‘अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र, सबसे पहले भारत’

Tuesday, Jan 26, 2021 - 05:36 AM (IST)

हमारे लोकतांत्रिक-सामाजिक विमर्श में इन दिनों भारतीयता और उसकी पहचान को लेकर बहुत बातचीत हो रही है। वर्तमान समय को ‘भारतीय अस्मिता’ के जागरण का समय भी कहा जा रहा है। सही मायने में यह ‘भारतीयता के पुनर्जागरण’ का भी समय है। कहते हैं गणतंत्र 100 साल में साकार होता है, बावजूद इसके क्या अपने स्व के प्रति हममें आज भी वह जागृति है, जिसकी बात हमारे राष्ट्रनायक आजादी के आंदोलन में कर रहे थे। एक लंबी उपनिवेशवादी छाया ने हमें जैसा और जितना जकड़ा है उससे अलग  होकर अपनी बात कहना कठिन कल भी था और आज भी है। आज जबकि हम एक बार फिर गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तब यह विचार जरूरी है कि हम कौन थे और हमें क्या होना है। 

हमारे बौद्धिक विमर्श में एक सबसे लांछित शब्द है-‘राष्ट्रवाद’। इसलिए राष्ट्रवाद की बजाय राष्ट्र, राष्ट्रीयता, भारतीयता और राष्ट्रत्व जैसे शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए क्योंकि ‘राष्ट्रवाद’ की पश्चिमी पहचान और उसके व्याख्यायित करने के पश्चिमी पैमानों ने इस शब्द को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसलिए नैशनलिज्म या राष्ट्रवाद शब्द छोड़कर ही हम भारतीयता के वैचारिक अधिष्ठान की सही व्याख्या कर सकते हैं। तभी सही मायने में हम अपने गणतंत्र की जड़ों को जान पाएंगे। 

भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टैंपरामैंंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बने रहने को मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढि़ बन गई किंतु एक समय तक यह हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर ‘जाब गारंटी’ भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, केवट, माली ये जातियां भर नहीं हैं। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी।

गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण की बजाय जाति की पहचान खास हो गई है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है, पर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार पर भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है। 

हम क्या 1947 में बने राष्ट्र हैं? क्या इसके पूर्व भारत नहीं था, ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। क्या गणतंत्र और लोकतंत्र की सोच हमें 1950 में मिली या हमारी जड़ों में थी? हम देखते हैं तो पाते हैं कि हमारा राष्ट्र राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है।

सत्य, अहिंसा, परोपकार, क्षमा जैसे गुणों के साथ यह राष्ट्र ज्ञान में रत रहा है, इसलिए यह ‘भा-रत’ है। डा. रामविलास शर्मा इस भारत की पहचान कराते हैं। इसके साथ ही इस भारत को पहचानने में महात्मा गांधी, धर्मपाल,अविनाश चंद्र दास, डा. राम मनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. विद्या निवास मिश्र, निर्मल वर्मा हमारी मदद कर सकते हैं। डा. रामविलास  शर्मा की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ हमारा दृष्टिदोष दूर कर सकती है। आर्य शब्द के मायने ही हैं श्रेष्ठ और राष्ट्र मतलब है समाज और लोग। शायद इसीलिए इस दौर में तारिक फतेह कह पाते हैं, ‘‘मैं हिंदू हूं, मेरा जन्म पाकिस्तान में हुआ है।’’ यानी भारतीयता या भारत राष्ट्र का पर्याय हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र भी है। 

‘भारतीयता’ भाववाचक शब्द है। यह हर उस आदमी की जमीन है जो इसे अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, जो इसके इतिहास से अपना रिश्ता जोड़ता है, जो इसके सुख-दुख और आशा-निराशा को अपने साथ जोड़ता है, जो इसकी जय में खुश और पराजय में दुखी होता है। समान संवेदना और समान अनुभूति से जुडऩे वाला हर भारतवासी अपने को भारतीय कहने का हक स्वत: पा जाता है। भारत किसी के विरुद्ध नहीं है। विविधता में एकता इस देश की प्रकृति है। 

भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है, ‘सबसे पहले भारत’। इसके साथ ही हमें अपने समाज में जोडऩे के सूत्र खोजने होंगे। भारत विरोधी ताकतें तोडऩे के सूत्र खोज रही हैं, हमें जोडऩे के सूत्र खोजने होंगे। किन कारणों से हमें साथ रहना है, वे क्या ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं जिनके कारण भारत का होना जरूरी है? इन सवालों पर सोचना जरूरी है। 

वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से दुनिया को देखना। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है। स्वामी विवेकानंद हमें इस कठिन दायित्वबोध की याद दिलाते हैं। वे हमें बताते हैं कि हमारा दायित्व क्या है। विश्व के लिए, मानवता के लिए, सुख और शांति के लिए भारत और उसके दर्शन की विशेषताएं हमें सामने रखनी होंगी। कोई भी समाज श्रेष्ठतम का ही चयन करता है। विश्व भी श्रेष्ठतम का ही चयन करेगा।-प्रो.संजय द्विवेदी 
 

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