सिर्फ शब्दों से नहीं बुझेगी ‘भारत की प्यास’

Tuesday, Apr 26, 2016 - 01:21 AM (IST)

(पूनम आई. कौशिश): ‘मम्मी पानी नहीं है तो क्या हुआ?’ उन्हें पीने के लिए पैप्सी दे दो। देश के विभिन्न भागों में सूखे के कारण पड़े अकाल के बारे में यह एक 8 वर्षीय शहरी बच्चे की प्रतिक्रिया है। इस बच्चे के ये शब्द आज के भारत की त्रासदी को दर्शाते हैं क्योंकि देश के 10 राज्य सूखे का सामना कर रहे हैं जिसके चलते किसान ऋण जाल में फंसे हुए हैं और मौत के शिकार हो रहे हैं। 

 
इस सूखे के कारण लगभग 25 प्रतिशत अर्थात 33 करोड़ लोग प्रभावित हैं। जरा सोचिए। राजस्थान के 12 कस्बों और 128 गांवों में चार पानी भरी रेलगाडिय़ां जीवन रेखा बनी हैं। इन रेलगाडिय़ों में पाली जिले में 4 लाख लोगों के लिए जोधपुर से 60 लाख लीटर पानी लाया जाता है। आंध्र प्रदेश में 116 नगरपालिकाओं में से 34 में सप्ताह में 2 बार एक घंटे के लिए पानी आता है। उत्तर प्रदेश में स्थिति इतनी खराब है कि पुलिसकर्मियों को पानी के टैंकरों के साथ तैनात किया गया है क्योंकि दबंग माफिया उन्हें उड़ा ले जाते हैं। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 3 करोड़ लोग पानी के  लिए टैंकरों पर निर्भर हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश के 254 जिलों में 2.55 लाख गांव सूखे से प्रभावित हैं और 637 गांवों में पानी की अत्यंत कमी है। 
 
यह अकाल इतना भीषण है कि इसके चलते न केवल किसान आत्महत्या कर रहे हैं अपितु यह एक जन स्वास्थ्य संकट भी बन गया है। जिसके चलते सूखा प्रभावित क्षेत्रों में डाक्टर सर्जरी को टाल रहे हैं क्योंकि उन्हें हाथ धोने के लिए पानी नहीं मिल रहा है। 
 
महाराष्ट्र के लातूर को ही लें। इस जिले की 5 लाख जनसंख्या के लिए पानी के टैंकर ही जीवन रेखा बने हुए हैं जिनसे जलापूॢत प्रत्येक दूसरे या तीसरे दिन की जाती है। इसके अलावा यह पानी इतना प्रदूषित होता है कि इसके पीने से लोगों को पीलिया, टायफाइड, आंत्रशोथ जैसी बीमारियां हो रही हैं। इसके विपरीत हरियाणा में एक सूखाग्रस्त जिले का दौरा करने के लिए केन्द्रीय कृषि मंत्री हेतु अस्थायी हैलीपैड बनाने में 10,000  लीटर पानी बर्बाद किया गया और इसी तरह कर्नाटक में एक सूखा प्रभावित जिले में जिस सड़क से मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को गुजरना था उस पर धूल उडऩे से रोकने के लिए दो टैंकर पानी उंडेला गया। 
 
क्रिकेट पिच की नमी को बनाए रखने के लिए 3 लाख लीटर से अधिक पानी की आवश्यकता है। आई.पी.एल. के इस सीजन में 60 मैच खेले जाने हैं। इसका तात्पर्य है कि 1.8 करोड़ लीटर पानी इन मैचों में पिच की नमी बनाए रखने के लिए उपयोग किया जाएगा। इसके चलते स्थिति यहां तक पहुंच गई कि मुम्बई हाईकोर्ट ने राज्य में गंभीर जल संकट से निपटने में राज्य सरकार की विफलता के लिए उसकी खिंचाई की और आई.पी.एल. मैचों को राज्य से बाहर कराने का आदेश दिया। न्यायालय ने कहा-लोग मर रहे हैं और आई.पी.एल. गंभीर नहीं है। यह कोई पिकनिक नहीं है। आप स्टेडियमों पर पानी कैसे बर्बाद कर सकते हैं? क्या लोग  अधिक महत्वपूर्ण हैं या आई.पी. एल. मैच? 
 
