‘घोंघे की रफ्तार’ से सजा देती है हमारी न्यायिक प्रणाली

Tuesday, Feb 11, 2020 - 02:53 AM (IST)

दिल्ली में कई स्थानों पर चुनावी जीत के लिए ढोल-नगाड़े बजेंगे, वहीं कहीं पर हार के चलते सन्नाटा छा जाएगा। मगर एक सवाल जो निरंतर लटक रहा है वह है कि आखिर न्याय, उचित व्यवहार तथा निष्पक्ष सजा क्या है? जब हम न्याय तथा सजा के बारे में बात करते हैं तब इससे हमारा क्या अभिप्राय होता है? 16 दिसम्बर 2012 के निर्भया गैंगरेप से पूरे राष्ट्र की आत्मा थर्रा गई। आज 7 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु न्याय का इंतजार अभी भी अपनी  राह देख रहा है। यह एक मजाक बनकर रह गया है क्योंकि भाजपा तथा ‘आप’ राजनीति करने का एक-दूसरे पर आरोप मढ़ रहे हैं। 

निर्भया गैंग रेप के 4 आरोपियों को 22 जनवरी को फांसी होना तय हुई थी। उसके बाद इसे 1 फरवरी किया गया। आरोपियों को कब फांसी होगी इसका अभी तक कुछ पता नहीं क्योंकि हाईकोर्ट ने फांसी को अगले आदेशों तक रोक दिया है। इस कारण फांसी एक कहानी लगती है। हमारी कानूनी प्रक्रिया बेहद धीमी, आलसी तथा बोझिल है। इतना सशक्त केस होने के बावजूद यह सालों से लटक रहा है जो हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में कमियों को उजागर करता है। 

चारों आरोपियों को सितम्बर 2013 में एक ट्रायल कोर्ट द्वारा फांसी की सजा सुनाई गई थी जिसे एक साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक दिया। इसके बाद यह केस सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा जिसने इसे ‘दुर्लभतम से दुर्लभ’ करार दिया और चारों आरोपियों को मई 2017 को फांसी की सजा सुनाई, मगर आरोपी कुछ कारणवश जो वे ही जानते हैं, दया याचिका को दो सप्ताहों के भीतर दायर करने में असफल रहे। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में 3 आरोपियों द्वारा समीक्षा याचिकाएं दायर की गईं जिन्हें जुलाई 2018 में खारिज कर दिया गया था। चौथे ने अपनी समीक्षा याचिका दिसम्बर 2019 में दायर की, उसे भी खारिज कर दिया गया। 7 जनवरी को दिल्ली की सैशन कोर्ट ने 22 जनवरी का दिन फांसी के लिए मुकर्रर किया। 2 आरोपियों ने मौत की सजा को उम्र कैद में बदलने के लिए क्यूरेटिव याचिकाएं दायर कीं जिन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने 13 जनवरी को खारिज कर दिया। 

तीसरे आरोपी ने तब एक दया याचिका 16 जनवरी को दायर की जिसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने खारिज कर दिया। उसके बाद उसने एक कोर्ट में याचिका दायर की जिसमें मांग की गई कि फांसी पर रोक लगाई जाए जिसके बाद कोर्ट ने 1 फरवरी तक सजा को स्थगित कर दिया। उसने 28 जनवरी को अपनी दया याचिका के खारिज होने को चुनौती देते हुए कहा कि राष्ट्रपति ने अपने मन से काम नहीं लिया। सर्वोच्च न्यायालय की 3 जजों की एक पीठ ने उसकी याचिका को 29 जनवरी को खारिज कर दिया। तब उसके सहयोगी एक दुष्कर्मी ने दया के लिए राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाया तथा एक अन्य ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक क्यूरेटिव याचिका दायर की। क्योंकि फांसी अनिश्चित समय के लिए स्थगित हो गई इसलिए केन्द्र ने कोर्ट से व्यक्तिगत तौर पर फांसी देने के लिए निवेदन किया। उसे भी अस्वीकार कर दिया गया। 

कोर्ट ने आरोपियों को अपनी सभी कानूनी प्रक्रिया को अपनाने के लिए 7 दिन का समय दिया। हमें अपने कानून को दोषी ठहराना होगा। दिल्ली जेल नियमावली के नियम 14 (2) के अनुसार एक ही आरोप में विभिन्न आरोपियों को तब तक फांसी नहीं दी जा सकती जब तक कि वे सभी कानूनी विकल्पों का इस्तेमाल न कर लें। इसमें राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर करना भी शामिल है। मुख्य कारण यह है कि आरोपी अपने कानूनी विकल्पों को एक साथ नहीं निभा रहे क्योंकि इससे उन्हें अपनी फांसी को रोकने या फिर उसमें देरी करने के लिए समय मिल जाएगा। सभी प्रयासों के असफल होने के बाद उन्हें 14 दिन की मोहलत मिल गई। वे अब भगवान भरोसे तथा अपनी किस्मत को मानने को तैयार हैं। यह देरी हमारे कानूनी सिस्टम को दर्शाती है। 

