नियम पालन न करना खतरनाक है

Saturday, Jun 05, 2021 - 05:19 AM (IST)

जब यह पता न हो कि शत्रु कब, कैसे, कहां और कितनी शक्ति से प्रहार करेगा तो जरूरी है उससे बचने के लिए नियमों के रूप में जो कवच है, उसका इस्तेमाल किया जाए। कोरोना महामारी ऐसा ही शत्रु है क्योंकि जरा सी असावधानी बहुत भारी पड़ सकती है। 

आपबीती : महामारी से बचाव के जो साधन पिछले साल हमारे सामने रखे गए थे, वे आज भी उतने ही असरदार हैं, यह समझ में तब आया जब इस वर्ष के शुरूआती महीनों में उनकी तरफ से लापरवाही बरतने का सिलसिला शुरू हुआ। जितनी मुस्तैदी थी, उसमें कमी आते ही एेसा हमला हुआ कि मुहावरे की भाषा में कहें तो नानी याद आ गई।
हालांकि अपनी तरफ से कोशिश यह हुई कि मार्च के मध्य में टीके की पहली डोज लगवा ली थी और बार-बार यह हिदायत दिए जाने कि टीका बीमारी का इलाज नहीं है, बल्कि केवल उसे रोकने का केवल एक हथियार है, फिर भी मान लिया कि बीमारी छू नहीं सकती। 

कुछ तो भूल हुई होगी, मतलब जैसे कि पहले घर से बाहर निकलते ही मास्क लग जाता था, लोगों से मिलने-जुलने में संकोच होता था और अगर यह जरूरी हो ही जाए तो फासला रखने का ध्यान रहता था, बाहर से घर में आते ही जूते बाहर उतार दिए जाते थे और सीधे गुसलखाने में अच्छी तरह साबुन से हाथ मुंह धोकर या मौसम के मुताबिक ठंडे या गर्म पानी से नहाने के बाद नए वस्त्र पहनने का नियम बन गया था, अब उसमें निश्चित रूप से ढिलाई बरतनी शुरू कर दी थी। 

पहले तो पार्क में ही सैर करते या रास्ते में पैदल चलते समय या अपने अथवा किराए के वाहन में मास्क उतर कर जेब में आ जाता था और किसी ने टोका तो बस नाक के नीचे सरका लिया कि मुंह ढंक जाए जबकि नाक का ढका रहना सबसे जरूरी था, लेकिन यह तो चूक हुई थी। इसके अतिरिक्त  लि ट, बैंच या किसी अन्य चीज को छूने के बाद सैनेटाइज करने की आदत थी, वह भी छूट गई थी। यही नहीं, परिवार और दोस्तों के साथ खाना पीना और सैर सपाटा भी होने लगा था और उसमें किसी भी नियम का पालन न करना आदत में आता गया। 

अप्रैल के तीसरे सप्ताह में हरारत सी महसूस हुई, बुखार था, खांसी, गले में खराश हुई तो घरेलू इलाज कर लिया। परंतु यह क्या, परिवार में अगले एक दो दिन सब को यह लक्षण हो गए तो टैस्ट करवाया। रिपोर्ट 3 दिन बाद आई और सब पॉजिटिव पाए गए। इस बात पर मंथन हुआ, एक दूसरे पर ध्यान न रखने का दोष भी लगाया लेकिन शत्रु तो अपना काम कर चुका था। सोचिए, सब एक ही नाव की सवारी करने लगे तो कौन किसका ध्यान रखता, डूबना तो निश्चित लग रहा था। 

डाक्टर ने कह दिया कि कम से कम मुझे तो अस्पताल में शिफ्ट कर ही दिया जाए क्योंकि ऑक्सीजन लैवल कम हो रहा था। परिवार के ही दूसरे शहर में रहने वाले एक सदस्य ने मामले की बागडोर अपने हाथ में ली। एक प्राइवेट अस्पताल में काफी कोशिश के बाद दाखिला मिल गया और बाकी परिवार का घर पर ही उपचार होने लगा। डाक्टर से परामर्श, दवाइयां और खाने-पीने की जैसे तैसे व्यवस्था हुई ताकि किसी अन्य सदस्य की हालत न बिगड़े। 

मृत्यु से आमना-सामना : अस्पताल में दाखिल तो हो गए लेकिन वहां का नजारा तो बिल्कुल ही अलग था। तबीयत तेजी से बिगड़ रही थी। इलाज शुरू हुआ और उसके बाद जो इंजैक्शन, दवाइयों और ऑक्सीजन मास्क लगाए रखने का दौर शुरू हुआ तो बदन में उठने तक की ताकत खत्म होने लगी। बिस्तर से नीचे उतरने की कौन कहे, दैनिक क्रियाओं को भी बिस्तर पर ही करने की मजबूरी हो गई। 

अपने आसपास मरीजों के कराहने, नर्स, डाक्टर को आवाज लगाने और न आने पर झुंझलाहट होने पर कैसा लगता होगा, यह अनुभव हो रहा था। सफेद किट में सिर से लेकर पांव तक ढके होने वाले चिकित्सा कर्मियों को दौड़ भाग करते हुए, किसी की जान बचाने की पूरी कोशिश करने पर भी असफल होने पर उनकी मायूस प्रतिक्रिया देखने को मिल रही थी, फिर भी वे सब अपनी भरसक कोशिश कर रहे थे। 

यहां तक कि अपने ही संगी साथी चिकित्सा कर्मियों के बीमार पडऩे का दु:ख झेलना और अगर कोई हमेशा के लिए साथ छोड़ जाए तो उसे भी भूलकर रोगियों को स्वस्थ करने की मुहिम में जुटे व्यक्तियों के कत्र्तव्य पालन करते रहने का अहसास यहीं हुआ कि कैसे अपनों के खोने के गम को भुलाया जाता है। यह अनुभव कितना डरावना है कि अपने ही बगल के बिस्तर पर कोई अंतिम सांस ले रहा हो और यह रोजाना हो रहा था।

आई.सी. यू-वार्ड में मृत्यु का यह खेल देखना किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए आसान नहीं है जबकि यह हकीकत में हो रहा था। कभी-कभी तो अपना भी अंत होने के आसार नजर आने लगते लेकिन किसी तरह अपने मन को समझा लिया जाता।  सभी इष्ट देव याद आ जाते और श्वेत वस्त्रों में कर्मचारी देवदूत दिखाई देते। 

एक जरा-सी भूल : यह सब पीड़ा, इतनी वेदना, कष्ट और हि मत टूट जाने जैसी हालत क्यों हुई, इसका कारण केवल एक छोटी-सी भूल, नियमों का पालन करने का डर निकल जाना था। जो अभी तक इस बीमारी से बचे हुए हैं, उनके लिए आगे भी बचे रहने का एकमात्र विकल्प नियम पालन ही है। इस बात को समझने के लिए अपने साथ हुए इस घटनाक्रम से बेहतर और क्या होगा जिसने यह मानने पर विवश कर दिया कि तनिक सी भूल चूक, लापरवाही और नियम पालन न करने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।-पूरन चंद सरीन

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