राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नाम खुला पत्र

Friday, Aug 31, 2018 - 04:10 AM (IST)

आदरणीय भाई सत्यपाल मलिक जी, हाल ही में आपने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी संभाली है, उसके लिए मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। 4 दशकों की राजनीतिक यात्रा में आप विभिन्न दलों के सदस्य रहे हैं। जम्मूृ-कश्मीर का राज्यपाल बनने से पूर्व आप बिहार और ओडिशा (अतिरिक्त प्रभार) में इसी संवैधानिक पद का निर्वाह कर चुके हैं। 

मेरा और आपका व्यक्तिगत परिचय अधिक नहीं रहा है, किंतु हम दोनों को अपने जीवन में उत्तर प्रदेश से ही पहली बार संसद जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जहां आप 1980-89 तक उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सांसद रहे और 1989 में अलीगढ़ से एक बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए, वहीं बतौर राज्यसभा सांसद मेरा प्रथम कार्यकाल (2000-06) भी उत्तर प्रदेश से रहा। 

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बनने की आधिकारिक घोषणा होने पर मैंने आपका एक अंग्रेजी समाचारपत्र में प्रकाशित साक्षात्कार पढ़ा, जिसमें आपने कहा है, ‘यह एक चुनौतीपूर्ण काम है, बुनियादी चुनौती राज्य के लोगों का भरोसा जीतना है।’ स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब जम्मू-कश्मीर के किसी भी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति ने जनता का विश्वास जीतने की बात नहीं कही हो। मैंने अपने जीवन में ऐसे वक्तव्यों को अनेकों बार सुना है और संभवत: आपने भी इसका अनुभव किया होगा। 

स्वाभाविक रूप से आप कश्मीर में अलगाववाद की समस्या से परिचित हैं और आपको इस बात की भी जानकारी होगी कि कैसे यह तत्व भारत की सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परम्पराओं को न केवल नकारता है, अपितु देश की सम्प्रभुता, एकता और अखंडता पर बार-बार गहरा आघात करता है। जिसमें पाकिस्तान और आतंकी संगठन आई.एस. के समर्थन में नारे और उन दोनों के झंडे तक लहरा दिए जाते हैं, मेरी अपेक्षा है कि आप इन समस्याओं पर नकेल कसने में सफल होंगे। 

आपको ऐसे समय में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की जिम्मेदारी मिली है, जब वहां राष्ट्रपति शासन है और आपको संवैधानिक मूल्यों के अंतर्गत प्रमुख प्रशासक की सभी शक्तियां प्राप्त हैं। मलिक जी, कश्मीर की स्थिति की गम्भीरता बहुआयामी है। यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि कश्मीर संकट की जड़ें-बेरोजगारी, गरीबी, कमजोर अर्थव्यवस्था, क्षेत्रीय असंतुलन, पूर्ण स्वायत्तता, कथित आजादी और क्षेत्र में सेना-पुलिस के अत्यधिक दबदबे में निहित हैं। मई 2014 से केन्द्र की मोदी सरकार ने कश्मीर में शांति बहाली और आतंकवाद से निपटने के साथ-साथ विकास को भी प्राथमिकता दी है। 4 वर्षों के कार्यकाल में केन्द्र सरकार 80 हजार करोड़ रुपए की लागत से प्रदेश में 61 विकास परियोजनाओं पर काम कर रही है। एक आंकड़े के अनुसार, बीते डेढ़ दशक से भारत सरकार की ओर से सर्वाधिक केन्द्रीय अनुदान जम्मू-कश्मीर को ही मिला है।

अपने लंबे राजनीतिक अनुभव में आप इस बात से परिचित होंगे कि देश में आज भी ऐसे कई क्षेत्र हैं, जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, जहां रोजगार और विकास की बात तो छोडि़ए, आधारभूत संसाधनों की भी भारी कमी है, साथ ही व्यापक क्षेत्रीय असंतुलन भी है। इस स्थिति के बाद भी क्या उन क्षेत्रों में हमने किसी को ‘पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत मुर्दाबाद’ के नारे लगाते देखा है? क्या स्थानीय समस्याओं पर अपना आक्रोश जताने के लिए उन क्षेत्रों के निवासियों ने कभी आई.एस. जैसे खूंखार आतंकी संगठनों का झंडा लहराया या फिर भारत की मौत की दुआ मांगी है? फिर कश्मीर की स्थिति ऐसी क्यों है? 

मलिक जी, कश्मीर संकट का मूल कारण उसके इतिहास में है। स्मरण रहे कि कश्मीर किस तरह बसा, उसका विस्तार से उल्लेख प्राचीन वैदिक ग्रंथ नीलमत पुराण में है। कश्यप मुनि को इस भूखंड का निर्माता माना जाता है। उनके पुत्र नील इस क्षेत्र के पहले राजा थे। 14वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध और शैव मत का गहरा प्रभाव रहा है, किंतु इस्लाम के आगमन के साथ कश्मीर की मूल संस्कृति का क्षय होता गया। 

