शासक नहीं, जनता है कर्णधार

Saturday, Jun 25, 2022 - 07:36 AM (IST)

एक कहावत है, जहां देखी तवा परात, वहां गंवाई सारी रात। इसका सीधा-सा अर्थ है कि जिस स्थान पर पेट भरने का साधन हो, जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अभाव न हो, रहने की व्यवस्था हो और अपना अंत समय आने तक आराम से रहा जा सके, वह सर्वश्रेष्ठ है। 

जीवन की राह : जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा में अनेक पड़ाव आना निश्चित है, जिन्हें व्यक्ति अपनी सामथ्र्य और इच्छा के अनुसार पार भी करता है। अपने स्वभाव के अनुसार सिद्धांत और मूल्य बनाता है। यही नहीं, अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ स्वयं अपने और दूसरों के लिए नैतिकता, ईमानदारी, भलमनसाहत तथा व्यवहार के मापदंड तैयार कर लेता है और अपेक्षा करता है कि वर्तमान और भविष्य की पीढिय़ां उनका पालन करें। बहुतों ने अपना वर्चस्व यानी कि यह मनवाने के लिए कि वह औरों से श्रेष्ठ हैं, अपने नाम से उन्हें प्रसिद्ध और नैतिकता परखने की कसौटी के रूप में प्रचारित भी किया है। 

प्राचीन काल के हमारे ग्रंथों में कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की धुरियों पर हमारा जीवन टिका है। इनकी व्याख्या करने के लिए सत्य, अङ्क्षहसा, आस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के पांच सूत्र भी बनाए गए। इन पर चलने के लिए दूसरों के प्रति आदर, सहानुभूति, प्रेम और मानवीयता का व्यवहार करने की परंपरा बनाई ताकि सुख-शांति से और मिलजुल कर जीवन का मार्ग तय हो जाए। यह एक आदर्श स्थिति हो सकती है लेकिन इसके विपरीत जीवन में ईष्र्या, द्वेष, अहंकार जैसी प्रवृत्तियां कहां से आ गईं, यही नहीं वे मनुष्य पर हावी भी हो गईं और बेईमानी, छल-कपट और धोखाधड़ी एक सामान्य व्यवहार बन गया। 

इसका अर्थ यही है कि जीवन में चाहे सहनशीलता, संवेदना, परस्पर आत्मीयता और एक-दूसरे के प्रति सद्भावना का कोई स्थान हो या न हो पर सफल होने के लिए किसी भी साधन को अपनाने में कोई बुराई नहीं है चाहे उसका स्वरूप अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन ही क्यों न हो? 

आधुनिकता और नैतिकता : क्या कभी इस बात पर गंभीरता से विचार किया गया है कि हमारे देश में 14-15 वर्ष से 35 से 40 वर्ष के युवा वर्ग के लिए अपराधों में हिस्सा लेना, हिंसक व्यवहार करना, नशे और ड्रग्स का सेवन और किसी भी कीमत पर अपनी धाक जमाए रखना जीवन शैली बन गया है? इसे आधुनिकीकरण, शहरीकरण या वैश्वीकरण कहकर किनारे नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक वास्तविकता है कि जिन देशों में इस तरह के व्यवहार पनपे, उनका पतन होने में अधिक समय नहीं लगा और निश्चित रूप से वहां की अर्थव्यवस्था बिगड़ी ही नहीं बल्कि बेकाबू होकर उस देश को ले डूबी। 

इन देशों में निरंकुश शासक अपनी शोषण करने की आदत के बल पर अपनी प्रजा को विदेशी दासता से बचा नहीं पाए, अब चाहे यह राजनीतिक हो, आॢथक हो, सामाजिक हो या फिर उन पर कब्जा हो। और जब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि कुछ भी छिपाना आसान नहीं है तो फिर यह सोचने का यही सही वक्त है कि हम अपने देश में ऐसी परिपाटी को अपनी जड़ न मजबूत होने दें जिससे अनैतिक आचरण करना मामूली बात समझी जाने लगे। ऐसी शिक्षा व्यवस्था को क्या कहेंगे जिसमें पढ़ाया तो यह जाता हो कि जीवन में ईमानदारी का होना आवश्यक है लेकिन घर, परिवार और समाज में यह देखने को मिले कि बेईमानी, रिश्वतखोरी, अत्याचार और कदम-कदम पर भेदभाव करना एक सामान्य व्यवहार माने जाने की परंपरा है और उसका पालन करना अनिवार्य है? 

शिक्षा का उद्देश्य केवल जब इतना रह जाए कि जीवन में सुख-सुविधाओं का अंबार लगाया जाए, उसके लिए कोई भी रास्ता अपनाने पर रोक न हो, कुछ भी करने की छूट हो और इसके साथ ही अगर किसी की नजर में आ गए तो बच निकलने के अनेक रास्ते हों, तब समझना चाहिए कि देश का पतन होना निश्चित है। इसे और स्पष्ट रूप से कहना हो तो कह सकते हैं कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए सत्ता का दुरुपयोग करना सामान्य घटना बन जाए और किसी का उत्पीडऩ और शोषण समाज को विचलित न कर सके। ऐसी स्थिति होने पर यदि पीड़ित शस्त्र उठा लें, आंदोलन का रास्ता अपना लें और किसी भी प्रकार से अपने साथ हुई ज्यादती का बदला लेने निकल पड़ें तो इसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए? 

जीवन में नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों और सही तथा सत्य का साथ देने की परिभाषा बदल गई है। यह बदलाव केवल गिरावट का संकेत है और आशंका इस बात की है कि जब साधारण नागरिक के सब्र का घड़ा भर जाएगा, तब क्या होगा? सत्ता पाने और उस पर अधिकार जमाए रखने के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल सही लगने लगे, तो समझिए कि अशांति और विद्रोह होना तय है। जब तक सत्ता, शासन और उसके कर्णधार अपने जीवन में नैतिक आचरण करने और भेदभाव न करने की नीति का पालन नहीं करेंगे, तब तक सामान्य नागरिक से यह उम्मीद करना कि वह केवल हाथ जोड़कर सब कुछ स्वीकार करता रहेगा, एक ऐसी गलतफहमी है जिसका शिकार बनने में देर नहीं लगती। यह जितनी जल्दी समझ में आ जाए कि शासक नहीं बल्कि जनता कर्णधार है, उतना बेहतर होगा।-पूरन चंद सरीन    

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