कोई भी व्यक्ति दोषहीन नहीं होता

Monday, Aug 20, 2018 - 04:17 AM (IST)

2 प्रसिद्ध व्यक्तियों का निधन हो गया है और उनके बारे में बहुत-सी बातें लिखी गई हैं। यह भारत में हमारी परम्परा है और विश्व भर में भी इसके बारे में बात की जाती है कि जो लोग दुनिया छोड़ जाते हैं उनके बारे में केवल अच्छी बातें की जाएं। मगर कोई भी व्यक्ति दोषहीन नहीं होता और ईमानदारी से कहें तो यह बात हम खुद पर भी लागू कर सकते हैं। 

इसी भावना से हम इन दो व्यक्तियों के जीवन के कुछ पहलुओं पर नजर डालते हैं जो हमसे बिछुड़ गए हैं। इनमें से अधिक रुचिकर हैं लेखक वी.एस. नायपॉल। उनका पहला नाम विद्याधर था और वह त्रिनिदाद से आए थे, एक ऐसा स्थान जिसके बारे में हमारे देश के लोग भारतीय मूल क्रिकेटरों सुनील नारायण तथा दिनेश रामदीन के कारण जानते हैं। 

इन लोगों के बिहारी पूर्वज लगभग 150 वर्ष पूर्व यहां अनुबंध गुलामों के तौर पर एक सीमित समय के लिए आए थे (जिन्हें बंधुआ मजदूर कहा जाता है) जिन्हें हम वैस्ट इंडीज कहते हैं और वे गन्ने के खेतों में काम करते थे। मगर जब उनकी स्थायी कार्यकाल की बंधुआ मजदूरी समाप्त हो गई, उनके पास घर वापस लौटने के लिए पर्याप्त धन नहीं था और वे वहीं बस गए और अपनी खुद की इंडो-कैरीबियन संस्कृति विकसित कर ली। नायपॉल कोई भारतीय भाषा नहीं बोलते थे मगर स्पैनिश तथा अंग्रेजी जानते थे। वह अपने पहले नाम विद्या की जड़ों के बारे में जानते थे जो लैटिन तथा अंग्रेजी शब्द वीडियो के ही समान था जिसका अर्थ है ‘मैं समझ गया’। 

वह छात्रवृत्ति पर ऑक्सफोर्ड में पढ़े और फिर लंदन में बी.बी.सी. के लिए काम किया। अपने जीवन के तीसरे दशक में उन्होंने उपन्यासों तथा यात्रा पुस्तकों की शृंखलाएं लिखनी शुरू कीं। इनमें उन्होंने संस्कृतियों तथा उनमें पाए जाने वाले अंतरों तथा दोषों की समीक्षा की। उनकी अवलोकन की क्षमताएं उल्लेखनीय थीं और किसी भी चीज को मात्र देखने भर से उसमें गहराई तक घुसने की उनमें क्षमता थी। उदाहरण के लिए वह ईरान गए और तुरन्त देखा कि शिया धर्म गुरुओं द्वारा पहना जाने वाला काला लबादा तथा सिर पर ओढऩे वाला कपड़ा मूल रूप से ऑक्सफोर्ड तथा कैम्ब्रिज का काले रंग का ग्रैजुएशन गाऊन था जो आज दुनिया भर में सामान्य है। नायपॉल ने लिखा कि भारतीयों में अवलोकन करने की यह ताकत नहीं है। विदेशों की यात्रा करने वाले भारतीय ग्रामीणों की तरह थे जो अपनी खुद की संस्कृति तथा जो वह विदेशों में देखते थे, विशेषकर पश्चिम में, उनमें अंतर देख पाने में सक्षम नहीं थे। वे दुनिया के लिए कई मायनों में अंधे थे। 

अपने बाद के जीवन में उन्होंने भारतीयों की त्रुटियों बारे अपना लेख लिखा। जब 1960 के दशक में वह भारत आए तो दुविधा में पड़ गए कि क्यों यह इतना गंदा तथा अकुशल है। भारत पर उनकी पहली पुस्तक ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनैस’ एक रिकार्ड था कि कैसे भारत में अधिकतर चीजें बुरी हैं। जो उन्होंने देखा उससे वह सकते में आ गए क्योंकि जैसा कि उन्होंने लिखा, उनके माता-पिता तथा संबंधियों ने भारत के बारे में एक ऐसी कहानी गढ़ी थी कि यह एक तरह से वंडरलैंड है। उन्होंने कहा कि ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनैस’ उनके लिए आसानी से लिखी जाने वाली पुस्तक नहीं थी। 

