सीमित परिवार ही ‘कुपोषण और बीमारी’ से बचा सकता है

punjabkesari.in Saturday, Sep 05, 2020 - 03:54 AM (IST)

सितंबर का महीना पोषण माह के रूप में मनाए जाने की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की गई है, इसलिए यह जानना जरूरी है कि आखिर कुपोषण होता क्यों है और इसका व्यक्ति, परिवार तथा समाज पर क्या असर पड़ता है? उदाहरण के लिए वर्तमान महामारी ने स्वास्थ्य को लेकर जहां अनेक भ्रांतियों को तोड़ा है, मतलब यह कि कोई अपने को कितना ही हृष्ट-पुष्ट और बलशाली समझे, वह इस बीमारी की पकड़ से बाहर नहीं है, वहां इसके बचाव के रूप में एकमात्र उपाय यह बताया जाता है कि अपनी इम्युनिटी का स्तर अच्छा बनाए रखना चाहिए और यह तब ही हो सकता है जब हमारा खानपान पौष्टिक होगा। 

हवा, पानी और पोषण
प्रदूषण रहित वायु और पीने का स्वच्छ जल एक सीमित समय तक जिंदा रख सकता है लेकिन अगर स्वस्थ रहकर जीवित रहना है तो पौष्टिक आहार और अनुशासित जीवनशैली जरूरी है।  लेकिन यह कहना आसान है और पालन लगभग असंभव क्योंकि जब तक हमारे पास बढिय़ा साधन नहीं होंगे और जैसे तैसे पेट भरने की असलियत से मुक्त नहीं होंगे तब तक कैसे स्वस्थ रहकर बीमारियों से दूर रह सकते हैं?

हमारे खाने पीने में डाक्टरों के मुताबिक सही मात्रा में आयरन, आयोडीन, कैल्शियम और विटामिन न होने से जो समस्याएं उम्र बढऩे के साथ दिखाई देती हैं उनमें चोट लगने या जख्म हो जाने पर ठीक होने में जरूरत से ज्यादा देर लगना, बाल झडऩा हर वक्त कमजोरी और सुस्ती महसूस करना, हड्डियों में दर्द रहना और उनका बिना बात टूटने तक लगना, तलवे और जीभ में बिना मिर्च खाए या लगाए जलन होना, धड़कन का अनियमित हो जाना और रात में कम दिखाई देने लगना, रतौंधी हो जाना जैसी कठिनाइयां उस आयु से काफी पहले शुरू हो जाती हैं जब इनका होना सामान्य शारीरिक क्रिया माना जाता है, मतलब युवावस्था में ही बुढ़ापे की निशानियां शुरू हो जाती हैं। 

हमारे देश में लगभग आधी आबादी कुपोषण यानी पौष्टिक भोजन न मिलने से जूझ रही है। जन्म लेते ही जिन शिशुआें और उनकी माताओं को सही आहार के लाले पड़े रहते थे, उनकी मृत्यु उनसे आठ गुना अधिक होती है जिन्हें पौष्टिक आहार और सही देखभाल तथा टीकाकरण की सुविधा मिली होती है। कुपोषण का शिकार दूध पीते बच्चे चौदह गुना ज्यादा मरते हैं। यही नहीं पैंसठ साल से ऊपर की उम्र वाले 80 से 90 प्रतिशत लोग ईश्वर से उठा लेने की मन्नत मांगते रहते हैं क्योंकि वे असहाय, बीमार और आश्रित होकर जीना नहीं चाहते। एक उदाहरण हमारे लिए सबक हो सकता है और वह यह कि देश में जितने भी स्लम एरिया हैं, झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां हैं और एक ही कमरे में 8-10  और उससे भी अधिक सदस्यों के परिवार रहते आए हैं, उनका इस बीमारी को महामारी बनाने में सबसे अधिक योगदान है। 

यह तो स्वास्थ्य की हल्की सी झांकी हो गई लेकिन अभी बहुत से क्षेत्र एेसे हैं जिनमें बढ़ती आबादी से होने वाली परेशानियों की झलक आसानी से मिल सकती है। हर साल सवा करोड़ लोग रोजगार के काबिल हो जाते हैं, अढ़ाई करोड़ बच्चे शिक्षा पाने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके विपरीत हमारे जो संसाधन जल, जंगल, जमीन, खेतीबाड़ी और छोटे-बड़े काम-धंधे, कल कारखाने और उद्योग हैं, वे अपनी क्षमता या उससे अधिक भी काम करें तो भी बढ़ती जनसंख्या के सामने बौने साबित हो जाते हैं। एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। 

एेसे लोग बहुत कम संख्या में हैं जो भोजन के पौष्टिक होने का खर्च उठा सकते हैं क्योंकि जब परिवार में अधिक सदस्य होंगे तो सब को तंदरुस्त रखने वाला भोजन मिलना असंभव है। हमारा देश तो वैसे भी कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी काफी आगे है। 

सीमित परिवार का महत्व
यह समझ में आना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है कि हमारी सभी समस्याओं की जड़ एकमात्र जनसंख्या में बेरोकटोक वृद्धि है जो विस्फोटक तो है ही, साथ में भविष्य के लिए इतनी निराशाजनक है कि यदि हर कोई इसे रोकने की कोशिश नहीं करेगा तो हम जितना भी औद्योगिक उत्पादन बढ़ा लें, कितनी भी कृषि उपज शानदार हो जाए और विकास की चौतरफा योजनाएं बना लें, वे सब आवश्यकता से बहुत कम ही रहेंगी क्योंकि आबादी उससे कहीं अधिक रफ्तार से बढ़ रही है। क्या किसी ने सोचा है कि छह साल से कम उम्र के स्कूल जाने लायक हो चुके बच्चों में आधे से अधिक कुपोषित हैं, पढ़ाई लिखाई के बाद भी इन बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्तर में गिरावट होना क्या बताता है?-पूरन चंद सरीन
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News