अब हमें भारतीय ‘लोकतंत्र के श्राद्ध’ की तैयारी शुरू करनी चाहिए

Friday, Jun 26, 2020 - 03:46 AM (IST)

आज 26 जून के दिन देशभर में एमरजैंसी की वर्षगांठ को शुद्ध भारतीय रस्मी तरीके से मनाया जाता है। अब स्वतंत्रता सेनानी तो बचे नहीं, सो एमरजैंसी में 19 महीना जेल काट कर आए सेनानियों को हम स्मरण कर लेते हैं। इस दिन बुजुर्ग लोग इंदिरा गांधी को कोस लेते हैं और कांग्रेसी अपना मुंह छुपाते पाए जाते हैं। जो लोग आज इंदिरा गांधी के नक्शे कदम पर चलते हुए लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं, वह इस रस्म के बहाने लोकतंत्र के चौकीदार की भूमिका में नजर आते हैं। इसलिए इस निरर्थक रस्म को अब बंद कर देना चाहिए। 

इससे मुझ जैसे उन तमाम लोगों को पीड़ा होगी जो एमरजैंसी का विरोध करते हुए बड़े हुए। जब एमरजैंसी लगी तब मैं सिर्फ 12 साल का था। हम श्रीगंगानगर, राजस्थान में रहते थे जहां पिताजी खालसा कॉलेज में प्राध्यापक थे।  मुझे याद है वह दिन जब पिताजी के कॉलेज से हमारे शुभचिंतक हमारे घर मेरी मां को समझाने आए थे। ‘‘भाभी जी, ये तो साधु आदमी हैं। इनका कुछ नहीं जाएगा। लेकिन आपका और बच्चों का क्या बनेगा, अगर यह जेल में चले गए? इन्हें समझाइए, इंदिरा गांधी के खिलाफ बोलना बंद कर दें।’’ 

मुझे याद है लोग दबी जुबान में बात करते थे, कुछ बोलने से पहले इधर-उधर देख लेते थे। रेडियो तो सरकारी था ही, अखबार भी इंदिरा गांधी की प्रशंसा से भरे रहते थे। नसबंदी की चर्चा कानाफूसी में होती थी। अपने आपको मनाने के लिए नित नए बहाने गढ़े जाते थे,‘‘कुछ भी कहिए, एमरजैंसी में ट्रेनें तो टाइम पर चल रही हैं।’’ या फिर ‘‘यह तो आपको मानना पड़ेगा कि महंगाई कम हो गई है’’। जब विनोबा भावे जैसे संत ने ही एमरजैंसी को ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दे दी थी, तो छोटे लोगों की क्या बिसात। सच के लिए ले देकर हर शाम मार्कटली, रत्नाकर भारतीय और बी.बी.सी. का सहारा था।

मुझे याद है चुनाव परिणाम की वह शाम जब मैं गिनती केंद्र के बाहर परिणाम का इंतजार करती भीड़ के बीच खड़ा था। आकाशवाणी बाकी सब खबरों को दबाकर सिर्फ आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लीड बता रही थी। लेकिन तभी बी.बी.सी. से अमेठी में संजय गांधी और रायबरेली में इंदिरा गांधी के गिनती में पिछडऩे की खबर आई। उस क्षण वहां खड़ी जनता के बीच जो बिजली कौंधी थी, उसे मैंने लोकतंत्र के रूप में पहचाना था। शायद उसी क्षण मैं एक चुनाव विश्लेषक, राजनीति शास्त्री और राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन गया था। 

जब तक इंदिरा गांधी जिंदा थीं, तब तक उनके अधिनायकवाद की याद दिलाने के लिए एमरजैंसी की वर्षगांठ मनाना जरूरी था। जब तक कांग्रेस का दबदबा जारी था तब तक इस पाप को याद रखने के लिए यह रस्म जरूरी थी। आज उसी पुराने रस्मी तरीके से एमरजैंसी का विरोध हमारे लोकतांत्रिक संकल्प को मजबूत करने की बजाय ढीला करता है। हम इस खुशफहमी का शिकार रहते हैं कि लोकतंत्र का गला घोंटने की वह नापाक कोशिश सिर्फ एक औरत का अहंकार था। वह तो अब रही नहीं। एमरजैंसी के बाद इंदिरा गांधी की हार हमें झूठा दिलासा देती है कि लोकतंत्र बचाने के लिए पूरी जनता ने संघर्ष किया था। लोकतंत्र के खतरे को एमरजैंसी के चश्मे से देखने का सबसे बड़ा नुक्सान यह है कि यह आज हमारी आंखों के सामने हो रही लोकतंत्र की हत्या से हमारा ध्यान खींच कर भविष्य की ओर ले जाता है। हम लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए एमरजैंसी जैसे किसी झटके की आशंका के प्रति आगाह करते रहते हैं। लेकिन 21वीं सदी में लोकतंत्र की हत्या एक झटके में नहीं होती। लोकतंत्र के हत्यारे फौजी वर्दी पहन कर इसकी मृत्यु की घोषणा टी.वी. पर नहीं करते। 

नाम के वास्ते कोर्ट कचहरी जिंदा है, लेकिन जजों और स्वतंत्र जांच करने वाली तमाम संस्थाओं को बहला-फुसला या धमका कर सरकार की तरफ कर लिया गया है। कहने को गैर सरकारी मीडिया भी है। लेकिन सब की बांह मरोड़ कर उन्हें सरकार के गुणगान में लगाया हुआ है। जो मुंह खोलने की हिम्मत करता है उन पत्रकारों की नौकरी चली जाती है या उस मीडिया कंपनी पर छापे पड़ते हैं। क्या आज का भारत इसी रास्ते पर नहीं बढ़ रहा? पिछले कुछ समय से सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग, सी.बी.आई. सतर्कता आयोग और सी.ए.जी. जैसी संस्थाओं में आखिर हो क्या रहा है? अगर स्वतंत्र मीडिया का धर्म सत्ता से सवाल पूछना है तो हमारा मीडिया सारे सवाल विपक्ष से क्यों पूछ रहा है? सरकार का विरोध करने वालों पर ऊल-जलूल मुकद्दमें क्यों बन रहे हैं? सत्ताधारी पार्टी के हिंसा भड़काने वाले नेता खुले क्यों घूम रहे हैं? 

आज एमरजैंसी को याद करना 1975 से 1977 के बीच भारतीय लोकतंत्र की दुर्दशा का विलाप नहीं हो सकता। आज इसका एक ही सार्थक स्वरूप हो सकता है कि हम 2020 के भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा की ङ्क्षचता करें। नहीं तो 2025 में एमरजैंंसी की 50 वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमें भारतीय लोकतंत्र की बरसी मनानी पड़ेगी और उसके श्राद्ध की तैयारी शुरू करनी होगी।-योगेन्द्र यादव
 

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