किसान ही नहीं, उनके परिवार भी ‘कृषि संकट’ की चपेट में

punjabkesari.in Thursday, Jun 15, 2017 - 10:45 PM (IST)

मध्य प्रदेश के आंदोलनरत किसानों की मीडिया में आ रही तस्वीरों में एक बात उल्लेखनीय थी कि अनगिनत युवक जीन्स पहने हुए थे। स्पष्ट है कि आंदोलन में सभी किसान नहीं थे बल्कि उनके बेटे भी थे जो बढ़ती बेरोजगारी से नाखुश हैं। आज हम केवल किसानों के ही संकट का सामना नहीं कर रहे बल्कि यह किसान परिवारों का भी संकट है जिनके बच्चे गैर-कृषि रोजगार चाहते हैं। 

क्या हमने किसानों को गंभीरता से कभी पूछा है कि वे खेतीबाड़ी को पसंद करते हैं या नहीं? जहां तक सर्वेक्षणों का संबंध है शायद एक बार ही ऐसा किया गया था। कई वर्ष पूर्व नैशनल सैम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा देश भर में 50 हजार से भी अधिक किसानों का स्थिति आकलन सर्वेक्षण (एस.ए.एस.) करते हुए यह सवाल किया था : ‘‘क्या एक प्रोफैशन के रूप में आप कृषि को पसंद करते हैं?’’ 40 प्रतिशत किसानों ने कहा था कि नहीं। 

आई.आई.टी. दिल्ली के अंकुश अग्रवाल और मैंने एस.ए.एस. के डाटा का विश्लेषण किया। ‘क्या किसान सचमुच खेती करना पसंद करते हैं? संक्रमण में से गुजरते भारतीय किसान’ (ऑक्सफोर्ड डिवैल्पमैंट स्टडीज, 2017) नामक अपने शोध पत्र में  हमने कृषि को पसन्द करने वाले किसानों की तुलना उनसे की थी जो खेती करना पसन्द नहीं करते। हमने पाया कि असंतुष्ट किसानों में दोनों तरह के लोग थे- बहुत संभ्रांत और बहुत कमजोर स्थिति वाले। संभ्रांत किसान खेती को इसलिए नापसन्द करते थे क्योंकि उनकी आकांक्षाएं बहुत ऊंची थीं जबकि गरीब किसान उत्पादन बहुत कम होने के कारण खेती को अलविदा कहना चाहते थे।

संसाधनों की कमी से जूझ रहे जो किसान खेती को पसन्द नहीं करते थे उनकी मालिकी वाली जोत का औसत आकार केवल 0.85 हैक्टेयर था जबकि खेती को पसन्द करने वाले किसानों की जोत के मामले में यह आकंड़ा 1.4 हैक्टेयर था। कृषि को नापसन्द करने वाले किसानों की सिंचाई संसाधनों, ऋण एवं फसली बीमा तक पहुंच भी अपेक्षाकृत कम थी। न्यूनतम समर्थन मूल्यों (एम.एस.पी.) के बारे में भी उनमें जागरूकता की कमी थी और वे किसान समूहों की सदस्यता लेने की रुचि नहीं रखते थे। खेती की उत्पादकता बढ़ाने तथा जोखिम को कम करने के लिए यही बातें जरूरी हैं। किसानों ने भी 2 कारकों को रेखांकित किया। दो-तिहाई किसानों ने कृषि को नापसन्द करने के लिए कम लाभ को मुख्य कारण बताया जबकि 20 प्रतिशत किसानों ने जोखिम को प्रमुख कारण करार दिया। 

कृषि उत्पादन में सिंचाई की केन्द्रीय भूमिका होती है। फसल मार होने की स्थिति में फसल बीमा कुंजीवत कवच का काम करता है लेकिन केवल 3.8 प्रतिशत किसानों को ही किसी तरह का फसल बीमा उपलब्ध है। एम.एस.पी. के बारे में जागरूकता बेहतर लाभ दिलाती है। सस्ते ऋण तक पहुंच निवेश को प्रोत्साहित करती है जबकि किसान समूहों की सदस्यता ऋण के बोझ तले दब जाने की स्थिति में समर्थन उपलब्ध करवाकर परेशानी में कमी करती है। (विडम्बना यह है कि ऋण माफी से उन किसानों को कोई सहायता नहीं मिलेगी जिनकी स्थिति बहुत अधिक संवेदनशील है, क्योंकि ऐसे अधिकतर किसानों की तो बैंक ऋण तक पहुंच नहीं होती और वे सूदखोरों पर ही निर्भर होते हैं।) 

