‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ : निरंतर चुनावी नौटंकी से छुटकारा

punjabkesari.in Wednesday, Sep 25, 2024 - 05:12 AM (IST)

उमस भरे इस मौसम में हरियाणा और कश्मीर में जारी चुनावी नौटंकी के बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पूर्व राष्ट्रपति कोविंद समिति की 320 पेज की रिपोर्ट पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी है। इस रिपोर्ट में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की सिफारिश की गई है और केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा इस रिपोर्ट को स्वीकृति देने से देश में एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया का आरंभ हो चुका है। चुनावी प्रक्रिया दो चरणों में होगी। पहले चरण में लेाकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होंगे और उसके बाद 100 दिन के भीतर नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव होंगे। इसके साथ ही प्रावधान को लागू करने की तिथि निर्धारित करने के बाद किसी भी चुनाव में गठित सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल के समाप्त होने के साथ समाप्त हो जाएगा और इस संबंध में इस बात को ध्यान में नहीं रखा जाएगा कि विधानसभा का गठन कब हुआ था और इस संबंध में संवैधानिक संशोधन के लिए राज्यों के अनुसमर्थन की आवश्यकता नहीं होगी। 

विधि आयोग ने 2015 और 2018 में एक साथ चुनावों की सिफारिश की थी, ताकि नागरिकों, राजनीतिक दलों और सरकार को बार-बार चुनाव से छुटकारा मिल सके और यदि ऐसा होता है तो यह सर्वोत्तम राष्ट्रीय हित में होगा। प्रधानमंत्री मोदी की सोच यही है और वर्ष 2016 से उन्होंने अनेक बार एक राष्ट्र, एक चुनाव का उल्लेख किया है। एक राष्ट्र, एक चुनाव से नेताओं और पार्टी कार्यकत्र्ताओं को जनोन्मुखी योजनाएं चलाने का समय मिलेगा और साथ ही राजकोष और दलों का पैसा बचेगा। भाजपा और उसकी सहयोगी जद (यू) और तेदेपा आदि इसका समर्थन करती हैं, जबकि कांग्रेस, वामपंथी दल और तृणमूल कांग्रेस इसे एक दिखावा और अव्यावहारिक तथा लोकतंत्र विरोधी मानते हैं। एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में, ‘‘इसके लिए कम से कम 5 संवैधानिक संशोधन करने पडेंग़े और भाजपा के पास इसके लिए संख्या नहीं है।’’ 

वर्तमान में चुनावों के दौरान शोर-शराबापूर्ण चुनाव प्रचार, फिजूलखर्ची, रैलियां, सड़कों को बाधित करना आदि हमारे जीवन में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। बार-बार चुनाव होने से न केवल शासन प्रभावित होता है, जैसे कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि सभी अपनी-अपनी पाॢटयों के लिए चुनाव प्रचार करते हैं, किंतु यह हमारी राजनीति और शासन व्यवस्था को चारों ओर से प्रभावित करते हैं क्योंकि चुनावों का सिलसिला, सप्ताह-दर-सप्ताह, माह-दर-माह और वर्ष-दर-वर्ष निरंतर जारी रहता है। क्या हमें इसका सामना करना चाहिए? नि:संदेह यह अक्षमता और शासन में उदासीनता से मुक्ति प्राप्त करने का एक उपाय हो सकता है, किंतु यह एक ऐसा विचार है, जिस पर सभी स्तरों पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए और संसद द्वारा इसे स्वीकृति देने से पूर्व इसके लाभ-हानि पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि इस संशोधन का तात्पर्य है संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव लाना। 

