मातृभाषा के बिना मौलिक विचारों की सृजना सम्भव नहीं

Wednesday, Feb 21, 2018 - 03:53 AM (IST)

जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषायी पहचान है तथा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना से उत्प्रेरित करती है। सच तो यह है कि मातृभाषा आत्मा की आवाज है इसलिए गांधी देश की एकता के लिए यह आवश्यक मानते थे कि अंग्रेजी का प्रभुत्व शीघ्र समाप्त होना चाहिए। भाषा अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है, अत: किसी विदेशी भाषा को जानने का विरोध नहीं होना चाहिए लेकिन स्वभाषा पर स्वाभिमान रखना भी जरूरी है। 

मातृभाषा व्यक्तित्व निर्माण का सशक्त साधन है। बच्चे का मानसिक विकास एवं व्यक्तित्व निर्माण उन विचारों पर निर्भर करता है जो उसे परिवार एवं शिक्षा संस्थान से प्राप्त हुए हैं। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में संसार की सभी वस्तुओं, क्रियाओं व घटनाओं को समझने का आधार मातृभाषा ही है यानी वह भाषा जो उसके परिवार में बोली जाती है जिसे मां बोली भी कहते हैं। भारत के संविधान में शिक्षा संघ व राज्य सूची का विषय है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि देश में सभी शासकीय कार्यों के लिए हिन्दी या राज्यों की भाषाओं का प्रयोग होना चाहिए। संविधान की आठवीं सूची में अंग्रेजी का कहीं  स्थान नहीं है, फिर भी कार्यालयों में कामकाज अंग्रेजी में प्रमुखता से होता है तथा कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी है। अंग्रेजी की चाहत में कहीं हम अपनी भाषाओं से अनभिज्ञ रहते हुए अपनी बहुमूल्य संपदा को नष्ट तो नहीं कर रहे हैं? 

संविधान अनुच्छेद 246 (7वीं अनुसूची तथा समवर्ती सूची 3 के क्रमांक 25 एवं 26) के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकारों का दायित्व है कि सम्पूर्ण शिक्षा के उद्देश्यों, मानकों के बारे में स्पष्ट नीति बनाई जाए लेकिन आजादी के 70 वर्षों के उपरांत भी ऐसा दिखाई नहीं देता है। शायद यह भी एक बड़ा कारण हो कि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करने वाले अधिकतर युवकों में रचनात्मक तथा सृजनात्मक विचारों की कमी दिखाई देती है। हमारे संविधान निर्माताओं की आकांक्षा थी कि आजादी के बाद देश का शासन हमारी अपनी भाषाओं में चले और समाज में एक सामंजस्य स्थापित हो और सभी की समान प्रगति हो। संविधान की उद्देशिका एवं अनुच्छेद 14, 21क, 45, 344, 351 विदेशी भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की न तो अनुमति देता है, न ही अनुसमर्थन करता है। 

मातृभाषा सीखने, समझने एवं ज्ञान की प्राप्ति के लिए सरल व सहज भाषा है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. अब्दुल कलाम का मानना था कि मैं वैज्ञानिक इसलिए बन पाया क्योंकि मैंने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी तथा गणित व विज्ञान की शिक्षा भी मातृभाषा में ही ली थी। महात्मा गांधी भी विदेशी भाषा में शिक्षा के माध्यम को बच्चों पर बोझ डालने का कार्य मानते थे तथा कहा करते थे कि मातृभाषा यदि शिक्षा का माध्यम नहीं होगा तो बच्चे रटने के लिए मजबूर हो जाएंगे जिससे उनमें सृजनात्मकता खत्म हो जाएगी। 

विश्व के सम्पन्न देशों अमरीका, रूस, जापान, कोरिया, इंगलैंड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन तथा इसराईल में शिक्षा एवं शासन की भाषा वहां की मातृभाषा ही है। इसराईल के 16 विद्वानों ने तो नोबेल पुरस्कार अपनी मातृभाषा हिब्रू में ही प्राप्त किए हैं। माइक्रोसाफ्ट के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. सक्रांत सानू ने अपनी पुस्तक ‘अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल’ में दिए तथ्यों के आधार पर बताया है कि विश्व में सकल घरेलू उत्पाद में प्रथम पंक्ति के 20 देश सारा कार्य अपनी मातृभाषा में ही करते हैं। इनमें से 4 ऐसे देश हैं जिनकी अपनी मातृभाषा अंग्रेजी ही है। बच्चों के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है जितना शारीरिक विकास के लिए मां का दूध आवश्यक माना जाता है। 

हमें ज्ञात है कि फ्रांसीसी, जापानी, जर्मनी बोलने वालों की संख्या 2 प्रतिशत से भी कम होने पर वे दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित माने जाते हैं इसलिए मातृभाषा की अपेक्षा विदेशी भाषा की बोलचाल से भारतीयों को सभ्य तथा प्रतिष्ठित मानना भी एक भ्रमजाल ही है। भारत में हम स्वाभिमान, स्वदेश एकता, अखंडता, सांस्कृतिक धरोहर एवं छुपे ज्ञान को समझकर देश की प्रगति अपनी प्रकृति के अनुसार करना चाहते हैं तो मातृभाषा को अधिमान देना ही होगा। सरकार तथा समाज को इस सत्य को समझने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। मातृभाषा स्वाभिमान के लिए हम इसकी शुरूआत भारत को इंडिया नहीं भारत ही कहें और लिखें, अपने हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा में करें, नाम पट्टिका तथा निमंत्रण पत्र अपनी भाषा में लिखने से कर सकते हैं। इस छोटी-सी शुरूआत से हम देश में भावनात्मक तथा सांस्कृतिक एकता स्थापित  कर सकेंगे। भारतीय संविधान में उल्लेखित सभी 22 भाषाएं हमारी राष्ट्रीय भाषाएं हैं। 

मातृभाषा के महत्व को समझते हुए यूनैस्को ने 17 नवम्बर, 1999 को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की स्वीकृति दी थी। विश्व भर में भाषायी एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मनाया जाता है।-प्रिं. देश राज शर्मा

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