आयु और लैंगिकता भी किसानों की कृषि धंधे के प्रति संतुष्टि को प्रभावित करती है। युवा किसान अधिक असंतुष्ट होने का रुझान रखते हैं जबकि महिला कृषकों में असंतुष्टता का रुझान पुरुषों की तुलना में अधिक होता है। इसका कारण शायद यह है कि बहुत कम महिलाओं के पास जमीन होती है और उनमें से अधिकतर को सिंचाई, ऋण उपलब्धता, इन्पुट्स और मंडीकरण के संबंध में सबसे अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसका उत्पादकता पर भी असर पड़ता है क्योंकि कम से कम 35 प्रतिशत कृषि श्रमिक महिलाएं हैं और भविष्य में इस आंकड़े के बढऩे की ही संभावना है। 

खाद्य सुरक्षा के संबंध में भी इसका प्रभाव पड़ता है क्योंकि 75 प्रतिशत ग्रामीण महिला श्रमिक और 59 प्रतिशत ग्रामीण पुरुष श्रमिक मुख्य तौर पर रोजी-रोटी के लिए कृषि पर ही निर्भर होते हैं। सच्चाई यह है कि यदि हम महिलाओं की समस्याओं में कमी लाने की कोशिश नहीं करते तो भविष्य में किसान आंदोलनों का नेतृत्व शायद महिलाओं के हाथों में होगा। उल्लेखनीय है कि असंतुष्ट किसान परिवारों में प्रति एकड़ जमीन की दृष्टि से कामकाजी आयु के सदस्यों की संख्या अधिक होती है। संतुष्ट परिवारों में यह संख्या 4.2 है जबकि असंतुष्ट परिवारों में 6.6 है। परिवार में कामकाजी वयस्कों की अधिक संख्या होने का लाभ उस समय मिट्टी हो जाता है यदि ये बच्चे खेती करना ही न चाहते हों। अधिक जमीन के मालिक किसानों को इस परेशानी का अधिक सामना करना पड़ता है क्योंकि  पक्के घरों के मालिक होने के बावजूद अपने पढ़े-लिखे बच्चों की महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाते। 

भौगोलिक स्थिति अपनी जगह बहुत महत्वपूर्ण है। कृषि धंधे से असंतुष्ट किसानों की अधिकतर संख्या उन राज्यों से संबंधित है जहां वर्षा कम होती है, शहरीकरण का स्तर भी कम है और प्रति व्यक्ति आय भी बहुत थोड़ी है। अमीर राज्यों की तुलना में इन राज्यों में कृषि मुख्यत: किसी तरह जिंदा रहने का अंतिम प्रयास है। अमीर राज्यों में मौसम भी अधिक अनुकूल होता है और उपजीविका के लिए खेती के साथ-साथ व्यावसायिक खेती भी की जाती है। कुछ लोगों का तर्क है कि असंतुष्ट किसानों को गैर-कृषि काम-धंधे अपनाने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन ऐसे लोग यह संज्ञान लेने में विफल रहते हैं कि ऐसे किसानों का एक वर्ग बहुत कम पढ़ा-लिखा है और उसके पास संसाधनों की भारी कमी है जिसके चलते उसके समक्ष खेती से बाहर सिवाय फुटकल काम करने के अन्य विकल्प बहुत कम हैं।

फलस्वरूप ऐसे लोग अधिक से अधिक गरीब होते जा रहे हैं जबकि अच्छे पढ़े-लिखे युवा किसान स्थायी नौकरियां चाहते हैं जो बहुत कम उपलब्ध हैं। इसके अलावा शहरी और ग्रामीण लोगों के लिए रोजगार की संभावनाओं का भारी अंतर है। अनेक अध्ययनों से यह पता चला है कि खेती छोड़कर महानगरों में जाने से गरीबी कम नहीं होती बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि यह पहले से भी बढ़ जाए।

