एक राष्ट्र, एक चुनाव : सभी स्तरों पर व्यापक बहस की जरूरत

punjabkesari.in Wednesday, Feb 26, 2025 - 05:33 AM (IST)

दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा में हैट्रिक जीत के बाद भाजपा के कदमों में उछाल आ गया है। अब यह प्रधानमंत्री मोदी की पसंदीदा बातों में से एक पर वापस आ गया है- एक राष्ट्र एक चुनाव (ओ.एन.ओ.ई.), एक महत्वाकांक्षी विशाल उपक्रम जिसमें कानून मंत्रालय ने जोर दिया है कि एक साथ चुनाव नागरिकों के अधिकार पर कोई असर नहीं डालते और न ही वोट देने और चुनाव लडऩे के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। ओ.एन.ओ.ई. विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति को दिए गए जवाब में उसने इस बात पर जोर दिया कि यह संविधान के मूल ढांचे या संघवाद का उल्लंघन नहीं करता, इससे राजनीतिक विविधता और समावेशिता बढ़ेगी, राजनीति में नए चेहरे आएंगे और कुछ नेताओं को प्रमुख पदों पर एकाधिकार करने से रोका जा सकेगा। इसने याद दिलाया कि भारत की लोकतांत्रिक यात्रा लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनावों के साथ शुरू हुई थी। हालांकि, यह कांग्रेस की इंदिरा गांधी की सरकार थी, जिसने कई राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था, जिसने 1971 में समकालिक चुनावों को समाप्त कर दिया था। 

विधि आयोग ने तीन बार- 1999, 2015 और 2018 में नागरिकों, पाॢटयों और सरकार को अतुल्यकालिक चुनावों के बोझ से मुक्त करने के लिए एक साथ चुनाव कराने की वकालत की थी। इससे चुनाव कराने में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी, जैसा कि चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने की लागत 5,500 करोड़ रुपए आंकी है। अगर ऐसा है, तो क्या यह सर्वोत्तम राष्ट्रीय हित में उचित होगा? प्रधानमंत्री मोदी ऐसा ही सोचते हैं और 2016 से बार-बार ओ.एन.ओ.ई. का मुद्दा उठा रहे हैं। जबकि उनकी पार्टी और सहयोगी जद (यू), तेदेपा आदि इस बात से सहमत हैं, कांग्रेस, तृणमूल और समाजवादी इसे एक ‘नौटंकी’, अव्यावहारिक और लोकतंत्र विरोधी कहते हैं। निस्संदेह, एक साथ चुनाव कराने से शासन में व्यवधान और बार-बार चुनावों के कारण नीतिगत पक्षाघात से बचने में मदद मिल सकती है क्योंकि एक बार जब कोई पार्टी चुन ली जाती है और सरकार बन जाती है तो वह काम पर लग सकती है, जनहित में कठोर निर्णय ले सकती है और वोट बैंक पर इसके प्रभाव की चिंता किए बिना सुशासन देने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है।

वर्तमान में, शोरगुल वाले अभियान, फिजूलखर्ची, रैलियां, सड़कों को अवरुद्ध करना लगातार हमारे जीवन को बाधित करता है। हर साल एक के बाद एक राज्य में चुनाव होने के कारण, केंद्र और राज्य सरकारों को चलाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। इस परेशान करने वाली चुनावी वैंडिंग मशीनों के बीच भारत के चिरकालिक सतत चुनाव सिंड्रोम (पी.ई.एस.) का समाधान शायद हर पांच साल में एक मैगा चुनाव कराने के रामबाण उपाय में निहित है। लेकिन यह एक ऐसा विचार है जिस पर सभी स्तरों पर व्यापक रूप से बहस करने की आवश्यकता है। संसद द्वारा इसे मंजूरी देने से पहले इसके पक्ष और विपक्ष को तौला जाना चाहिए। चूंकि जिस बदलाव की वकालत की जा रही है, उसके लिए संविधान के मूल ढांचे को बदलना होगा।

15 दलों द्वारा ओ.एन.ओ.ई. का विरोध करने के साथ ही चुनौती प्रक्रियागत विवरण, नागरिकों के अधिकारों की सरकार द्वारा उपेक्षा और गैर-निष्पादक सरकारों को हटाने की है। फिर भी, आगे का रास्ता जटिल है और कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल। प्रधानमंत्री ने नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव और उसके बाद अगले साल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल के लिए बिगुल बजा दिया है। चुनाव आयोग ने कहा है कि वह 2029 में ओ.एन.ओ.ई. आयोजित कर सकता है। काल्पनिक रूप से, इसका मतलब है कि कई राज्य विधानसभाओं को भंग करना। नि:संदेह, कोई भी सरकार, चाहे वह किसी भी पार्टी की हो, केंद्र के साथ एकमत नहीं होगी। इसके अलावा, स्थानीय निकायों की अवधि में बदलाव के लिए राज्यों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। यहां तक कि राज्य चुनाव आयुक्त भी चुनाव आयोग को मतदाता सूची का अंतिम मध्यस्थ बनाने से कतराते हैं क्योंकि इससे संघीय ढांचा कमजोर होगा और राज्यों के ‘संघ’ के विचार के विरुद्ध होगा।

कुछ लोगों का मानना है कि एक साथ चुनाव कराना उचित नहीं है क्योंकि यह राजनीतिक विचारों से प्रेरित हो सकता है, क्योंकि जब एक साथ चुनाव होते हैं तो मतदाता एक ही पार्टी को वोट देते हैं। साथ ही, केंद्र और राज्यों में चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं जिससे भ्रम की स्थिति पैदा होगी। साथ ही, क्या होता है जब कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने में असमर्थ होती है? स्पष्ट रूप से, जिस सरकार को सदन का विश्वास नहीं है, उसे लोगों पर थोपा जाएगा और इस मामले में उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। इससे बचने के लिए चुनाव आयोग का सुझाव है कि किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के साथ-साथ किसी अन्य सरकार और प्रधानमंत्री के लिए विश्वास प्रस्ताव भी लाया जाना चाहिए और दोनों प्रस्तावों पर एक साथ मतदान किया जाना चाहिए। स्पष्ट रूप से, भारत के सतत चुनाव सिंड्रोम को खत्म करने के लिए बदलाव की हवा का समय आ गया है क्योंकि चुनाव हमारे लोकतंत्र की नींव हैं और हमें चुनावों के दोहराव से बचना चाहिए। भारत के लोकतंत्र को हर समय पाॢटयों के बीच तू-तू मैं-मैं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश 
 


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