पुराने कानूनों में ‘सुधार’ की जरूरत

punjabkesari.in Thursday, Jul 23, 2020 - 02:32 AM (IST)

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.), दंड प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) तथा साक्ष्य एक्ट में संशोधन तथा शोध के लिए नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर डा. रणबीर सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया है। इन कानूनों को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बनाया गया था ताकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके साम्राज्य का संरक्षण तथा भारतीयों को अपने अधीन किया जा सके। दुर्भाग्यवश इनमें से कई कानून आजादी के 70 वर्षों के बाद भी चालू तथा वैध हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि इसमें कई संशोधन किए जा चुके हैं तथा कुछ कानूनों को खत्म किया जा चुका है। मगर फिर भी अनेकों मौजूदा कानूनों में संशोधन बाकी है। 

इनमें से कई कानून बेहद संगीन मुद्दे जैसे व्यक्तिगत आजादी तथा अधिकार, देशद्रोह, आपराधिक मामले, लिंग मुद्दे तथा अधिकारियों के पास बड़ी शक्तियों का होने से संबंधित हैं। अनेकों पुरातन कानूनों की समीक्षा की जरूरत पर ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता। यह मांग दशकों पुरानी है मगर पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण अडवानी द्वारा मालीमठ कमेटी का गठन किया गया था जिसने आई.पी.सी. तथा सी.आर.पी.सी. में अनेकों बदलावों की सिफारिश की थी। हालांकि सरकारें कोई भी कठोर बदलाव करने के लिए अनिच्छुक दिखाई दीं। वर्तमान सरकार द्वारा इस मामले में दिखाई गई प्रतिबद्धता काबिल-ए-तारीफ है। 

इस निर्णय का स्वागत इसलिए भी है कि कमेटी को अपनी रिपोर्ट देने के लिए एक डैडलाइन रखी गई है। आमतौर पर ऐसी प्रक्रिया होती है जिसके तहत कानून आयोगों का गठन किया जाता है और उसके बाद उनकी अवधि बढ़ाई जाती है और सिफारिशें देने के लिए अनेकों साल लग जाते हैं। इस तरह ऐसी सिफारिशों परविचार बहुत सारा समय खा जाता है और नतीजा यह होता है कि कुछेक बदलाव ही मंजूर किए जाते हैं। आयोग ने अपने उद्देश्यों तथा लक्ष्यों में कहा कि हमारे आपराधिक कानून की साम्राज्यवादी नींव लम्बे समय से कानूनी बातचीत में एक चिंता का विषय है। आई.पी.सी., सी.आर.पी.सी. तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम के मौलिक सिद्धांत अभी भी ब्रिटिश साम्राज्य की विक्टोरियाई नैतिकता को प्रदर्शित करते हैं। 

5 सदस्यीय कमेटी को आपराधिक व्यावहारिक दुष्कर्म, यौन अपराधों, तटस्थ लिंग, इच्छा मृत्यु को वैध बनाना, आनर किलिंग, मॉब लिचिंग तथा देशद्रोह के अपराध को फिर से परिभाषित करना जैसे कानूनों की समीक्षा करने के लिए कहा गया है। इस आयोग को अपराध को करने की आपराधिक जिम्मेदारी की कम से कम आयु पर अपनी सिफारिशें देने के लिए कहा गया है। इस कानून को 2015 में संशोधित किया गया था ताकि 16 वर्ष की आयु से ऊपर के किशोर को या नाबालिग को वयस्क माना जाए जहां तक जघन्य अपराधों का सवाल है।

हालांकि कमेटी के संविधान को सभी ओर से इसके विभिन्न पहलुओं को लेकर आलोचना सहनी पड़ रही है। फिर चाहे इसका गठन हो, कार्य प्रणाली या फिर समयावधि हो। कानूनी सुधार केंद्रीय न्याय मंत्रालय के शासनादेश के अधीन आए हैं। इसकी रिपोर्ट को न्याय मंत्रालय द्वारा पढ़ा गया है और उसके बाद संसद को प्रस्तुत किया गया है। यह पहली बार है कि एक यूनिवर्सिटी को सिफारिशें देने के लिए (6 माह के भीतर) चार्ज दिया गया है। ऐसे आयोगों के सदस्यों में ज्ञान क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ, सेवानिवृत्त, न्यायाधीश, वकील तथा सरकारी अधिकारी शामिल हैं। 

वहीं बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने कमेटी में से वकीलों को पूरी तरह से बाहर रखने के लिए आपत्ति जताई है। अनेकों वरिष्ठ वकीलों तथा रिटायर्ड न्यायाधीशों ने भी इस कमेटी के गठन पर सवालिया निशान लगाए हैं। उनके अनुसार इस कमेटी की प्रक्रिया तथा उद्देश्य में अस्पष्टता झलकती है। महिला वकील द्वारा भी उनको इस कमेटी में प्रतिनिधित्व न दिए जाने को लेकर आपत्तियां दर्ज करवाई गई हैं। इसके अलावा अल्पसंख्यकों तथा समाज के निचले तबके के लोगों के प्रतिनिधित्व को लेकर भी आलोचना की जा रही है। यहां पर शंकाएं हैं कि सुरक्षा के नाम पर व्यक्तियों के सुरक्षा उपायों को पतला करने की सिफारिश यह कमेटी कर सकती है। ऐसी शंकाओं को दूर करने के लिए कमेटी को अपनी सीमा को और विस्तृत करना होगा तथा इसके सुधारों को लेकर और खुली बातचीत करनी होगी। लोकतंत्र के मूल्यों को बनाए रखने के लिए देशद्रोह, अदालत की अवमानना तथा आपराधिक मान-हानि से संबंधित पुराने कानूनों में बदलाव करना होगा।-विपिन पब्बी
 


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