नोटबंदी : वर्तमान सत्ताधारियों में ‘पश्चाताप’ के कोई संकेत नहीं

Friday, Nov 16, 2018 - 04:28 AM (IST)



मैं सुनिश्चित नहीं हूं कि किसने पहले मोदीनोमिक्स के साथ-साथ विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह के मनमोहनिक्स का विचार उछाला। मुझे वित्त मंत्री के तौर पर अर्थशास्त्री सिंह के साथ साक्षात्कार याद है। जब वह पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में थे। मैं तब अर्थशास्त्र में उनके एक सामान्य व्यक्ति की तरह के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ था। जिस कारण उन्हें भारत जैसे गरीबी के मारे विकासशील देश के लिए आर्थिक समझ हेतु अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त थी। 

नई दिल्ली के नार्थ ब्लाक में प्रतिष्ठित पद प्राप्त करने से पूर्व वह बम्बई, जिसे अब मुम्बई के नाम से जाना जाता है, स्थित रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आर.बी.आई.) के गवर्नर थे। वह गौरव तथा सम्मानपूर्वक ढंग से आर.बी.आई. की संगठनात्मक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए पेचीदा आर्थिक-वित्तीय मामलों से निपटने की कला जानते थे। वह भारतीय राजनीति की पेचीदा प्रकृति को समझते थे। मगर उन्होंने कभी भी अपनी जमीनी अर्थव्यवस्था तथा वित्तीय समझ के ऊपर राजनीति के पत्ते नहीं खेले। 

मेरे विचार मुझे वापस चंडीगढ़ ले जाते हैं, जहां मुझे कई बार मृदुभाषी प्रधानमंत्री से बात करने का अवसर मिला, जिन्होंने कभी अपनी अत्यंत समझदारी, ईमानदारी तथा सामान्य व्यक्ति व देश की अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के लिए अपने जुनून का दिखावा नहीं किया। यह तब भली-भांति प्रतिबिंबित हुआ जब उन्होंने 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी के बड़े निर्णय की दूसरी ‘बरसी’ पर एक वक्तव्य जारी किया, जिससे समाज का हर वर्ग प्रभावित हुआ। 

पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘‘आज याद करने का दिन है कि कैसे आॢथक विपदाएं लम्बे समय के लिए देश को परेशान कर सकती हैं और यह समझें कि आर्थिक नीति निर्माण के साथ विचारपूर्वक तथा सावधानी से निपटा जाना चाहिए।’’ अफसोस कि वर्तमान सत्ताधारियों में पश्चाताप के कोई संकेत नहीं हैं। 

वित्तीय बाजार अस्थिर है
मनमोहन सिंह ने कहा था कि छोटे तथा मध्यम उद्योग, जो भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार हैं, को अभी नोटबंदी के झटके से उबरना है। इसका सीधा प्रभाव रोजगार पर पड़ा है क्योंकि अर्थव्यवस्था हमारे युवाओं के लिए पर्याप्त नए रोजगार पैदा करने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही है। वित्तीय बाजार अस्थिर है क्योंकि नोटबंदी से उत्पन्न तरलता का संकट ढांचागत निवेशकों तथा गैर बैंकिंग वित्तीय सेवाओं के रूप में अपनी कीमत वसूल रहा है। मुद्रा के अवमूल्यन तथा वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतें बढऩे से अब विपरीत मैक्रो-इकनोमिक परिस्थितियां भी खड़ी हो गई हैं। 

न्यूनाधिक ऐसे ही विचार आर.बी.आई. के जाने-माने पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने व्यक्त किए थे। 9 नवम्बर को बर्कले में यूनिवॢसटी आफ कैलिफोर्निया में बोलते हुए वह नोटबंदी तथा जी.एस.टी. पर अपने विचार व्यक्त करते हुए पूरी तरह से केन्द्रित थे। उन्होंने कहा कि 2 प्रमुख ‘विपरीत परिस्थितियों’ ने गत वर्ष भारत के आर्थिक विकास को रोक दिया। 

