जातीय ढांचे से बाहर नहीं निकलना चाहते हमारे राजनीतिज्ञ

Tuesday, Jan 09, 2018 - 03:17 AM (IST)

आज भारत को एक पुरानी कहावत सता रही है कि जो कोई बाघ की सवारी करता है वह उससे उतरने के लिए डरता है कि कहीं बाघ उसे खा न जाए। हमारे राजनेताओं द्वारा लगभग 3 दशक पूर्व जाति का जो भूत पैदा किया गया था वह आज पूरे देश में जातीय हिंसा का खतरा पैदा करने लगा है। इसने पहले ही दलितों और मराठों में घृणा के बीज बो दिए हैं जिनके चलते जातिवाद फिर से सुर्खियों में आ गया है। 

नए वर्ष के पहले दिन पुणे के कोरेगांव भीमागांव में जातिवादी हिंसा ने अपने जहरीले फन फैला दिए हैं जहां पर 10 लाख दलित-ब्रिटिश महार दलित यूनिट की पेशवा आर्मी पर जीत की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए एकत्र हुए थे। ये लोग दलित सैनिकों को अपनी श्रद्धांजलि देने और अपनी पहचान की याद दिलाने के लिए एकत्रित हुए थे। वर्ष 1927 में अम्बेदकर द्वारा इस स्थान पर जाने के बाद यह लोकप्रिय हुआ। दलित समुदाय द्वारा अपनी पहचान के लिए एकजुट होने और बंद का आह्वान करने को मराठा समुदाय ने एक चुनौती के रूप में देखा जिसके चलते महाराष्ट्र में हिंसा फैली जिसमें एक व्यक्ति मारा गया, वाहन जलाए गए, संपत्ति को नुक्सान पहुंचाया गया, सड़क और रेल यातायात बाधित हुआ तथा मुंबई और अन्य शहरों में 3 दिनों तक सामान्य जनजीवन प्रभावित रहा। 

किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जब स्मृति का शीशा टूटता है तो दरार बढ़ जाती है और सामाजिक-राजनीतिक आक्रोश सामने आ जाता है। दलित नेता प्रकाश अम्बेदकर और गुजरात के नए लोकप्रिय दलित नेता जिग्नेश मेवाणी कोरेगांव को दलितों की चेतना मानते हैं जबकि दक्षिण पंथी हिन्दुत्ववादी नेता इसे राष्ट्र विरोधी मानते हैं और इसी के चलते यह राजनीतिक विवाद पैदा हुआ और फडऩवीस सरकार इस बात को लेकर चिंतित है कि दलित मराठा टकराव में किस प्रकार संतुलन बनाया जाए और देशभर में इसका राजनीतिक प्रभाव क्या होगा क्योंकि देश के 8 राज्यों में इस वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इस संघर्ष से मोदी द्वारा बड़ी मेहनत से दलितों तक पहुंचने के प्रयासों को झटका लगेगा।

मोदी के प्रयासों से भाजपा को उत्तर प्रदेश में भारी जीत मिली थी और दलित मसीहा मायावती का पत्ता साफ हो गया था। एक वरिष्ठ भाजपा नेता के अनुसार, महाराष्ट्र की घटनाएं और विपक्ष द्वारा हैदराबाद के रोहित वेमुला प्रकरण और जे.एन.यू. के कन्हैया मुद्दे को फिर से उठाने के प्रयासों से पार्टी को दलित विरोधी घोषित करने के प्रयास किए जा रहे हैं जो पार्टी के लिए बहुत ही हानिकारक है और इससे यह समुदाय हमारे विरुद्ध हो सकता है। यह पार्टी के लिए खतरनाक हो सकता है और चुनावों में जीत के मोदी-शाह के प्रयासों को विफल कर सकता है, साथ ही इससे बसपा को भी आशा की एक नई किरण दिखाई देगी। 

इसीलिए पार्टी ने इस मुद्दे के प्रभाव को कम करने के लिए अपने नेताओं को उतारा, जो इस बात पर बल दे रहे हैं कि पार्टी गरीबों और दलितों के पक्ष में है और इसलिए पार्टी दलितों को रिझाने के लिए कई योजनाएं चला रही है। किन्तु यह इतना आसान नहीं है क्योंकि आज चुनाव जातीय आधार पर लड़े जाते हैं और मतदाता भी जातीय आधार पर मतदान करते हैं, जिसके चलते कश्मीर से कन्याकुमारी और महाराष्ट्र से मणिपुर तक मतपत्र के माध्यम से यह सामाजिक इंजीनियरिंग की जा रही है जिसमें जातीय आधार पर मतदान का बोलबाला है और राजनीतिक दल भी सत्ता में आने के लिए इस मुद्दे को उछाल रहे हैं। राष्ट्रीय जीवन के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, शैक्षिक और यहां तक कि न्यायिक क्षेत्र में भी जातिवाद फैल चुका है। 

आज बिहार जातीय सेनाओं का युद्धस्थल लगता है। कल तक यहां उच्च जातियों की निजी सेनाएं जैसे रणवीर सेना और वामपंथी, माक्र्सवादी आदि के बीच संघर्ष होता था तो आज जयश्री राम सेना भी मैदान में उतर गई है। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव और दलितों सबकी अपनी सेनाएं हैं और इससे राज्य में जातीय संघर्ष बढ़ता जा रहा है। फलत: लालू, मुलायम और मायावती जैसे मेड इन इंडिया नेताओं के उदय के साथ सामाजिक खाई और चौड़ी होती गई। यदि लालू पिछड़े वर्गों के मसीहा बनते हैं तो मुलायम सिंह यादवों और मुसलमानों का इतना पक्ष लेते हैं कि वे सरकार और न्यायिक नियुक्तियों में भी उन्हें ही प्राथमिकता देते हैंं। 