भारत में नायपॉल को लगभग हर कोई नापसंद करता था जिसने भी उनकी पुस्तक पढ़ी थी (अधिकतर लोगों ने नहीं) या जो लोग मीडिया रिकार्ड्स के कारण उन्हें जानते थे। यह अधिक सामान्य तरीका था जिस कारण लोग इस लेखक के अस्तित्व बारे जानते थे। नायपॉल काभारतीयों बारे एक अन्य आरोप यह था कि वे लोग पढ़ते नहीं। उनका दावा था कि अधिकतर भारतीयों ने तो गांधी की आत्मकथा या नेहरू के विचारों को भी नहीं पढ़ा होगा। हालांकि इन दोनों व्यक्तियों के बारे में उनके विचार बहुत मजबूत हैं। मुम्बई के कवि निसिम ऐजेकील ने ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनैस’ पढ़ी और उसकी प्रतिक्रिया में ‘नायपॉल्ज इंडिया एंड माइन’ लिखी।

अब हम दूसरे प्रसिद्ध व्यक्ति की ओर मुड़ते हैं जो हमें छोड़ गए हैं और वह हैं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। उन्हें आज एक भद्र व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो कई मायनों में अपनी पार्टी के दूसरे सदस्यों से अलग थे। यह उनका एक विलक्षण गुण था। वाजपेयी को सभी तरह के राजनीतिक लोग पसंद करते थे क्योंकि हालांकि वह एक ऐसी संस्कृति तथा राजनीति से थे जो अल्पसंख्यकों को निशाना बनाती थी मगर उन्हें एक विनम्र व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था। उनके अंतर्गत भाजपा के तीन मुख्य राजनीतिक मुद्दे-बाबरी मस्जिद, जम्मू तथा कश्मीर को संवैधानिक स्वायत्तता को हटाना तथा भारत के मुसलमानों के पर्सनल लॉ को समाप्त करना आगे बढ़ाए गए। उन्होंने बहुत आवेग से इन तीनों मुद्दों को आगे बढ़ाया तथा लाल कृष्ण अडवानी की सांझेदारी में वह हमारी राजनीति में धर्म आधारित शक्तिशाली भावनाएं पैदा करने में सक्षम रहे जो स्वतंत्रता के बाद पहले चार दशकों तक राष्ट्रीय स्तर पर नदारद थे। भाजपा को इसका बड़ा पुरस्कार मिला और अपने मुख्य राजनीतिक दल बनने का श्रेय वह वाजपेयी तथा अडवानी की इस कार्रवाई को देती है। 

वाजपेयी सिद्धांतवादी थे, इस मायने में कि वह सही में हिंदुत्व में विश्वास करते थे मगर उग्रवाद अथवा ङ्क्षहसा को पसंद नहीं करते थे। यही वह बात थी जो उन्हें उनकी पार्टी में फिट नहीं बिठाती थी जो आवश्यक रूप से सड़कों पर कार्रवाई करने के बारे में उत्साहित थी। पूर्ववर्ती राजग सरकार में गौरक्षक हिंसा जैसी चीजें नहीं होने का कारण वाजपेयी की द्विविधता थी। वह गाय की रक्षा करना चाहते थे। मगर इस भावना के कारण उत्पन्न हिंसा से वह सहज महसूस नहीं करते थे। इसी विरोधाभास के कारण लोग वाजपेयी को पसंद करते थे तथा जॉर्ज फर्नांडीज तथा ममता बनर्जी जैसे लोग उनकी सरकार में शामिल हुए। 

ऐसी स्थिति संबंधी समस्या का 2002 में खुलासा हुआ जब वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को हटाने का प्रयास किया मगर कार्यकत्र्ताओं ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी। किसी भी संगठन में जिसकी एक उत्साहपूर्ण विचारधारा होती है, नर्म विचार रखने वाला व्यक्ति हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति से दब सकता है जो अधिक उग्र हो क्योंकि ऐसा ही समर्थक चाहते हैं। यह एक ऐसे आंदोलन की स्वाभाविक पराकाष्ठा थी जिसे वाजपेयी तथा अडवानी ने शुरू किया था और चूंकि वाजपेयी संभवत: इसे समझ नहीं सके, नायपॉल निश्चित रूप से ऐसा कर पाए थे।-आकार पटेल

Pardeep

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