प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारियां ‘आधी-अधूरीं’

Tuesday, Dec 05, 2017 - 03:41 AM (IST)

हमारे देशवासी देश की दशा पर आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि उत्तर भारत प्रदूषण से त्रस्त है तो दक्षिण भारत भयानक चक्रवात से जूझ रहा है। किसी ने ठीक ही कहा है कि दुख अपने साथ विपत्ति लेकर आता है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में विषैली गैसों का प्रदूषण अत्यधिक बढ़ गया है, जबकि तमिलनाडु, केरल और लक्षद्वीप ‘ओखी चक्रवात’ की चपेट में हैं। इस चक्रवात में अब तक कई लोगों की जान चली गई है। 

भारतीय नौसेना ने तमिलनाडु में 18 मछुआरों, कन्याकुमारी में 250 परिवारों और त्रिवेन्द्रम में भी 59 परिवारों को बचाया है। तटरक्षक बल ने 13 नौकाओं और 58 कर्मचारियों की तलाश के प्रयास तेज कर दिए हैं। इस विपदा पर राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया आशानुरूप रही है। वे अपने आधे-अधूरे कार्यों के लिए अपनी प्रशंसा कर रही हैं और कह रही हैं कि हम समुद्र में फंसे मछुआरों के बचाव के लिए हरसंभव कदम उठा रहे हैं, जबकि इन सरकारों का दृष्टिकोण आपराधिक उदासीनता वाला रहा है और उन्होंने तभी कदम उठाए जब उनकी जानें चली गईं। 

पिछले 4 वर्षों से यही स्थिति देखने को मिल रही है, जब तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, आंध्र, ओडिशा, अंडेमान निकोबार आदि में चक्रवात वर्धा, नाडा और क्यांत ने तबाही मचाई। 2015 में गुजरात में आए चक्रवात से राज्य में बाढ़ की स्थिति बनी। 2014 में चक्रवात ‘हुद-हुद’ के कारण पूर्वी भारत में तबाही मची और 2013 में ओडिशा में चक्रवात ‘फाइलिन’ के कारण जानमाल का नुक्सान हुआ। किन्तु इस आपदा से निपटने के लिए हमारी तैयारियां आधी-अधूरी रहीं। आपदा से निपटने के लिए बुनियादी तैयारियों की बजाय केन्द्र और राज्य सरकारें इस बात पर निर्भर रहीं कि अगली आपदा कम विनाशक होगी। हमारे शासकों ने मूलभूत सुविधाओं को भी लागू नहीं किया और दीर्घावधि उपाय भी नहीं किए। 

भारत की 76 प्रतिशत समुद्री तटरेखा चक्रवात और सुनामी प्रवण क्षेत्र है। पूर्वी और गुजरात के तट चक्रवात प्रवण हैं। देश का 59 प्रतिशत भाग भूकम्प, 10 प्रतिशत बाढ़ और 68 प्रतिशत भाग सूखा प्रवण है। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना’ बनाई है जिसके अंतर्गत आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं निवारण, उपशमन, प्रतिक्रिया, बचाव आदि का ढांचा बनाया गया है और केन्द्र, राज्य, जिला तथा पंचायत स्तर पर सभी अधिकारियों के दायित्व निर्धारित किए गए हैं। आपदा प्रबंधन के लिए आपदा राहत कोष से राशि दी जाती है। किन्तु अधिकतर राज्य सरकारों द्वारा इस राशि का उपयोग आपदा प्रबंधन की बजाय अन्य कार्यों के लिए किया जाता है और प्राधिकारियों का दृष्टिकोण कामचलाऊ है तथा आपदा समाप्त होने के बाद पूर्ववत स्थिति बन जाती है। 

जल संसाधन और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालयों के बीच समन्वय का अभाव है। हर मंत्री और अधिकारी अपने क्षेत्राधिकार की रक्षा करता है। उनमें समन्वय तो दूर छोटी-छोटी सूचनाओं को भी सांझा नहीं किया जाता है। आपदा प्रबंधन की स्थिति और भी खराब है। हमारे नेतागणों ने तो ‘आपदा प्रबंधन’ शब्द सुना भी नहीं है और उन्हें इसका बुनियादी ज्ञान भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत प्रति वर्ष आपदा प्रबंधन पर 10 बिलियन डालर खर्च करता है। प्रश्न उठता है कि क्या हम इस राशि को सचमुच आपदा प्रबंधन पर खर्च करते हैं? आपदा प्रबंधन की तैयारियों में सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों पर ध्यान देना होता है और लोगों को यह बताना होता है कि आपदा से कैसे निपटा जाए, लोग कहां शरण लें, प्रभावी संचार नैटवर्क कैसे बनाया जाए, आपदा में फंसे लोगों को सैटेलाइट फोन उपलब्ध कराए जाएं, उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जाए और समय-समय पर सुरक्षाभ्यास किए जाएं। 

