विपक्षी अंतर्विरोध भी हैं भाजपा की ताकत

punjabkesari.in Sunday, Feb 19, 2023 - 04:40 AM (IST)

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की कन्याकुमारी से शुरू भारत जोड़ो यात्रा कश्मीर में संपन्न हो गई। सवा सौ दिन से ज्यादा चली साढ़े तीन हजार किलोमीटर से भी लंबी इस यात्रा से निश्चय ही कांग्रेस और राहुल को बड़ी उम्मीदें रही होंगी। घोषित उद्देश्य तो भारत जोडऩे का ही बताया गया था, फिर भी ज्यादातर राजनीतिक प्रेक्षक इस निष्कर्ष से सहमत थे कि लगातार दो लोकसभा और दर्जन भर से ज्यादा विधानसभा चुनाव हारने से हताश कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोडऩे वाले राहुल और पार्टी की छवि सुधारना ही यात्रा का असल मकसद था।

अब स्वाभाविक सवाल है कि क्या वह मकसद पूरा हुआ? राहुल ने भारत जोड़ो यात्रा की शुरूआत उस केरल से की, जहां आज भले ही वामपंथी गठबंधन (एल.डी.एफ.) का शासन है, पर कांग्रेसी अगुवाई वाला यू.डी.एफ. भी बड़ी राजनीतिक ताकत है। पिछले लोकसभा चुनाव में न सिर्फ राहुल केरल के वायनाड से सांसद चुने गए, बल्कि राज्य की 20 सीटों में से कांग्रेस अकेले 15 और यू.डी.एफ. कुल 18 जीतने में सफल रहा। भाजपा का खाता नहीं खुला तो सी.पी.एम. और आर.एस.पी. के हिस्से एक-एक सीट ही आई। जाहिर है, अगले लोकसभा चुनाव में केरल से कांग्रेस को बड़ी उम्मीदें हैं।

यही बात धारा-370 की समाप्ति के बाद केंद्र शासित क्षेत्र बना दिए गए जम्मू-कश्मीर के बारे में कही जा सकती है। वहां क्षेत्रीय दल- नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी. बड़ी राजनीतिक ताकत रही हैं और दोनों राष्ट्रीय दल- कांग्रेस-भाजपा क्षेत्रीय दलों से गठबंधन पर निर्भर हैं। भारत जोड़ो यात्रा की शुरूआत से पहले ही दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद ने अपना अलग क्षेत्रीय दल बना कर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया था, लेकिन यात्रा के समापन में नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी., दोनों का शामिल होना बड़ा सकारात्मक संकेत है।

दरअसल भारत जोड़ो यात्रा का एक अघोषित उद्देश्य यह भी था कि हाशिए पर फिसल गई कांग्रेस को फिर से मुख्य धारा में लाया जाए, ताकि अगले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन जब भी शक्ल ले, तो वह उसकी धुरी बन सके। अब यात्रा के प्रभाव-परिणाम पर नजर डालें तो लगता है कि एक हद तक राहुल की छवि तो सुधरी है। यह भी कि लगातार चुनावी पराजयों से निराश जो कांग्रेस कार्यकत्र्ता घर में बैठ गए थे, वे फिर मैदान में  उतरने को तैयार हैं। हां, निजी सत्ता महत्वाकांक्षाओं को पार्टी हित पर वरीयता देने वाले गुटबाज नेताओं पर लगाम कसने में यह यात्रा ज्यादा सफल नजर नहीं आती।

यही बात विपक्षी दलों के बीच कांग्रेस की धुरी-रूप में स्वीकार्यता की बाबत कही जा सकती है। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक, ज्यादातर विपक्षी दल राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से किनारा ही करते नजर आए। ओडिशा में लगातार भाजपा का विजय रथ रोकने वाले मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, कांग्रेस से बगावत कर वाई.एस.आर. बना आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना के एकछत्र नेता के. चंद्रशेखर राव को यात्रा के समापन पर न बुलाने की राजनीतिक समझदारी तो राहुल गांधी के रणनीतिकार ही बेहतर समझते होंगे, पर जिन विपक्षी दिग्गजों को बुलाया गया, उनमें से भी कई बड़े चेहरे नहीं आए और यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं है।

माना कि टी.एम.सी. सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अरसे से कांग्रेस से दूरी बना कर चल रही हैं, दिल्ली के बाद पंजाब में भी कांग्रेस से सत्ता छीनने वाली आम आदमी पार्टी से भी दूरी की मजबूरी समझी जा सकती है, लेकिन उत्तर प्रदेश के दोनों बड़े विपक्षी दलों, सपा और बसपा ने जिस तरह कांग्रेस को नकारा है, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा और दूरगामी असर होगा। मंडल को कमंडल में समाहित करने की भाजपाई सामाजिक समरसता उत्तर प्रदेश में सफल रही है।

इसके बावजूद उसे वहां सपा-बसपा ही टक्कर दे सकती हैं, पर व्यापक विपक्षी गठबंधन के बिना उसके वांछित परिणाम नहीं निकलेंगे। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा महागठबंधन बनाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए। बेशक सपा-बसपा की सहमति के बिना वह संभव नहीं, पर कांग्रेस उसके लिए गंभीर कोशिश करती भी तो नहीं दिखी। अगर सपा-बसपा कांग्रेस से आशंकित हैं तो उसके मूल में अतीत के अनुभव भी हैं। यह आशंका दूर करने की ईमानदार कोशिश कांग्रेस को ही करनी होगी और उसके लिए जमीनी वास्तविकता को स्वीकारते हुए अहं त्यागना होगा।

राष्ट्रीय लोकदल समेत कुछ छोटे दलों से गठबंधन की सोच के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहर तो बड़े परिणाम नहीं निकल पाएंगे। कांग्रेस को बड़ा झटका बिहार के मित्र दलों ने दिया है। वहां कांग्रेस की भागीदारी वाले जिस महागठबंधन की सरकार है, उसके दोनों बड़े दल, राजद और जद (यू) के नेता भी भारत जोड़ो यात्रा के समापन में नहीं आए। क्या तेजस्वी यादव और नीतिश कुमार भी राहुल की यात्रा से कांग्रेस की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से आशंकित हैं।

सच तो यह है कि भारत जोड़ो यात्रा को जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी. के अलावा तमिलनाडु और महाराष्ट्र के कांग्रेस के मित्र दलों का ही साथ मिल पाया। इस बीच बी.आर.एस., सपा, ‘आप’, सी.पी.एम. और सी.पी.आई. जैसे दलों के नेता खम्मम में एकजुट हो कर अपने इरादों का संकेत दे ही चुके हैं। लोकसभा की मौजूदा सदस्य संख्या पर नजर डालें तो सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के पास भी मात्र 52 सीटें हैं, जबकि भाजपा के पास 300 से ज्यादा।

घोषित तौर पर भाजपा विरोधी दलों की सदस्य संख्या मिला भी लें तो पौने दो सौ तक नहीं पहुंचती। इस बड़े फासले को बिना व्यापक विपक्षी गठबंधन मिटा पाना नामुमकिन होगा। ऐसे में विपक्षी दलों-नेताओं के आपसी अंतॢवरोध भाजपा को और भी मजबूती प्रदान करते हैं। 24 से 26 फरवरी तक होने वाले रायपुर पूर्ण अधिवेशन में कांग्रेस को इस चक्रव्यूह को तोडऩे का तरीका ढूंढना होगा, सिर्फ प्रस्तावों, भाषणों के जरिए भाजपा और मोदी को कोसने से जमीनी राजनीति नहीं बदलने वाली। -राज कुमार सिंह 


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