हमारा गरीब राष्ट्र क्या इतनी छुट्टियां सहन कर सकता है

Monday, Apr 10, 2017 - 10:32 PM (IST)

अप्रैल का मध्य हमेशा की तरह बहुत सारी छुट्टियां लेकर आया है। हालांकि मोदी कहते हैं ‘‘न मैं खाली बैठूंगा, न खाली बैठने दूंगा।’’ फिर भी छुट्टियां ही छुट्टियां हैं। की फर्क पैंदा है। छुट्टी के लिए सिर्फ  एक बहाना चाहिए और पलक झपकते ही छुट्टी मिल जाती है। ये छुट्टियां कई रूपों में मिलती हैं: राष्ट्रीय अवकाश, प्रतिबंधित अवकाश, धार्मिक अवकाश, क्षेत्रीय अवकाश, जन्म दिवस और बरसी आदि। शायद इसका सरोकार हमारी बेपरवाह और ‘चलता है’ सोच से है। 

जरा सोचिए, साल के 365 दिनों में से सरकारी कार्यालयों में 5 दिवसीय कार्य सप्ताह होता है। इसका तात्पर्य है कि साल में 104 सप्ताहांत छुट्टियां होती हैं। इसके अलावा 3 राष्ट्रीय अवकाश, 14 राजपत्रित अवकाश और 2 प्रतिबंधित अवकाश सरकारी कर्मचारियों को मिलते हैं। प्रतिबंधित अवकाश छोटे धार्मिक समूहों की सुविधा के लिए दिए गए थे किंतु अब ये सभी के लिए 2 अतिरिक्त छुट्टियां बन गए हैं। 

इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों को 12 दिन का आकस्मिक अवकाश, 20 दिन का अद्र्ध वेतन अवकाश, 30 दिन का अर्जित अवकाश और 56 दिन का चिकित्सा अवकाश मिलता है। कुल मिलाकर साल में इन्हें 249 छुट्टियां मिलती हैं और केवल 116 दिन वे कार्य करते हैं। महिलाओं को 6 माह का मातृत्व अवकाश और 2 वर्ष का चाइल्ड केयर अवकाश भी मिलता है। सरकारी बाबू इतने से ही खुश नहीं होते हैं। सामान्य कार्य दिवस 8 घंटे का होता है जिसमें 1 घंटे का भोजनावकाश भी होता है, किंतु सरकारी कर्मचारी के कार्यालय में घुसते ही उसका चाय का समय शुरू हो जाता है और यह दिन भर चलता रहता है। फिर भी उसके लिए ओवर टाइम की कोई कमी नहीं है। 

हमेशा छुट्टियां मनाने वालों की पदवी हमारे संसद सदस्यों के लिए आरक्षित है। हमारे संसद सदस्य राष्ट्रीय और राजपत्रित अवकाशों के अलावा 36 दिन के प्रतिबंधित अवकाश के हकदार भी हैं। किंतु वे इतने से भी संतुष्ट नहीं हैं, वे बीच-बीच में संसद सत्र की भी छुट्टी करवा देते हैं। होली और रामनवमी को भी ऐसा ही होता है। हमारे जनसेवकों ने स्वयं को सप्ताह में दो दिन की छुट्टी का हकदार बना दिया है, चाहे इससे करदाताओं का करोड़ों रुपया बर्बाद क्यों न हो जाए। एक सांसद के शब्दों में बीच में ऐसी छुट्टियां करने से मुझे दैनिक भत्ते का नुक्सान होता है। कार्य संस्कृति का सबसे खराब रिकार्ड न्यायपालिका का है। 

न्यायपालिका में लाखों मामले लम्बित हैं, फिर भी उच्चतम न्यायालय साल में 193 दिन, उच्च न्यायालय 210 दिन और निचली अदालतें 245 दिन कार्य करती हैं। अमरीकी उच्चतम न्यायालय में वाॢषक छुट्टियां नहीं होती हैं जबकि वहां के उच्चतम न्यायालय में केवल 9 न्यायाधीश हैं, फिर भी वह सभी मामलों का निपटान कर देता है, जबकि हमारे यहां 27 न्यायाधीश हैं और मामले कई दशकों से लंबित पड़े हुए हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे न्यायाधीशों को छुट्टियां न मिलें, किंतु यदि वे कम छुट्टियां करें और अधिक न्याय दें तो इससे लोगों को न्याय मिलने में सहायता मिलेगी। खुशी की बात यह है कि मुख्य न्यायमूॢत केहर  ने घोषणा की है कि इस वर्ष ग्रीष्मावकाश के दौरान 3 पीठें कार्य करेंगी। 

