विद्यार्थी संकीर्ण राजनीति करने की बजाय पढ़ाई की ओर ध्यान दें

Wednesday, Mar 02, 2016 - 01:38 AM (IST)

(कुलदीप नैयर): छात्रों को राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं, यह सवाल आजादी के पहले भी था। यही विवाद उठा था जब मैं लाहौर में कानून की पढ़ाई कर रहा था। हम लोग आजादी की लड़ाई से अपनी एकजुटता दिखाने के लिए महात्मा गांधी या किसी राष्ट्रीय नेता की अपील होने पर क्लास छोड़ देते थे। ब्रिटिश शासकों के खिलाफ आंदोलन था और हमें कभी नहीं लगा कि हम अपनी पढ़ाई का नुक्सान कर रहे हैं। 

 
उस समय भी जब पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए अलग वतन का नारा दिया तो हमने धर्म के ङ्क्षखचाव का विरोध किया था। सच है कि हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग खाना पकता था लेकिन हम लोग साथ खाते थे और दोनों रसोई घरों से खाना लेते थे। धर्म के नाम पर समाज में हो रहे बंटवारे के माहौल का हम पर बहुत कम असर था।
 
आज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ए.बी.वी.पी.) देश के विश्वविद्यालयों में नरम हिंदुत्व की वकालत कर रहा है। हिंदुत्व के इस समुद्र में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) शायद एक द्वीप की तरह है। फिर भी, इस विश्वविद्यालय और इसके छात्रों को इसका पूरा श्रेय जाता है कि उन्होंने भारत की सोच ‘लोकतंत्र, विविधता और बराबरी’ को कमोबेश सुरक्षित रखा है। दुर्भाग्य से सैकुलरिज्म को बनाए रखने का संघर्ष अभी भी जारी है।
 
कुछ समय पहले, कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी छात्रों, जिनकी संख्या 5-6 से ज्यादा नहीं रही होगी, ने जे.एन.यू. की उदार छवि को नुक्सान पहुंचाया और भारत की बर्बादी के नारे लगाए। जे.एन.यू. के वाइस-चांसलर डा. जगदीश कुमार ने मुझे बताया कि इन छात्रों की संख्या मुठ्ठी भर से ज्यादा नहीं थी। लेकिन उन्होंने विश्वविद्यालय की छवि खराब कर दी।
 
हर दम अपनी टी.आर.पी. (दर्शकों की संख्या) बढ़ाने की कोशिश में लगे रहने वाले इलैक्ट्रानिक मीडिया ने यह धारणा फैला दी कि जे.एन.यू. ऐसी जगह है जहां कट्टरपंथी और अलगाववादी पैदा होते हैं। यह संदेह था कि एक टी.वी. चैनल ने जिस वीडियो को दिन भर चलाया वह फर्जी था।
 
उदाहरण के रूप में जे.एन.यू. देशद्रोह मामले में चैनल के कवरेज में गंभीर भूलों के विश्व दीपक के दावे को लें। चैनल से इस्तीफा देने वाले पत्रकार ने लिखा, ‘‘हम पत्रकार अक्सर दूसरों से सवाल करते हैं, खुद से नहीं। हम दूसरों की जिम्मेदारियां तय करते हैं, अपनी नहीं। हम लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाते हैं लेकिन क्या हम, हमारी संस्थाएं, हमारी सोच और हमारे कदम वास्तव में लोकतांत्रिक हैं? यह सिर्फ मेरा सवाल नहीं, हर किसी का है।’’
 
बहुत हद तक, मैं दीपक से सहमत हूं। हम पत्रकार अक्सर व्यवहार करने के बदले उपदेश देने में लगे रहते हैं। अपने मालिक को लिखे गए खत में ऐसे शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए माफी मांगते हुए वह पूछता है, ‘‘कन्हैया कुमार के साथ कई और छात्रों को हमने लोगों की नजर में ऐसा बना दिया है कि वे देशद्रोही लगें। अगर कल किसी की हत्या हो जाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? हमने न केवल किसी की हत्या या कुछ परिवार को बर्बाद करने का माहौल बना दिया है बल्कि हमने दंगा फैलाने और देश को गृहयुद्ध के किनारे खड़ा करने लायक परिस्थिति पैदा कर दी है। यह किस तरह की देशभक्ति है? आखिरकार यह किस तरह की पत्रकारिता है?’’
 
