हे भगवान! भारत को चीन जैसा मत बनने देना

Sunday, May 28, 2017 - 11:05 PM (IST)

पिछले हफ्ते मैं चीन में था। बचपन में एक फिल्म देखी थी ‘कोटनीस की अमर कहानी’, 1961-1962 में भारत में हिन्दी चीनी भाई-भाई के नारे सुने थे। फिर चीन के हमले के बाद ‘हकीकत’ फिल्म देखी, तो फौजियों के हाल पर बहुत दुख हुआ। उसके बाद 1965 के आसपास ‘संगीत नाटक अकादमी’ का एक नाटक देखा था ‘नेफा की एक शाम’ जिसकी हीरोइन एक चीनी महिला  थी। वह नेफा इलाके के हमारे लोगों को प्रेमजाल में फंसाकर जासूसी कर रही थी। 

इस सबसे अलग इतिहास की पुस्तकों में चीन की ‘ग्रेट वाल’ और चीन की कम्युनिस्ट क्रांति के बारे में भी पढ़ा था। मगध सम्राट अशोक ने चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए ईसा से 300 वर्ष पूर्व जो सफल  प्रयास किए, उनकी भी जानकारी थी और ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण भी पढ़ा था। गत 30 वर्षों में चीन की जो आर्थिक प्रगति हुई है, उसका यशगान तो सुनते ही आ रहे हैं। 

खुद हमारे प्रधानमंत्री जी भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे हैं और पिछले वर्ष 5 दिन चीन में बिताकर आए हैं। भारत के बाजार सस्ते और जल्दी खराब होने वाले चीनी सामान से पटे पड़े हैं। यह बात आप सब जानते हैं। कुल मिलाकर बचपन से चीन के अलग-अलग प्रतिबिंब मन मस्तिष्क पर छाए थे। पर उम्र के 62वें वर्ष में चीन जाने का मौका मिला तो पिछले हफ्ते जो देखा उसका एक मिश्रित अनुभव आपसे बांट रहा हूं। लोकतंत्र की मांग करने  वाले हजारों युवाओं को ‘तिनानमिन स्क्वेयर’ पर बेदर्दी से पैटन टैंकों से भून देने वाले चीन के हुक्मरान कितने संवेदना शून्य हैं कि उन्होंने पेइचिंग और शंघाई से लगभग सभी बड़े-बूढ़ों को ही खदेड़ कर बाहर कर दिया है जिससे कि इन शहरों में पर्यटकों को युवा और खूबसूरत जोड़े ही दिखाई दें। इससे चीनी लोगों के व्यवहार में आम तौर पर कोई गर्मजोशी नहीं रही। 

वे दुनिया को एक बाजार की तरह देखते हैं और हर व्यक्ति को खरीदार की तरह। पेइङ्क्षचग और शंघाई जैसे शहर आधुनिक खूबसूरती, तकनीकी विकास, चकाचौंध और साफ-सफाई में दुनिया के अग्रणी शहरों में हैं। न्यूयॉर्क और मॉस्को भी उनका मुकाबला नहीं कर सकते, पर इन शहरों की आत्मा मर गई है। चीन की सांस्कृतिक परम्पराएं समाप्त हो गई हैं। समाज का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो गया है। हर एक मीटर की दूरी पर लगे कैमरों ने व्यक्ति की आजादी को आमूलचूल रूप से खत्म कर दिया है। 

इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि इन दोनों बड़े शहरों में आपको ढूंढने से भी कोई पुलिस वाला दिखाई नहीं देगा, फिर भी 2.5 करोड़ की आबादी वाले इन शहरों में अपराध या अव्यवस्था का नामो-निशान नहीं है। सुनकर लगेगा कि वाह यह तो राम राज्य है, पर असलियत यह है कि हर आदमी अदृश्य पुलिस के आतंक के साए में जी रहा है। हर व्यक्ति के हर काम पर हर वक्त निगाह है। ऐसे में हर व्यक्ति डरा और सहमा दिखाई देता है। यह भयावह स्थिति है। यहां आप न तो राजनीतिक व्यवस्था से सवाल पूछ सकते हैं, न उस पर टिप्पणी कर सकते हैं और न उस पर अखबार और टैलीविजन में बहस कर सकते हैं। जो आकाओं ने कह दिया वह आपको मानना होगा।

यही कारण है कि 5000 सांसद भी अगर देश की व्यवस्था पर विचार करने बैठें तो सवाल खड़े नहीं करेंगे, नेता के आदेश का पालन करेंगे। चीन की आम जनता किस बदहाली में जी रही है, इसका तो कोई जिक्र ही नहीं होता। टीन-खप्पर के झुग्गीनुमा घरों में रहकर, दो वक्त उबले नूडल्स खाकर और 10 घंटे बिना सिर उठाए कारखानों में काम करके चीनी लोग एक मशीन का पुर्जा बन गए हैं। यह कैसा विकास है? जो आदमी को पुर्जा बना देता है। उसकी आत्मा को मार देता है। उसके जीवन से हर्षोल्लास छीन लेता है। उसकी आस्थाओं को नष्ट कर देता है। उसको प्लास्टिक की नकली जिंदगी जीने पर मजबूर कर देता है। 

क्या विकास का यह मॉडल हमारा आदर्श हो सकता है? उस भारत का जिसके हर भौगोलिक क्षेत्र का अपना सांस्कृतिक इतिहास है। जहां नित्य आनंद और उत्सव हैं। जहां घर की तिजोरियों में छिपी दादी-पोतियों की खानदानी विरासत है। जहां आस्था के 33 करोड़ प्रतीक हैं। जहां हजारों साल की सतत् चलने वाली सांस्कृतिक परम्पराएं हैं। नहीं, चीन हमारा आदर्श कदापि नहीं हो सकता। यूरोप और अमरीका तो पहले ही हमारे आदर्श नहीं थे। हमारा आदर्श तो हमारा अपना अतीत होगा। जो तकनीकी आधुनिकता को उपकरण के रूप में तो प्रयोग करेगा, पर उसका गुलाम नहीं बनेगा। 

चीन जाकर कोई सुखद अनुभूति नहीं हुई बल्कि मन में एक आशंका और भय व्याप्त हो गया कि अगर कहीं हम इस रास्ते पर चल पड़े तो हममें और शंघाई-सिंगापुर में क्या अंतर रह जाएगा? क्या 40 साल का इनका तथाकथित विकास भारत के हजारों साल के इतिहास पर हावी हो जाएगा? क्या हम भी अपनी जड़ों से इसी तरह कट जाएंगे? क्या हम प्लास्टिक संस्कृति के अंग बनकर इसी तरह लाचार और बेसहारा हो जाएंगे तथा अपनी मौलिक सृजनशीलता को खो देंगे? दिल्ली वापसी की फ्लाइट में मैंने भगवान से एक ही प्रार्थना की, ‘हे योगेश्वर कृष्ण, तुम इस तपोभूमि भारत को चीन जैसा मत बनने देना।’     

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