नोटबंदी पर विचारों में भिन्नता
कैसी विडम्बना है कि वित्त मंत्री अरुण जेतली तथा अन्य भाजपा नेताओं ने नोटबंदी अभियान के आलोचकों को ‘कयामत के भविष्यवक्ताओं’ की संज्ञा दी थी। नोटबंदी पर विचारों में भिन्नता इसके आलोचकों को कयामत के भविष्यवक्ता नहीं बनाती, इस शब्दावली का इस्तेमाल सत्ताधारी नीति-निर्माताओं द्वारा अपनी खामियों को छुपाने के लिए सहूलियत अनुसार किया जाता है, जिन्होंने भारतीय समाज के लगभग सभी वर्गों के बीच एक डर की स्थिति पैदा कर दी थी। यह सत्ताधारियों की मानसिकता को दर्शाता है जो यह मानते हैं कि ‘हम कोई गलती नहीं कर सकते।’ यह मोदी की अध्यक्षता वाले भाजपा नीत राजग शासन की त्रासदी है। हमें अभी भी नहीं पता कि किस विशेषज्ञ अथवा विशेषज्ञों के समूह ने उन्हें इस जोखिम भरे रास्ते पर डाला था। लोकतांत्रिक सरकार  गोपनीयता के आधार पर नहीं चल सकती। 

रघुराम राजन ने सही कहा था कि ‘राजनीतिक नीति निर्माण में सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण भारत की मुख्य समस्याओं में से एक है।’ उन्होंने स्वीकार किया कि नोटबंदी तथा जी.एस.टी. के ‘दो झटकों’ से पूर्व चार वर्षों (2012 से 2016) के दौरान भारत तेज रफ्तार से तरक्की कर रहा था। हालांकि मैं जी.एस.टी. के फायदे अथवा नुक्सान में नहीं जाऊंगा। इसमें कुछ गम्भीर समस्याएं हैं, जिनमें अत्यधिक अफसरशाही वाले कागजी कार्य के कारण जनता के कर चुकाने वाले वर्गों को होने वाला नुक्सान भी शामिल है। 

यह दुख की बात है कि वर्तमान सरकार ने अभी तक सिस्टम की कार्यप्रणाली आसान नहीं की है और न ही जरूरी वित्तीय सुधार लागू किए हैं। ऐसे सुधारों को अर्थव्यवस्था की जमीनी स्थितियों तथा संबंधित मामलों से अपनी ताकत प्राप्त करनी होगी। नोटबंदी के साथ सबसे बड़ी समस्या  ग्रामीण जमीनी हकीकतों तथा सामान्य नागरिकों के सम्भावित संकटों तथा अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की दुर्दशा की समझ  का अभाव था। लाखों लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दीं लेकिन कौन उनकी चीखें सुनेगा और ‘सॉरी’ कहेगा। यहां समस्या सत्ता में बैठे लोगों के अहंकार की भी है जो यह सोचते हैं कि ‘हमारा प्रधानमंत्री कोई गलती नहीं कर सकता’ और वे यह कठोर सच्चाई भूल जाते हैं कि परमात्मा को भी अपने श्रद्धालुओं के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। मुझे आशा है कि मोदी को किसी न किसी समय भारत यानी कि इंडिया की जमीनी हकीकतों की समझ आ जाएगी। 

यहां प्रश्र ‘2 वर्षों’ में आंकड़ों द्वारा यह दर्शाने का नहीं है कि कर आधार में वृद्धि हुई है या अर्थव्यवस्था का बड़ा औपचारीकरण हुआ है अथवा भारत तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का तमगा फिर से हासिल कर रहा है। वास्तविक चुनौती हमारी विकसित अर्थव्यवस्था के सभी पक्षों का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित करने में निहित है। ‘वास्तविकता यह है कि 7 प्रतिशत (विकास) उन जैसे लोगों के लिए नहीं है जो मजदूरी बाजार में आ रहे हैं और हमें उनके लिए नौकरियों की जरूरत है। इसलिए हमें अधिक की जरूरत है तथा हम इस स्तर पर संतुष्ट नहीं हो सकते।’ श्रीमान प्रधानमंत्री, इसी में बड़ी चुनौती छिपी है। उन्हें भारत की एक बड़ी तस्वीर देखने तथा अमीर हितैषी होने के लेबल से बाहर आने की जरूरत है। 

गुजरात भारत नहीं
निश्चित तौर पर हम गुजरात के लोगों को उनकी उद्यमशीलता की भावना के लिए सलाम करते हैं। मगर मेरा बिंदू यह है कि गुजरात भारत नहीं है। भारत का चेहरा 50-60 गांवों के बाद बदल जाता है। हम आशा करते हैं कि प्रधानमंत्री तथा उनकी टीम अन्य भारत की कड़ी सच्चाइयों का आकलन करेगी जो गांवों में रहता है। यहां लोकप्रियता के लिए भटके हुए ‘चमत्कार’ काम नहीं आएंगे। भारत की बदलती छवि में हमें बदलती जमीनी हकीकतों तथा युवा भारतीयों, गरीबों, वंचितों, जनजातियों तथा अल्पसंख्यकों की बढ़ती आकांक्षाओं को समझने की जरूरत है।-हरि जयसिंह

Pardeep

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