याद रखें कि धनंजय चटर्जी को 6 सालों के बाद 2004 में फांसी पर लटकाया गया था। पाकिस्तानी आतंकी कसाब को 8 वर्षों के बाद फांसी पर लटकाया गया। संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को 12 वर्षों के बाद तथा याकूब मेमन को 21 वर्षों के बाद फांसी के फंदे पर झुलाया गया। प्रत्येक वर्ष अदालतें दर्जनों भर फांसी की सजाएं देती हैं परन्तु उनमें से चंद को ही फांसी पर लटकाया जाता है। दिल्ली की नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर 2014 तक अदालतों ने कुल 1810 लोगों को फांसी की सजा सुनाई। इनमें से आधी संख्या की मौत की सजा को उम्रकैद में अदालतों ने बदला तथा एक चौथाई आरोपी छूट गए। एक चौथाई केस जो बचते हैं वे हाई-प्रोफाइल होते हैं, जिन्हें फांसी दी जाती है। मौत की सजा के समर्थकों का मानना है कि जघन्य अपराधियों को फांसी पर लटकाने से अपराध को खत्म किया जा सकता है तथा इससे एक सुरक्षित माहौल पैदा होता है एवं यह दूसरों के लिए सबक भी साबित होता है। यह भी संदेश जाता है कि ऐसे जघन्य अपराध करने से उनको मौत भी मिल सकती है। 

सोचें यदि किसी एक को उम्रकैद मिल गई तो वह अपने अच्छे व्यवहार के लिए जेल से छूट जाएगा तथा वह फिर से कोई जघन्य अपराध कर बैठेगा। वहीं मौत की सजा के खिलाफ लोगों का कहना है कि यह जीवन के मूल अधिकार के विरुद्ध है। ऐसा कोई भी आंकड़ा यह नहीं दर्शाता कि आरोपियों को फांसी पर लटकाने से ऐसा ही अपराध करने के लिए दूसरे लोगों को रोका जा सकता है। रोजाना हजारों की तादाद में दुष्कर्म होते हैं मगर ऐसी कौन-सी बात है कि निर्भया के हत्यारों को ही फांसी पर लटकाया जाएगा। कानून कभी-कभी कुछ गलतियां कर बैठता है। हमें याद रखना होगा कि 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि उसने गलती से 15 वर्षों के दौरान 15 लोगों को मौत की सजा सुना डाली।

मौत की सजा के दृढ़ता से दिए गए कुछ निर्णय कानून से ज्यादा राजनीति पर आधारित होते हैं। फांसी का इस्तेमाल सरकार राजनीतिक हथियार के तौर पर करती है जिससे वह अपनी शक्ति तथा निश्चितता दर्शाना चाहती है। कैसे अफजल गुरु तथा कसाब कई सालों तक यू.पी.ए. सरकार के अधीन लम्बे समय तक जेल में रहे। उसके बाद अति तेजी से उनको फांसी दे दी गई। इसके अलावा कठुआ दुष्कर्मियों को मौत की सजा के लिए शोर क्यों नहीं मचा जिन्होंने न केवल एक नाबालिग बच्ची का गैंगरेप किया बल्कि उसकी हत्या भी की? यदि हम सुप्रीम कोर्ट के वाकये जिसमें उसने दुर्लभतम से दुर्लभ की बात कही थी, पर ध्यान दें तो क्या उक्त मामला दुर्लभ नहीं है? 

102 देशों ने मौत की सजा को खत्म कर दिया है। भारत तथा 62 अन्य राष्ट्र जिनमें अमरीका, चीन, जापान शामिल हैं, में मौत की सजा दी जाती है। एक सामाजिक वैज्ञानिक ने कहा है कि फांसी पर लटकाना भारत में एक लोकप्रिय सामूहिक चेतना है जहां पर आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत की मांग की जाती है। यदि कोई अपराध हुआ है तो उसके लिए सजा भी जरूरी है। तेलंगाना दुष्कर्मियों के एनकाऊंटर का जश्न किस तरह मनाया गया यह जगजाहिर है। अदालतों द्वारा मौत की सजा सुनाए जाने की गिनती बढऩे के साथ-साथ दुष्कर्म तथा हत्याओं के मामले में भी वृद्धि हो रही है। यह जानते हुए भी कि उनको मौत की सजा दी जाएगी दुष्कर्मी निरंतर पीड़िताओं की हत्याएं कर रहे हैं। दुष्कर्मी पीड़िताओं की हत्या इसलिए करते हैं ताकि वे बेरोक-टोक घूम सकें क्योंकि उन्होंने उस गवाह की हत्या कर डाली है जो अदालत में आगे चल कर इस जुर्म के खिलाफ गवाही देगी। हमारी न्याय प्रणाली घोंघे की रफ्तार से सजा देती है। न तो यह पीड़िता की न्याय के लिए गुहार को संतुष्ट कर पाती है और न ही संभावित उल्लंघनकत्र्ताओं को रोकने में सफल होती है।-पूनम आई. कौशिश

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