मायावती के ट्रांसफर राज में अनेक उच्च जातियों के अधिकारियों के स्थान पर दलित अधिकारी नियुक्त किए गए और इस प्रकार दलित समाज को एक नई पहचान दी गई। वस्तुत: आज स्थिति ऐसी हो गई है कि जातियां हमारे संवैधानिक ढांचे को भी प्रभावित करने लगी हैंं और देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी जाति के आधार पर निर्वाचित होने लगे हैं। नि:संदेह विभिन्न समुदायों के बीच अन्याय की भावना को लेकर बढ़ते तनाव तथा रोजगार की आकांक्षा पूरी न होने के कारण आरक्षण की मांग के चलते जातीय पहचान पर बल दिया जाने लगा है और यह इतनी स्पष्ट हो गई है कि लोगों को लगने लगा है कि सामूहिक सौदेबाजी से उन्हें विशेष लाभ मिलेंगे। 

महाराष्ट्र में मराठाओं, हरियाणा में जाटों और गुजरात में पाटीदारों द्वारा सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन इसके उदाहरण हैं। किन्तु आरक्षण से न तो रोजगार की समस्या का समाधान हुआ और न ही सामाजिक समावेश में यह सहायक हुआ। दलित समुदाय की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। दलित राजनीतिक कार्यकत्र्ता आज राजनीतिक ऊंचाइयों पर भाजपा या कांग्रेस के साथ गठबंधन के कारण पहुंचे हैं किन्तु एक समुदाय के रूप में वे राजनीतिक प्रक्रिया पर प्रभाव डालने में विफल रहे हैं। यह बात सच है कि इस समुदाय में मध्यम वर्ग का उदय होने लगा है  जिसके चलते दलित इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री जैसे संगठन बने हैं किन्तु आज भी इनमें बेरोजगारी व्याप्त है। 

इसके अलावा विभिन्न जातियों के बीच मतभेद बढ़े हैं। इसलिए दलित समुदाय ने प्रतीकात्मक रूप से अपने गौरव और प्रतिष्ठा को बहाल करने का रास्ता अपनाया है इसलिए न्याय प्राप्त करने की चाह में वे ऐतिहासिक स्मारकों की ओर गए। उनके नेताओं द्वारा राजनीति, अर्थव्यवस्था को विकृत करने और उनके राजनीतिक दिवालियापन के कारण यह समुदाय पारस्परिक संदेह, जातीय गौरव तथा पहचान पर बल देने और इतिहास तथा यादों के साए में टकराव की ओर बढ़ा और इससे अंतर समुदाय हिंसा बढ़ सकती है। 

किन्तु दुखद तथ्य यह है कि हमारे नेता जातीय ढांचे से बाहर निकलना नहीं चाहते हैं। वे स्पष्ट रुख नहीं अपनाना चाहते हैं क्योंकि इससे उनका वोट बैंक प्रभावित होगा और लोगों में असंतोष बढ़ेगा इसलिए वे खाली शोर मचाते हैं और अपने हितों को बचाने के लिए बलि का बकरा ढूंढते हैं। इससे जातिवादी राजनीति ही लाभान्वित हो रही है। वे यह भूल जाते हैं कि जातीय प्रतिद्वंद्विता के आधार पर राजनीतिक सत्ता के खेल में संलिप्त होना बहुत ही खतरनाक है और यदि ऐसा होता है तो सारा सामाजिक सुधार आंदोलन निरर्थक हो जाएगा। हमारे राजनेता इतिहास से भी सबक लेना नहीं चाहते हैं। इतिहास बताता है कि भारत में अब तक जो भी संघर्ष हुए हैं वे जाति, धर्म, क्षेत्र और जनजाति के आधार पर हुए हैं। ये वर्ग के आधार पर नहीं हुए हैं। 

यदि राजनीतिक चेतना जातीय स्तर पर आकर समाप्त हो जाती है तो हमारी राजनीति में विभाजनकारी जातीय समीकरणों का वर्चस्व बना रहेगा। यह सच है कि पिछड़े वर्गों की राजनीतिक आकांक्षाओं का संज्ञान लेना होगा साथ ही हाशिए तक ले जाने की राजनीतिक और जातीय आधार पर सत्ता का खेल खेलना भी खतरनाक है। ऐसे वातावरण में जहां पर जातिवाद का बोलबाला हो तथा आरक्षण राजनीतिक भारत का मुख्य आधार बन गया हो हमारे राजनेता उस दानव को नहीं देख पा रहे हैं जो उन्होंने पैदा किया है और जिसके चलते एक दिन देश में गृह युद्ध छिड़ सकता है। आवश्यकता एक सकारात्मक बदलाव, भावनात्मक शुद्धि और एक समावेशी समाज की है। भारत इस बात का गवाह रहा है कि विशेषाधिकार चुनावी प्रतिस्पर्धा के माध्यम से संख्या बल शक्ति में बदल गया है और यदि इस पर रोक नहीं लगाई गई तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर सकता है। आपका क्या सोचना है?-पूनम आई. कौशिश

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