लेकिन मैं भारतीय संसद पर हमला करने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु को श्रद्धांजलि देने की अलगाववादियों की गुस्ताखी को खारिज नहीं करता। यह निंदनीय है लेकिन सवाल यह है कि क्या उन्हें राष्ट्र का एजैंडा तय करने दिया जाए जब भारत की आबादी लोकतंत्र और विविधता को जबरदस्त रूप से स्वीकार करने लगी है। जे.एन.यू. की घटना को यह मौका नहीं देना चाहिए कि वह धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होने के बाद देश की अनेकता बनाए रखने के लिए की गई कठिन मेहनत को कमजोर करें।
 
वास्तव में जे.एन.यू. लंदन के ऑक्सफोर्ड या अमरीका के हार्वर्ड की तरह है। एक उदार माहौल है और निराले विचारों जो सामान्य चिंतन के खिलाफ हैं, को भी सामान्य भाव से लिया जाता है। कोई भी किसी की मंशा पर सवाल नहीं उठाता क्योंकि मूल बातों पर शक नहीं किया जाता है।
 
जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जे.एन.यू. की स्थापना की थी तो उनका उद्देश्य था छात्रों को उनके पिता के विचारों से प्रेरित किया जाए। आजादी के आंदोलन से निकले नेहरू राष्ट्र के आदर्श थे, कांग्रेस पार्टी के नहीं जिसने अंग्रेजों के शोषणकारी शासन से देश को बाहर निकाला था। उनकी पुत्री इंदिरा गांधी का उद्देश्य बेशक नेहरू के नाम को चलाए रखने का था। लेकिन वह आधुनिक भारत के वास्तविक शिल्पकार थे और याद तथा अनुसरण किए जाने योग्य थे।
 
बंगलादेश के पास ऐसा कोई संस्थान नहीं है। लेकिन पाकिस्तान में लाहौर का लूम्स है जो जे.एन.यू. की तरह है और उसी तरह की छवि रखता है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव इसकी पुष्टि करता है। वहां के कैम्पस में एक व्याख्यान के दौरान इंजीनियरिंग की एक छात्रा ने सवाल किया था कि देश का बंटवारा क्यों हुआ, इसके बावजूद कि दोनों तरफ लोग एक ही तरह के थे, एक ही तरह का खाना खाते थे और एक ही तरह का लिबास पहनते थे।
 
छात्रा का विचार बिना किसी पूर्वाग्रह का था और यह संकेत देता था कि माहौल दूषित नहीं हुआ था। वह भी 40 साल पहले। आज धार्मिक पार्टियों ने राजनीतिक फायदे के लिए समाज का अपहरण कर लिया है। दुर्भाग्य की बात है कि धर्म ने विश्वविद्यालयों में गहरी पैठ बना ली है।
 
आर.एस.एस., जो मोदी को अपने नागपुर मुख्यालय से मार्गदर्शन करता हुआ दिखाई देता है, महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोगों को बिठा रहा है जो हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थक हैं। सैकुलर विचारों के लिए जाने जाने वाले नामी विद्वानों को खदेड़ दिया गया है क्योंकि आर.एस.एस. नहीं चाहता कि छात्र राजनीति को धर्म से अलग रखने के उनके विचारों से प्रेरित हों। अगर एक लोकतांत्रिक शासन को कोई अर्थ पाना है तो उसे धार्मिक पहचान से अलग रखना होगा जिन्हें अब नया रूप दिया जा रहा है।
 
दुर्भाग्य से, अन्य क्षेत्रों पर भी प्रभाव पड़ रहा है। पटियाला हाऊस मामले का ही उदाहरण लीजिए। भाजपा से जुड़े कुछ वकीलों ने हंगामा किया और छात्र नेता और पत्रकारों को पीटा जब कन्हैया कुमार को अदालत में पेश किया जाना था। कन्हैया के इस बयान का हमलावरों पर कोई असर नहीं हुआ कि उसका उन छात्रों से कोई लेना-देना नहीं है जिन्होंने राष्ट्र विरोधी नारे लगाए थे। 
 
कहते हैं कि हमलावरों में कुछ बाहरी थे जिन्होंने वकीलों का लिबास पहन लिया था। यही समय है कि राजनीतिक पाॢटयां साथ मिलकर उन कदमों के बारे में सोचें कि छात्र संकीर्ण राजनीति करने की बजाय अध्ययन में अपना समय लगाएं। राष्ट्र को इसका नुक्सान होगा अगर छात्रों, जो इस उम्र में आदर्शवादी होते हैं, को वैसे विचार पैदा करने का मौका नहीं दिया जाता जो भविष्य में देश को अपनी सोच को संजोने में मदद करेंगे।
 
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