जम्मू-कश्मीर की जो वर्तमान मुस्लिम आबादी है, उनमें से अधिकांश के पूर्वज मतांतरित मुस्लिम हैं। जब अरबों की सिंध पर विजय हुई तो सिंध के राजा दाहिर के पुत्र राजकुमार जय सिंह ने कश्मीर में शरण ली। राजकुमार के साथ सीरिया निवासी मित्र हमीम भी था। कश्मीर की धरती पर पांव रखने वाला पहला मुस्लिम यही था। अंतिम हिंदू शासिका कोटारानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए मुस्लिम प्रचारक शाहमीर ने राजकाज संभाला और यहीं से दारूल-हरब को जबरन व हिंसा के मार्ग से दारूल-इस्लाम में परिवर्तित करने का सिलसिला चल पड़ा। 

औपनिवेशिक कालखंड में ब्रितानियों के प्रोत्साहन से जिस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी उन्माद और अलगाववाद प्रखर हुआ, जिसमें पाकिस्तान का मानचित्र विश्व में उभरा और उसकी वैचारिक नींव जिस विषाक्त मानसिकता ने तैयार की, आज उसी से प्रेरणा लेकर आतंकवादी कभी लंदन, कभी  पैरिस, नीस, बार्सिलोना या फिर न्यूयॉर्क जैसे पश्चिमी नगरों में निरपराधों को मौत के घाट उतारने या अपनी जान देने से भी हिचक नहीं रहे हैं। इस कैंसर रूपी रोग से दुनिया के मुस्लिम बहुल राष्ट्र भी अछूते नहीं हैं। एक आंकड़े के अनुसार, 2001 में न्यूयॉर्क में 9/11 के आतंकी हमले के बाद से विश्व लगभग 34 हजार बार इस्लाम प्रेरित हिंसा या आतंकवाद का शिकार हो चुका है। 

इसी विश्वव्यापी विषैले चिंतन और मजहबी पागलपन से कश्मीर भी कई दशकों से जकड़ा हुआ है, जहां का अधिकांश जनमानस अपनी मूल जड़ों को नकारते हुए घाटी में इस्लाम आगमन से पूर्व की सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं को निरस्त करता है और मध्यपूर्व एशिया-अरब संस्कृति के अत्यधिक निकट पाता है। इनका दर्शनशास्त्र केवल अपने ब्रांड के इस्लाम को सर्वोच्च-सच्चा, शेष को ‘काफिर-कुफ्र’ और विश्व के इस्लामीकरण को अपना एकमात्र मजहबी कत्र्तव्य मानता है। इसी चिंतन को अंगीकार करते हुए घाटी का विकृत जनसमूह भी ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ की स्थापना के लिए ‘काफिर’ भारत और हिंदुओं की मौत की दुआ मांग रहा है। यही मानसिकता कभी स्थानीय लोगों के एक वर्ग में आतंकवादियों से सहानुभूति की भावना पैदा करती है, तो कभी भारतीय सुरक्षाबलों पर आतंकी हमले और पथराव के लिए प्रेरित। 

स्वतंत्रता से पूर्व वर्ष 1931 से पहले घाटी में इस विषैली मानसिकता ने विकराल रूप तब तक नहीं लिया था, जब तक मुस्लिम अलगाववाद की चिंगारी को शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में सुलगा नहीं दिया। उन्होंने 1930-47 के कालखंड में पंडित नेहरू के आशीर्वाद से जम्मू-कश्मीर के अंतिम हिंदू शासक महाराजा हरि सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलकर साम्प्रदायिकता का बीजारोपण किया। अपने विषवमन से जो मजहबी उन्माद उन्होंने घाटी में फैलाया, उसने कालांतर में अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर हमले के समय अधिकतर रियासती मुस्लिम सैनिकों की तत्कालीन रियासत के साथ गद्दारी की नींव रखी, घाटी में अलगाववादी शक्तियों को मजबूती प्रदान की और 1980-90 के दशक में 5 लाख कश्मीरी पंडितों पर इस्लामी आतंकियों-जेहादियों के दमन और पलायन की पटकथा तैयार कर दी। 

कश्मीर को पूरी  तरह हिंदू-विहीन करना, घाटी को उसकी सनातन संस्कृति से काटना, सुरक्षाबलों पर पथराव, आतंकियों को शरण देना और मस्जिदों से भारत विरोधी नारे लगाना इत्यादि न तो किसी विकास के लिए है और न ही किसी बेरोजगार या गरीबी विरोधी अभियान का हिस्सा, यह लड़ाई केवल और केवल मजहबी उन्माद से जनित उस सुनामी से प्रेरित है, जो वैश्विक मानवता के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है। साम्यवादी चीन तो इस रोग का उपचार अपने ढंग से कर भी रहा है, जिसमें हाल ही में 10 लाख उइगर मुस्लिमों को कारावास में कैद करने की मीडिया रिपोर्ट भी सामने आई है। नि:संदेह यह तरीका भारत जैसे किसी भी लोकतांत्रिक, संवैधानिक और बहुलतावादी देश के लिए उपयुक्त नहीं है। 

इन सभी कठिनाइयों की पृष्ठभूमि में आप अपनी सूझबूझ और लगन से कश्मीर समस्या का समाधान और विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का प्रयास जिस प्रकार करेंगे, वही आपकी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर सफलता की कसौटी होगी। इसी शुभेच्छा के साथ आपको नई जिम्मेदारियों के निर्वहन हेतु एक बार फिर से हार्दिक शुभकामनाएं।-बलबीर पुंज

Pardeep

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