूरत को शायद ही समझने के बिना एक मैजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट जज पुलिस हिरासत की अनुमति देगा। पुलिस हिरासत की समाप्ति के बाद (जो ज्यादा से ज्यादा 15 दिनों की हो) मैजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट जज निरअपवाद रूप से गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में भेजेगा। कानून बहुत ज्यादा भिन्न है। 

मन्नु भाई रत्ती लाल, (2013) 1 एस.सी.सी. 314 के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने कहा, ‘‘मैजिस्ट्रेट वास्तविक परिदृश्य को मान लेगा तथा अपने दिमाग का इस्तेमाल कर यह कहेगा कि क्या पुलिस हिरासत के लिए वारंट है या फिर न्यायिक रिमांड के लिए कोई समर्थन मिलता है? या फिर किसी भी रिमांड की जरूरत ही नहीं। ऐसे चंद मैजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट जज देखे गए हैं जो इन बातों को दिमाग में रखते हैं।’’ ‘‘तीसरा चरण गिरफ्तार,हिरासत में  रिमांड पर लिए हुए व्यक्ति की डाक्टरी जांच का है। यदि जयराज तथा फिनिक्स एक डाक्टर द्वारा सही ढंग से जांचे गए होते तब उन्होंने अच्छे  स्वास्थ्य की क्लीनचिट कैसे दे दी?’’ 

अपवाद बन जाते हैं नियम
चौथा चरण जमानत का है। कुछ मैजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट जज अभियोक्ता के विरोध पर जमानत रद्द कर देते हैं। यह पहली या फिर दूसरी सुनवाई पर हो जाता है। प्रत्येक जेल जांच झेल रहे या फिर अंडरट्रायल कैदियों से भरी पड़ी है। उन्हें जमानत मिल जानी चाहिए। बालाचंद (1977) 4 एस.सी.सी. 308 मामले में कृष्णा अय्यर जे. ने एक व्यवस्था दी। तब से लेकर जमानत ही कानून है और जेल एक अपवाद है। यही एक पवित्र सिद्धांत बन कर रह गया है। हालांकि कुछ मैजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट जज नियम को लागू करते हैं। वह अपवाद को लागू कर खुश होते हैं। जयराज तथा फिनिक्स मामले में  उन दोनों को किसी भी हिरासत चाहे वह पुलिस या फिर न्यायिक होती, रिमांड नहीं दिया जाना चाहिए था तथा प्रस्तुति पर उन्हें जमानत दे दी जानी चाहिए थी। 

निजी स्वतंत्रता के संदर्भ में कानून थ्यूरी में रहते हैं तथा दूसरे अमल में  लाए जाते हैं। शुक्र है कि अब स्थितियां बदल रही हैं। हाल ही में सुशीला अग्रवाल ( 29 जनवरी 2020) के मामले में एक संवैधानिक पीठ ने दूसरे संवैधानिक पीठ की गुरबख्श सिंह सिब्बिया, (1980) 2 एस.सी.सी. 565 मामले में दी गई व्यवस्था की फिर से पुष्टि कर दी तथा हिम्मत दिखाते हुए सुप्रीमकोर्ट की 8 व्यवस्थाओं को खारिज कर दिया। इसके साथ ही अन्य व्यवस्थाओं में व्यक्त इसे एक ‘अच्छा कानून न होना’ भी घोषित कर दिया। गलती कर देना ही मानव कहलाता है और इसे सही करना न्याय कहलाता है। ऐसे जयराज तथा फिनिक्स जैसे कई लोग हैं जिन्हें अभी भी उम्मीद है कि मरने से पहले उन्हें न्याय अवश्य मिलेगा।-पी. चिदम्बरम

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