उपशमन के अंतर्गत सुरक्षित आवास और आश्रय बनाए जाएं ताकि आपदा का प्रभाव कम पड़े। एक मछुआरे के अनुसार, जब कभी भी अरब सागर में कम दबाव का समाचार मिलता है तो हम अपना सामान लेकर गांव के एक चक्रवात आश्रय स्थल में चले जाते हैं जहां पर सभी लोगों के लिए व्यवस्था नहीं है, ऐसे में तूफान आए तो हम कहां जाएं? राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बारे में नियंत्रक महालेखा परीक्षक की 2013 की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राधिकरण के पास राज्यों में आपदा प्रबंधन कार्यों की न तो सूचना होती है और न ही उनकी प्रगति पर उसका नियंत्रण होता है।

साथ ही यह आपदा प्रबंधन तैयारियों और उपशमन के लिए शुरू की गई विभिन्न परियोजनाओं को भी सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सकता है। यह प्राधिकरण पिछले 3 वर्षों से विशेषज्ञों की सलाहकार समिति के बिना कार्य कर रहा है। नियंत्रक महालेखा परीक्षक की 2010 की रिपोर्ट में भी आपदा प्रबंधन की समुचित तैयारियां न होने पर ङ्क्षचता व्यक्त की गई थी किन्तुु उसके बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ है। आपदा प्रबंधन के मामले में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका अच्छी रही है जो गांव स्तर पर राज्य प्रशासन के साथ मिलकर कार्य करते हैं। वे गांव स्तर पर आपदा योजना बनाते हैं, लोगों को एकजुट करते हैं, प्रभावित क्षेत्रों की पहचान करते हैं और लोगों को जागरूक करते हैं।

वे नियमित रूप से सुरक्षा अभ्यास भी कराते हैं ताकि लोग यह समझ सकें कि जब आपदा की चेतावनी मिले तो क्या किया जाए, किस प्रकार अपने घर और पशुओं को सुरक्षित रखा जाए। इस बारे में सरकार तथा गैर-सरकारी संगठन एक-दूसरे के पूरक बनकर कार्य करते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि धरती के तापमान में वृद्धि के कारण मौसम में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आएगा और उसका प्रभाव भारत पर भी पड़ेगा, इसलिए हमारे देश को प्राकृतिक आपदाओं के संभावित प्रभाव को कम करने के लिए योजना बनानी चाहिए। संचार और कनैक्टिविटी में सुधार होना चाहिए। 

उपग्रह से भेजी गई तस्वीरों से आपदा के दौरान प्रभावित क्षेत्रों की स्थिति का पता चलता है। किन्तु ये तस्वीरें बहुत स्पष्ट नहीं होती हैं। इस संबंध में विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की मदद ली जानी चाहिए। ये विशेषज्ञ समस्या का आकलन करें और उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए। बढ़ती जनसंख्या और स्थानीय पारिस्थितिकी पर इसके प्रभाव से उत्पन्न समस्याओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत को अल्पकालिक योजना की बजाय दीर्घकालिक योजना पर ध्यान देना चाहिए। अब तक इस संबंध में ‘नमो’ की भूमिका दबंग की रही है। उन्होंने प्रभावित जिलों का हवाई सर्वेक्षण किया और प्रधानमंत्री राहत कोष से 1000 करोड़ रुपए की राशि दी है। अन्य नेताओं के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा है। 

समय आ गया है कि हर वर्ष आने वाली इन आपदाओं से निपटने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं, न कि दिखावटी आंसू बहाए जाएं। आपदाओं के संबंध में केवल दिखावा करने से काम नहीं चलेगा। ठोस निर्णय लिए जाने चाहिएं। यदि अनिर्णय की स्थिति रहेगी तो समस्याएं बढ़ेंगी और अधिक दुखद समाचार मिलेंगे। कुल मिलाकर शासन का दूसरा नाम दूरदॢशता है। गंभीर स्थिति में गंभीर कदम उठाने होते हैं। हमारे प्रशासन को यह ध्यान में रखना होगा कि जीवन केवल संख्या नहीं है अपितु यह हाड़-मांस से बना होता है और इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती।-पूनम आई. कौशिश

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