प्रश्न उठता है कि क्या हमारा गरीब राष्ट्र इतनी छुट्टियों को वहन कर सकता है? अस्तित्व की लड़ाई लडऩे के बावजूद क्या हम छुट्टियों की इतनी विलासिता भोग सकते हैं? क्या हम धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अंतहीन छुट्टियां कर सकते हैं और एक बहुसांस्कृतिक विरासत में ये छुट्टियां पेशेवर नुक्सान नहीं पहुंचाती हैं? इसके लिए हमारे राजनेता दोषी हैं जो प्रतिस्पर्धी लोकप्रियतावाद की खातिर अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए छुट्टियों की घोषणा करते रहते हैं। वी.पी. सिंह ने पैगम्बर मोहम्मद के जन्म दिन की छुट्टी घोषित की थी जबकि किसी भी मुस्लिम देश में इस दिन छुट्टी नहीं होती है। वाजपेयी ने अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता को जताने के लिए अम्बेदकर के जन्म दिवस की छुट्टी घोषित की। 

यदि किसी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु होती है तो सरकार इस गंभीर अवसर का मजाक उड़ाती है और उस दिन की छुट्टी घोषित कर देती है। लोग खुशी-खुशी अवकाश लेते हैं, काम रुक जाता है। मृत्यु पर शोक की बजाय लोग मौज-मस्ती करते हैं। हमारे देश में राष्ट्रीय नेताओं की कमी नहीं है इसलिए छुट्टियां अपवाद नहीं अपितु नियम बन गई हैं। यह सच है कि हर कोई अपने रोजाना के काम से आराम चाहता है किंतु यह भी सच है कि जीवन में मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता है। प्रत्येक अवकाश से उद्योगों और कारोबार में लगभग एक हजार करोड़ रुपए का नुक्सान होता है।

हैरानी की बात यह है कि कोई भी इस समस्या पर विचार नहीं करता है। सरकार और बैंक निजी कम्पनियों द्वारा अपनाए गए सिद्धान्तों को क्यों नहीं अपनाते जिसमें कम्पनी अपने सारे कर्मचारियों को छुट्टी न देकर कुछ लोगों को छुट्टी देती है और जो उस दिन काम करने आते हैं उनको उसके बदले बाद में छुट्टी देती है। इसका कारण यह है कि सरकार में काम को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है। 

सच यह है कि गत वर्षों में अनेक समितियों और आयोगों ने छुट्टियां कम करने का प्रयास किया किंतु उनके प्रयास सफल नहीं हुए। प्रशासनिक सुधार आयोग ने 1971 में सुझाव दिया था कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर छुट्टियां अनावश्यक हैं, किंतु उसका सुझाव नहीं माना गया। सम्पन्न पश्चिमी देशों में अधिक छुट्टियां समझ में आती हैं और उन देशों में पहले ही 3 दिन के कार्य सप्ताह की मांग की जाने लगी है, किंतु भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। पश्चिम की नकल करने की बजाय राष्ट्रीय छुट्टियोंं को घोषित करने के मामले में हम उनका उदाहरण क्यों नहीं प्रस्तुत करते हैं? अमरीका में कोई राष्ट्रीय अवकाश नहीं है किंतु वहां 8 संघीय अवकाश हैं। प्रत्येक राज्य अपने अवकाश घोषित कर सकता है। 

ब्रिटेन में 5 दिन का कार्य सप्ताह है और साढ़े आठ दिन का सार्वजनिक अवकाश है। वाॢषक छुट्टियां 3 सप्ताह की मिलती हैं। जर्मनी में सप्ताहांत के अलावा 14 दिन की छुट्टियां होती हैं। सरकारी कर्मचारी को उसकी आय के अनुसार 3 से 6 सप्ताह की छुट्टियां मिलती हैं। जापान में 12 सार्वजनिक अवकाश हैं और सरकारी कर्मचारियों को 20 दिन का अर्जित अवकाश मिलता है। चीन में भी 5 दिन का कार्य सप्ताह है किंतु उन 5 दिनों में कर्मचारियों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, जबकि भारत में ऐसा नहीं है। हम भारतीय बड़े-बड़े दिवास्वप्न देखते हैं किंतु उन सपनों को पूरा करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते हैं। समय आ गया है कि हम काम करना सीखें। 
 

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