गरीबी में कमी लाने के लिए सबसे अच्छा रास्ता खेती उत्पादकता में वृद्धि करना और इससे अगला उपाय गांवों एवं कस्बों में गैर-कृषि रोजगार पैदा करना है। गैर-कृषि रोजगार के मामले में मुख्य लाभ कुशल स्थायी नौकरी वालों को मिलता है लेकिन ऐसे रोजगारों की संख्या बहुत कम है जबकि किसान परिवारों के पढ़े-लिखे युवक बिल्कुल ऐसे ही रोजगार चाहते हैं। अधिकतर किसान तो स्वयं चाहते हैं कि उनके बच्चे खेती छोड़ दें। इसी उद्देश्य को सामने रखकर अपने बच्चों को पढ़ाते हैं ताकि गैर-कृषि धंधों के विकल्प के लिए वे तैयार हो सकें। 

कृषि को अलविदा कहने की आकांक्षा तो बहुत अधिक है लेकिन इसमें से निकल पाने की काबिलियत अधिक लोगों के पास नहीं है। कृषि क्षेत्र में नए कामों की ओर प्रस्थान की योग्यता सबसे कम होती है। एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण में पाया गया कि कृषकों के 50 प्रतिशत बच्चे सिवाय कृषक के और कुछ नहीं बन पाते। संसाधनों की दृष्टि से गरीब किसानों के साथ-साथ पढ़े-लिखे और खाते-पीते किसानों दोनों को ही सहायता देने के लिए हमें एक बहुआयामी रणनीति की जरूरत है। बहुसंख्य कृषकों के लिए खेती उत्पादन में वृद्धि और उपजीविका के नए-नए तरीकों की उपलब्धता ही सबसे उत्कृष्ट रास्ता है। बहुत से विशेषज्ञ कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए सिफारिशों की एक लंबी सूची प्रस्तुत करते हैं लेकिन मैं  इनमें से दो का ही उल्लेख करूंगी। सबसे पहली बात है सिंचाई। 

भू-जल का प्रयोग बहुत ही समझदारी भरे तरीके से किया जाना चाहिए। हमारे कृषि क्षेत्र का केवल 44 प्रतिशत सिंचित है और वरीयता के आधार पर यह क्षेत्र बढ़ाया जाना चाहिए। जहां तक भू-जल का संबंध है इसका तो हम बहुत ही बेवकूफी भरे तरीके से प्रयोग कर रहे हैं। पंजाब इसका ज्वलंत उदाहरण है जहां वर्ष 2000 से हर वर्ष भू-जल का स्तर 2.6 फुट नीचे गिरता जा रहा है। डीजल, तेल और बिजली पर सबसिडी देने की बजाय हमें भू-जल दोहन का सख्ती से नियमन करना  होगा क्योंकि सबसिडियां किसानों को अधिक ट्यूबवैल लगाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इसके अलावा हमें पानी की बचत करने वाली ड्रिप सिंचाई और वर्षा जल हार्वेस्टिंग जैसी तकनीकें प्रयुक्त करनी होंगी। 

दूसरी रणनीतिक जरूरत है संस्थागत नवोन्मेष की, खास तौर पर किसानों को उच्च मूल्य शृंखला से जोडऩा और सहकारिता को बढ़ावा देना। अपने पूंजी और श्रम व भूमि के संचयन से किसानों को अपनी जोत का आकार, उत्पादकता बढ़ाने तथा जोखिम को मिल-बांट कर सहन करने में सहायता मिलेगी। वे कृषि इन्पुट्स तक आसानी से पहुंच बना सकेंगे और टैक्नोलॉजी का संवद्र्धन भी कर सकेंगे। इसलिए छोटे किसान मंझोले उत्पादक बन सकेंगे। केरल में यह प्रयोग पहले ही सफल हो चुका है जहां कदंबश्री योजना के अंतर्गत 54,000 समूहों में 2.6 लाख महिला कृषक सामूहिक खेती कर रही हैं।

मैंने अपनी शोध के दौरान यह देखा है कि त्रिचूर जैसे जिलों में सब्जी उत्पादन तथा विशेष प्रकार के केले की खेती में लगे समूह काफी लाभ कमा रहे हैं जोकि व्यक्तिगत खेती के अंतर्गत कभी-कभार ही संभव होता है। लाभदायिकता तथा कमाई की सुनिश्चितता में वृद्धि करके और प्रोत्साहन देकर ही हम खेती को अधिक आकर्षक बना सकते हैं। यहां तक कि पढ़े-लिखे युवक भी खेती से दूर नहीं जाएंगे। अप्रसन्न किसानों को ऋण माफी से खुशी नहीं दी जा सकती और न ही सबसिडी के उर्वरकों से पायदार खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है। (साभार ‘इंडियन एक्सप्रैस’)


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News