किन्तु मोटी चमड़ी वाले हमारे नेता अब राज्य में मैच कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। इसका कारण यह है कि आई.पी.एल. में बड़ा पैसा लगा है। इससे बड़े-बड़े उद्योगपति, बॉलीवुड सुपरस्टार, सुन्दरियां, एयरलाइन मालिक और अनेक जानी-मानी हस्तियां जुड़ी हैं। इस खेल में चकाचौंध और ग्लैमर के मिश्रण तथा तुरंत पैसा बनाने, बैंक अकाऊंट भरने, इसमें अंडर वल्र्ड का पैसा लगाने तथा फिक्सरों की उपस्थिति की खबरों आदि ने धीरे-धीरे आई.पी.एल. पर नियंत्रण कर लिया है। 
 
आज आई.पी.एल. से स्पष्ट है कि इसका खेल से कोई लेना-देना नहीं है अपितु यह सत्ता और पैसे का खेल बन गया है। आज सब लोग आई.पी.एल. में इतने व्यस्त हैं कि किसी को भी सूखा, किसानों की आत्महत्या, ग्रामीण क्षेत्रों की दुर्दशा आदि की ओर देखने का समय नहीं है और हर कोई इसे एक दु:स्वप्न कहता है। 
 
पहले यह माना जाता था कि पानी की कमी एकपक्षीय विकास या बड़े पैमाने पर प्रवास के कारण शहरी क्षेत्रों तक सीमित है किन्तु अब यह समस्या पूरे देश में फैल गई है। आज भी देश में 67 प्रतिशत जनसंख्या वर्षा जल पर निर्भर है और भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। इसलिए भूमिगत जल स्तर में प्रति वर्ष 3 से 5 प्रतिशत की गिरावट आ रही है। कुछ क्षेत्रों में मिट्टी के तीनों स्तरों से नीचे तक भूमिगत जल चला गया है। 
 
झीलों और जल संसाधनों के सूखने के कारण यह समस्या और गंभीर हो गई है। भूमिगत जल स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। हैदराबाद में उस्मान सागर सूख गया है। 
 
गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्रों में 1200 फुट  नीचे तक भी पानी नहीं मिल रहा हैै। सूखे के कारण सारा देश त्रस्त है। एक अध्ययन के अनुसार द्वितीय श्रेणी के 401 में से 203 कस्बों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 100 लीटर पानी भी उपलब्ध नहीं है। राजस्थान के 10 कस्बों में 3 दिन में एक बार पानी मिलता है और 31 कस्बों में 2 दिन में एक बार पानी मिलता है। नदी बेसिनों और नदियों के सूखने के कारण देश की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ गई है। 
 
 जल संकट के गहरे होने के साथ-साथ केन्द्र और राज्य सरकारें अपनी विफलताओं पर लीपापोती करने लगी हैं। हाल ही में एक केन्द्रीय मंत्री ने कहा, ‘‘हमें इस संकट का आभास है। हमारे लिए रोटी, कपड़ा और मकान से अधिक महत्वपूर्ण पानी है।’’ क्या वास्तव में ऐसा है? ये मंत्री आगे कहते हैं, ‘‘हमने त्वरित ग्रामीण जल संयोजनाओं पर हजारों करोड़ रुपए खर्च किए हैं।’’ फिर भी कुएं सूखे हुए हैं और महिलाएं पानी के लिए दूर-दूर तक जाती हैं। प्रश्न पैसे का नहीं अपितु यह है कि हमारे शासकों का बुनियादी दृष्टिकोण ही गलत है।  
 
भूमिगत जल उपलब्धता में 1951 की तुलना में लगभग 35 प्रतिशत की गिरावट आई है और एक आकलन के अनुसार वर्ष 2025 तक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता इस आधार वर्ष की तुलना में केवल 25 प्रतिशत रह जाएगी। सरकार को सूखे के बारे मे पहले ही आगाह करा दिया गया था। क्या सरकार सूखा पडऩे की प्रतीक्षा कर रही थी और उसके बाद उसने उसके प्रभाव को कम करने का प्रयास किया। इस स्थिति से बचने के लिए कुछ उपाय आवश्यक हैं। 
 
वनों की कटाई रोकने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए गए जिसके कारण सूखा प्रवण क्षेत्रों में भूमि कम जल धारण करने लगी है। गांवों में तालाबों और पोखरों से गाद क्यों नहीं निकाली गई? हमारे देश में वर्षा जल संचयन की कोई पूर्ण योजना नहीं है। इस प्रौद्योगिकी का उपयोग कर इस समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है और वर्षा जल संचयन का प्रबंधन स्थानीय स्वशासन के स्तर पर किया जा सकता है। इसलिए हमारे नेताओं को अपनी उदासीनता छोडऩी होगी। 
 
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