जो लोग इसके पक्षधर हैं, उनका कहना है कि एक बार किसी पार्टी के निर्वाचित होने और उसकी सरकार बनने के बाद वह कार्य करने लगेगी और जनता के हित में कठोर निर्णय लेगी तथा अपने वोट बैंक पर इसके प्रभावों की परवाह किए बिना सुशासन देगी क्योंकि अनेक अच्छी पहलें केवल चुनावी कारणों से टाल दी जाती हैं, कि कहीं इससे जातीय, क्षेत्रीय और धार्मिक समीकरण न गड़बड़ाए और सब कुछ नीतिगत पंगुता, कुप्रबंधन और खराब कार्यान्वयन के शिकार बन जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद पहले दो दशकों में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ चुनाव हुए, जब तक इन चुनावों को राजनीति ने प्रभावित नहीं किया। 1971 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा को विघटित कर एक वर्ष पूर्व चुनाव कराए और इससे यह तारतम्य टूट गया, जिसके चलते केन्द्र और राज्यों में अनेक अस्थिर सरकारें बनीं। फलत: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का समय पूर्व विघटन होने लगा। 

फिर भी यह एक जटिल प्रक्रिया है। उदाहरण के लिए, जब केवल 180 निर्वाचन क्षेत्रों, 90 हरियाणा में और 90 जम्मू-कश्मीर में, चुनाव की घोषणा की गई तो निर्वाचन आयोग ने महाराष्ट्र में चुनाव स्थगित करने का कारण अर्धसैनिक बलों को तैनात न कर पाना और मौसम बताया। इसी तरह इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन्स भी इतनी अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। निर्वाचन आयोग का कहना है कि वह 2029 में एक राष्ट्र, एक चुनाव करा सकता है और अगर यदि ऐसा होता है तो इसका तात्पर्य है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं को चुनावों के 5 महीने बाद विघटित करना पड़ेगा  और महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव समय से पूर्व कराने पडेंग़े। 

नि:संदेह कोई भी सरकार, चाहे वह किसी भी पार्टी की हो, वह इस मामले में केन्द्र के साथ नहीं होगी। इसके अलावा स्थानीय निकायों के कार्यकाल को बदलने के लिए राज्य विधानसभाओं का अनुसमर्थन आवश्यक है। कुछ लोगों का मानना है कि एक साथ चुनाव कराना उचित नहीं क्योंकि यह राजनीतिक कारणों से प्रेरित हो सकता है क्योंकि जब एक साथ चुनाव कराए जाएंगे तो मतदाता एक ही पार्टी को मतदान करेंगे। इसके अलावा केन्द्र और राज्यों में चुनावी मुद्दे अलग-अलग होते हैं जिससे मतदाताओं में भ्रम पैदा होगा। यदि जनादेश प्राप्त कोई सरकार बहुमत खो देती है तो वह शासन में बनी रह सकती है या उसके स्थान पर दूसरी सरकार बन सकती है, जिसे जरूरी नहीं कि जनादेश प्राप्त हो और यदि कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा न कर पाए तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? स्पष्ट है कि ऐसी सरकार, जिसे सदन का विश्वास प्राप्त न हो, वह लोगों पर थोपी जाएगी और यह एक तरह से वास्तविक तानाशाही, अराजक तंत्र होगा और एक तरह से अप्रातिनिधिक सरकार बनेगी। 

इससे बचने के लिए निर्वाचन आयोग ने सुझाव दिया कि किसी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के साथ साथ दूसरी सरकार का गठन करने के लिए विश्वासमत भी लाया जाना चाहिए और इसके साथ ही दूसरे प्रधानमंत्री की घोषणा भी की जानी चाहिए तथा दोनों प्रस्तावों पर सदन में एक साथ मतदान किया जाना चाहिए और यही स्थिति राज्य विधानसभाओं में भी होनी चाहिए। देश के लोकतंत्र में चुनावों का अत्यधिक महत्व है। यदि संसद द्वारा एक राष्ट्र, एक चुनाव विधेयक को पारित किया जाता है तो भारत विश्व के उन तीन देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा जहां पर यह व्यवस्था है।  समय आ गया है कि भारत के परपेचुअल इलैक्शन सिंड्रोम में बदलाव किया जाए क्योंकि चुनाव हमारे लोकतंत्र की आधारशिला हैं और हमें बार-बार चुनावों से बचना चाहिए। भारत के लोकतंत्र को हर समय राजनीतिक दलों के बीच तू-तू, मैं-मैं नहीं बनाया जाना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश


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